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झारखंड में खेलों की बदहाल, मोबाइल की रोशन में बांटे गए पुरस्‍कार

झारखण्ड में खेलों का क्या हाल है, यह किसी से छिपा नहीं है. भले ही प्रदेश में राष्ट्रीय खेलों के दौरान विश्वस्तरीय सुविधा वाले स्टेडियम बनाये जाने की बात कही गयी हो, लेकिन खेलों के प्रति सरकारी उदासीनता की वजह से स्टेडियम बेहाल हैं.

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घातक है खेलों की उपेक्षा
घातक है खेलों की उपेक्षा

झारखण्ड में खेलों का क्या हाल है, यह किसी से छिपा नहीं है. भले ही प्रदेश में राष्ट्रीय खेलों के दौरान विश्वस्तरीय सुविधा वाले स्टेडियम बनाये जाने की बात कही गयी हो, लेकिन खेलों के प्रति सरकारी उदासीनता की वजह से स्टेडियम बेहाल हैं.

इसका ताजातरीन उदाहरण रांची में मंगलवार को समाप्‍त 53वीं नेशनल ओपन एथलेटिक्स चैम्पियनशिप के दौरान देखने को मिली, जब रात को आयोजित समारोह में झारखंड के लोगों का मान-सम्मान ताक पर रख दिया गया. इस चैंपियनशिप में भाग लेने देशभर के कई बड़े एथलीट और डेलिगेट्स आये हुए थे, लेकिन समापन समारोह में पुरस्कार वितरण के दौरान बिरसा मुंडा एथलेटिक्स स्टेडियम की बिजली चली गयी. नतीजतन टॉर्च और मोबाइल फोन की रोशनी में समारोह संपन्न हुआ. बिजली गुल होने के कारण समापन समारोह के दौरान होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम को भी टालना पड़ गया.

हैरत की बात है कि जब बिजली गुल हुई, उस समय मंच पर मुख्य अतिथि राज्य की खेल मंत्री गीताश्री उरांव, खेल सचिव वंदना डाडेल, निदेशक अशोक कुमार, भारतीय एथलेटिक्स टीम के मुख्य कोच बहादुर सिंह समेत अन्य लोग लोग मौजूद थे. मंच के सामने देशभर से आयी 24 टीमों और छह संस्थानों के एक हजार से अधिक एथलीट मौजूद थे. साथ ही ओवरऑल चैंपियन के अलावा चैंपियनशिप के बेस्ट एथलीटों के नामों की घोषणा भी की जानी थी. इस दौरान स्टेडियम में मौजूद लोग बिजली का इंतजार करते रहे.

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बिजली जाने से पूरे स्टेडियम में अफरातफरी का माहौल बना रहा. जब काफी इंतजार के बाद भी बिजली नहीं आयी, तो करीब 45 मिनट बाद आयोजकों ने टॉर्च और मोबाइल की रोशनी में समारोह संपन्न कराने का फैसला किया. काफी प्रयासों के बाद करीब घंटे भर बाद स्टेडियम में बिजली की सप्‍लाई शुरू हो सकी.

राज्य में खेलों की दुर्दशा की कहानी यही खत्म नहीं होती है. इससे पहले भी राष्ट्रीय स्तर की शूटिंग प्रतियोगिता में भाग लेने वाले शूटरों को अपार्टमेंट की छत पर अभ्यास करना पड़ा,  क्योंकि IOC ने इन्हें शूटिंग रेंज मुहैया कराने से इनकार कर दिया था. IOC के अधिकारियों ने शूटिग रेंज के लिए इन लोगों से मोटी रकम की मांग की थी.

वहीं राष्ट्रीय खेलों के दौरान यहां के तैराकों को टर्फ पर तैराकी की प्रैक्टिस करनी पड़ी थी. इसमें भी आयोजकों ने स्विमिंग पूल मुहैया कराने से इनकार कर दिया था. इस बात को लेकर काफी बवाल भी मचा था.

उपेक्षा की ताजा कड़ी में विदेश में फुटबाल प्रतियोगिता में तीसरा स्थान पाकर लौटी रांची की ग्रामीण लडकियों की U-13 टीम का नाम भी जुड़ा है. मीडिया में जीत की खबर आने के बाद सरकार से आनन-फानन में खिलाडि़यों के लिए न केवल स्टेडियम के लिए जगह देने की बात कही, बल्कि इन लोगों को खेल से जोड़े रखने के लिए तमाम तरह की घोषणाएं भी कीं. लेकिन ये सभी घोषणाएं महज हवा-हवाई साबित हुईं. हकीकत यह है कि स्टेडियम बनना तो दूर, जिस मैदान में ये बच्चियां प्रैक्टिस करती थीं, वहां पर अब फसल लगा दी गयी है.

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कभी हॉकी के लिए जाने जानेवाले झारखण्ड में यह खेल भी रसातल में पहुंच गया है. हॉकी की नर्सरी कहे जाने वाले खूंटी जिले के अब एक्का-दुक्का लोग ही इसके प्रति रुझान रखते हैं. खेलों के प्रति उपेक्षा के लिए सिर्फ सरकार की नीतियां और खेलों के प्रति सरकारी उदासीनता ही जिम्मेवार है.

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