scorecardresearch
 

नरेंद्र मोदी के लिए जरूरी है अरविंद केजरीवाल

केजरीवाल अपने साथ अन्ना और किरण बेदी को लेकर अगर आगे बढ़ जाते तो शायद 2014 में हिंदुस्तान की सियासत में उनका मयार कुछ और होता.

Advertisement
X
अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोदी
अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोदी

नए भारत का आंदोलन मोदी ने नहीं शुरू किया. नए भारत के आंदोलन को केजरीवाल और अन्ना ने मिलकर अपने जिगर से फूंका था. अन्ना का आमरण अनशन 1947 के बाद देश के इतिहास का सबसे प्रभावशाली अनशन था. ऐसा अनशन जिसकी लाइव कवरेज ने करोड़ों घरों को पहली बार एक बड़ी लड़ाई के लिए एक जुट कर दिया. ये वही मोड़ था जहां बीजेपी और कांग्रेस दोनों डर कर संसद के दड़बे में छुप गई थी और मोदी कहीं सीन में नहीं थे.

इसी मोड़ पर केजरीवाल अपने साथ अन्ना और किरण बेदी को लेकर अगर आगे बढ़ जाते तो शायद 2014 में हिंदुस्तान की सियासत में उनका मयार कुछ और होता.

अगस्त क्रांति के आंदोलन के वक्त केजरीवाल और अन्ना की दीवानगी का आलम ये था कि उनकी एक ललकार पर हिंदुस्तान बिछा जा रहा था. उनके मुंह से बोल नही मंत्र निकल रहे थे. उनके इशारे पर घटनाक्रम बदल रहा था. उनकी उंगलियों पर राजपथ नाच रहा था. ये सारा शो केजरीवाल का था. ये सारा आंदोलन केजरीवाल के ब्लू-प्रिंट से निकला था. अन्ना आंदोलन का चेहरा बने थे और किरण बेदी उसकी साख. लेकिन महत्वाकांक्षाओं का ज्वार देश के सबसे ऐतिहासिक जन आंदोलन को निगल गया. किसी का अहंकार तो किसी की जिद आंदोलन के लिए आत्मघाती बन गई. रातों रात मिली शोहरत में किरण बेदी और केजरीवाल दोनों डगमगा गए और अन्ना को उमड़ती भीड़ बहा ले गई. शायद ये सभी हैसियत से ऊंची छलांग लगा चुके थे और हवा में बैलेंस खो बैठे.

Advertisement

इस आंदोलन की राख से एक व्यक्ति का पुनर्जन्म हुआ. वो व्यक्ति नरेंद्र दामोदर दास मोदी था जिसने दिल्ली में बिखरी सरकार, बिखरे विपक्ष और बिखरे हुए एक आंदोलन के शून्य को भरने में देर नही की. जैसे कोई शेर घात लगाकर मौके का इंतजार कर रहा हो. वैसी ही मोदी ने मौका पाते ही जिंदगी का सबसे बड़ा दांव खेला. केजरीवाल अपने मूल साथियों से जुदा होकर एक जीती बाजी हार चुके थे और मोदी उन्हीं के आंदोलन की राख में बुझी चिंगारियों को जलाकर आगे निकल गए.

सफलता के बीच खुद को संभालना ही सबसे बड़ी चुनौती है. सत्ता में बच्चे की तरह चांद मांगने की जिद नहीं की जाती. चांद और मंगल जीतने की बात होती है. सत्ता में बच्चे की तरह कुर्सी को ठोकर नही मारी जाती. कुर्सी का इकबाल कायम किया जाता है.

2002 में एक पश्चाताप मोदी ने किया था. अब 2014 में एक पश्चाताप केजरीवाल को करना होगा. मोदी के लिए मुलायम, मायावती या पवार जैसे दागदार चुनौती नहीं हैं. मोदी के लिए असली चुनौती केजरीवाल ही हैं. सच यही है कि देश को चलाने के लिए मोदी जरूरी है. मोदी को चेक करने के लिए केजरीवाल.

Advertisement
Advertisement