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हरित क्रांति की अगुवाई करने वाले पंजाब में खेती पर क्यों आया संकट?

पंजाब में 1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति ने राज्य में तेजी से कृषि क्षेत्र का विकास किया, लेकिन अब इसे मंदी का सामना करना पड़ रहा है. 90 के दशक की शुरुआत में पंजाब प्रति व्यक्ति आय के मामले में महाराष्ट्र और हरियाणा के बाद तीसरा सबसे अमीर राज्य था, लेकिन अब कृषि विकास में गिरावट के साथ यह 10वें स्थान पर आ गया है. सवाल ये है कि पंजाब ने कहां गड़बड़ की और उसका कृषि विकास क्यों थम गया?

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 पंजाब में 1960 के दशक में शुरू हुई थी हरित क्रांति (फाइल फोटो-PTI)
पंजाब में 1960 के दशक में शुरू हुई थी हरित क्रांति (फाइल फोटो-PTI)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • पंजाब में 1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति
  • अब पंजाब को मंदी का सामना करना पड़ रहा है
  • पंजाब में कृषि विकास में गिरावट, रफ्तार थमी

पंजाब में 1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति ने राज्य में तेजी से कृषि क्षेत्र का विकास किया, लेकिन अब इसे मंदी का सामना करना पड़ रहा है. 90 के दशक की शुरुआत में पंजाब प्रति व्यक्ति आय के मामले में महाराष्ट्र और हरियाणा के बाद तीसरा सबसे अमीर राज्य था, लेकिन अब कृषि विकास में गिरावट के साथ यह 10वें स्थान पर आ गया है. सवाल ये है कि पंजाब ने कहां गड़बड़ की और उसका कृषि विकास क्यों थम गया? 

आकार में भारत के सबसे छोटे राज्यों में से एक होने के बावजूद पंजाब हाल तक देश के सबसे समृद्ध राज्यों में से एक था. 1970 से 1990 के दशक के दौरान कृषि से राज्य का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) ऊंची दर से बढ़ा. इस अवधि में पंजाब की कृषि विकास दर करीब 5 फीसदी थी, जो किसी भी दूसरे राज्य की तुलना में ज्यादा थी और पूरे भारत के कृषि विकास (करीब 2 फीसदी) की तुलना में दोगुनी थी. 

पंजाब की सिकुड़ती खेती 

बाद में 1990-2000 के दशक में पंजाब की कृषि विकास दर घटकर करीब तीन फीसदी पर आ गई और 2010-2020 के दौरान घटकर दो फीसदी से भी कम हो गई.

साल-दर-साल के आंकड़े बताते हैं कि 2018-19 में पंजाब में कृषि और इससे संबंधित क्षेत्र के सकल मूल्य वर्धन (ग्रॉस स्टेट वैल्यू एडेड- GSVA) की वृद्धि दर 0.47 फीसदी तक आ गई, जबकि इसी दौरान यूपी (1.97%), हरियाणा (5.47%) और भारत (2.4%) की वृद्धि दर तुलनात्मक रूप से ठीक थी.

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पंजाब में तेज कृषि विकास का मॉडल 1960 के खाद्य-संकट का नतीजा था. उस दौरान भारत विदेशों से खाद्यान्न खरीदने के लिए संघर्ष कर रहा था और (PL-480 के तहत) अमेरिका की खाद्य सहायता पर निर्भर था. उसी दौरान भारत के सामने दो देशों के साथ जंग से लेकर सूखे तक की समस्याएं भी आईं. 1962 में चीन और 1965 में पाकिस्तान के साथ लगातार दो युद्ध हुए. 1964-65 और 1965-66 में लगातार सूखा पड़ा. 1965-66 में भारत में कुल 9 करोड़ टन अनाज की मांग थी और इसके मुकाबले सिर्फ 7.2 करोड़ टन अनाज का उत्पादन हो सका. सिर्फ पांच वर्षों (1961-1966) में अनाज का आयात 35 लाख टन से बढ़कर 1 करोड़ टन से ज्यादा हो गया.

अनाज उत्पादन बढ़ाने के सिर्फ दो विकल्प थे- या तो छोटे किसानों के बीच जमीन का वितरण हो या पारंपरिक खेती में टेक्नोलॉजी का विकल्प चुना जाए. भारत के नीति निर्माताओं ने खाद्यान्न संकट से निपटने के लिए दूसरा विकल्प चुना. इंटेंसिव एग्रीकल्चरल डिस्ट्रिक्ट प्रोग्राम (IADP) के तहत  किसानों को ज्यादा उपज वाले बीज, सिंचाई, उर्वरक, कीटनाशक मुहैया कराए गए. इसके साथ-साथ किसानों को आश्वासन दिया गया कि उनके पास उपयोग से ज्यादा जो भी उपज होगी, सरकार निश्चित मूल्य पर खरीद लेगी. इस अभियान को हरित क्रांति के रूप में जाना जाता है और पंजाब इस क्रांति का केंद्र था.

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पंजाब में गेहूं और धान की खेती अर्थव्यवस्था पर हावी हो गई और इनका बम्पर उत्पादन कुछ वर्षों में विकास का एक आदर्श बन गया. लेकिन ये विकास भूजल के अत्यधिक दोहन और भारी रासायनिक उर्वरकों के उपयोग पर आधारित था, जिसने मिट्टी की उत्पादकता को बर्बाद किया. धीरे-धीरे, एक-डेढ़ दशक के भीतर पंजाब के कृषि विकास में कमी आने लगी.

इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस (ICRIER) के अध्ययन के अनुसार, “1986-87 से लेकर 2004-05 के बीच पंजाब की कृषि विकास दर घटकर 3 फीसदी पर आ गई और 2005-06 से लेकर 2014-15 की अवधि में यह 1.61 फीसदी के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई जो कि 3.5 फीसदी के राष्ट्रीय औसत का करीब आधा है.”

हरित क्रांति के पहले दशक में उपयुक्त जलवायु और मिट्टी के कारण तकनीकी सपोर्ट का सबसे ज्यादा लाभ गेहूं को मिला. लेकिन दूसरे दशक तक सरकारी खरीद के आश्वासन के साथ धान भी एक लोकप्रिय फसल बन गई. भारत सरकार ने 1965 में कृषि मूल्य आयोग (Agricultural Prices Commission - APC) के जरिये से अनाज के मूल्य निर्धारण के लिए एक तंत्र की स्थापना की, जिसने गेहूं और चावल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) का आश्वासन दिया. पंजाब के आर्थिक सर्वेक्षण में ये स्वीकार किया गया कि "गेहूं और चावल की पैदावार से एक सुनिश्चित आय होने के कारण पिछले कुछ वर्षों में कुल फसली क्षेत्र में इनकी हिस्सेदारी बढ़ी है." 

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फसल की विविधता खत्म हुई

1960-61 में पंजाब में धान की खेती का क्षेत्र कुल खेती योग्य क्षेत्र का 4.8 फीसदी था और 2018-19 में यह बढ़कर 39.19 फीसदी हो गया. इसी तरह गेहूं के क्षेत्र में हिस्सेदारी 27 फीसदी से बढ़कर 45 फीसदी तक हो गई है. लेकिन गेहूं और धान के अलावा दूसरी फसलों की खेती कम होने लगी. 1960-61 में पंजाब में मुख्यत: कुल 21 फसलें उगाई जाती थीं लेकिन 1991 तक इनकी संख्या सिर्फ नौ रह गई. इसी दौरान राज्य का कृषि विकास भी घटने लगा.

हरित क्रांति ने पंजाब ने गेहूं और धान के एकाधिकार को बढ़ावा दिया और फसलों की विविधता को बदल दिया. कनाडा की यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्दर्न ब्रिटिश कोलंबिया के अमरजीत एस भुल्लर ने अपने एक नोट में कहा है, “मोनोकल्चर ने फसल के पैटर्न की विविधता को बदल दिया. चूंकि इन फसलों को बहुत ज्यादा पानी की जरूरत होती है और मिट्टी के पोषक तत्वों का क्षरण होता है, इसलिए पानी और मिट्टी के संसाधनों में कमी आई.” 

2018-19 में पंजाब की कुल खेती योग्य जमीन का करीब 93 फीसदी अनाजों की खेती के लिए इस्तेमाल हुआ. लेकिन सिंचाई से लेकर अच्छे बीज और उर्वरक में बंपर सब्सिडी ने किसानों को गेहूं और चावल की खेती की तरफ आकर्षि​त किया. गेहूं और धान की खेती के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर वृद्धि हुई. उदाहरण के लिए, 1960-61 में कुल खेती योग्य जमीन में धान की खेती का क्षेत्रफल सिर्फ 6.05 फीसदी था. 1990-91 में यह 47.77 फीसदी था. 2004–05 में बढ़कर 63.02 फीसदी हो गया.

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राज्य की अर्थव्यवस्था में खेती अब भी सबसे अहम

कृषि विकास में गिरावट के बावजूद राज्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य के कारण अब भी सबसे ज्यादा दो फसलें- गेहूं और धान उगाया जाता है. मौजूदा वक्त में करीब 90 फीसदी चावल की खरीद पंजाब से होती है. इस वजह से पंजाब में अब भी एक किसान परिवार की औतत मासिक आय किसी भी अन्य राज्य की तुलना में ज्यादा है.

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अपने हालिया आर्थिक सर्वे में पंजाब ने कहा कि राष्ट्रीय स्तर पर तीन क्षेत्रों- कृषि, विनिर्माण और सेवाओं में उत्पादन और रोज़गार में तालमेल की कमी है, लेकिन पंजाब ने कृषि विकास में गिरावट के बावजूद पूरी  अर्थव्यवस्था में संतुलन बनाए रखा है.

हरित क्रांति ने पंजाब में तेज विकास से लेकर ठहराव और अब एक संकट तक का चक्र पूरा कर लिया है.

राज्य अब उत्पादकता संकट का सामना कर रहा है, लागत बढ़ रही है, और मुनाफे में गिरावट आ रही है. भूजल की कमी और मिट्टी की उत्पादकता में गिरावट की चुनौतियों ने राज्य में पर्यावरण और सामाजिक संकट को जन्म दिया है.

हाल में हुए एक अध्ययन के मुताबिक, “राज्य में गेहूं के सीजन में 0.06°C और धान के सीजन में 0.92°C तापमान में बढ़ोतरी हुई है. कृषि जलवायु क्षेत्रों में बारिश में कमी आई है. पिछले 30 साल में खरीफ सीजन में 208 मिमी और रबी सीजन में 20 मिमी बारिश में कमी दर्ज हुई है.”

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हालांकि, पंजाब के आर्थिक सर्वे 2019-20 में दावा किया गया है कि कृषि विकास में मंदी के बावजूद यह सेक्टर राज्य की अर्थव्यवस्था में सबसे अहम बना हुआ है.


 

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