
पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का शनिवार शाम लखनऊ के एक अस्पताल में निधन हो गया. वह 89 वर्ष के थे. कल्याण सिंह बीजेपी के उन चुनिंदा नेताओं में से एक रहे, जिन्होंने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता की बुलंदी तक पहुंचाने में अहम भूमिका अदा की. अयोध्या आंदोलन ने बीजेपी के कई नेताओं को देश की राजनीति में एक पहचान दी, लेकिन राम मंदिर के लिए सबसे बड़ी कुर्बानी पार्टी नेता कल्याण सिंह ने ही दी. 6 दिसंबर 1992 में अयोध्या में बाबरी विध्वंस के बाद उन्होंने सीएम पद से त्यागपत्र दे दिया. कल्याण ने राम मंदिर के लिए सत्ता ही नहीं गंवाई, बल्कि इस मामले में सजा पाने वाले वे एकमात्र शख्स रहे.

राज्यपाल कलराज मिश्र उन्हें याद करते हुए कहते हैं, एक दौर था जब उत्तरप्रदेश में यह कहा जाने लगा कि कल्याण सिंह-कलराज मिश्र की जोड़ी जब तक रहेगी, तब तक भाजपा की स्थिति कभी खराब नहीं हो सकती. मुख्यमंत्री रहते वह सार्वजनिक सभाएं करते और प्रदेश अध्यक्ष के रूप में मंडल और ब्लॉक स्तर की सभाएं मैं करता. बीच के वर्षों में जब वह पार्टी से बाहर थे, तब भी उनसे पूर्वत संबंध बने रहे. एक समय था, कल्याण सिंह अक्सर लोगों से कहा करते थे कि कलराज रहेगा तभी तो कल्याण होगा. किसी से संबंध खराब हो भी जाए तो कटुता नहीं पालते थे.

देश में 90 के दशक की सियासत मंडल-कमंडल के इर्द-गिर्द घूम रही थी. इससे पहले जब बीजेपी का गठन हुआ तो कल्याण सिंह को प्रदेश संगठन में पदाधिकारी बनाया गया. कल्याण सिंह ने राम मंदिर आंदोलन में जान फूंकी और कार्यकर्ताओं में नया जोश भरा. कल्याण सिंह की सक्रियता से बीजेपी, यूपी में मजबूत पार्टी बनकर उभरी. राम मंदिर की लहर में बीजेपी ने साल 1991 के विधानसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन किया. बीजेपी ने यूपी में सरकार बनाई. यूपी में उस समय कल्याण सिंह की लोकप्रियता सिर चढ़कर बोल रही थी. यूपी में सरकार बनी तो बीजेपी ने कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया.

एक समय था जब कल्याण के सीएम रहते नकल अध्यादेश को सख्ती से लागू कराकर राजनाथ ने एक बड़ी लकीर खींच दी थी. लेकिन बाद में दोनों के रिश्ते में दूरी बन गई. कल्याण को लगता था कि राजनाथ उनके खिलाफ वाजपेयी के कान भर रहे हैं. माना जाता है कि राजनाथ जब उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष थे उस समय उन्होंने कल्याण सिंह के खिलाफ बगावत को हवा दी. उन्होंने ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी थी कि कल्याण सिंह सीधे अटल बिहारी वाजपेयी से टकराकर पार्टी से बाहर हो गए. 1997 में वह उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष बने. लोगों का मानना है कि तभी से उनके अंदर मुख्यमंत्री बनने की इच्छा जगी थी. इसलिए उन्होंने कल्याण सिंह के खिलाफ अभियान चलाया और अटल जी के कान भरे.

बीजेपी को मजबूत करने में जितनी भूमिका अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की थी, कल्याण सिंह की भी उससे कम नहीं थी. वाजपेयी बीजेपी का ब्राह्मण चेहरा हुआ करते थे तो कल्याण सिंह ओबीसी चेहरे के साथ-साथ हिंदू-हृदय सम्राट के तौर पर जाने जाते थे. कल्याण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी, दोनों ही नेताओं ने आरएसएस से निकलकर जनसंघ से होते हुए बीजेपी का गठन किया और पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने में भूमिका अदा की.

ये किस्सा 21 फरवरी 1998 का है. तब यूपी के राज्यपाल रोमेश भंडारी हुआ करते थे. उन्होंने उस समय सभी को हैरत में डाल दिया जब तब के सीएम कल्याण सिंह को पद से ही बर्खास्त कर दिया गया. उनकी जगह कांग्रेस नेता जगदंबिका पाल को सीएम पद की शपथ दिलवा दी गई. ऐसा कहा जाता है कि जगदंबिका पाल ने तमाम विपक्षी पार्टियों से मदद मांगी थी. कई दिग्गज नेताओं से बात की थी. उनकी पूरी कोशिश थी कि किसी तरह से कल्याण सिंह को सीएम पद से हटाया जा सके. अब कुछ समय के लिए ही सही लेकिन ऐसा हुआ भी क्योंकि राज्यपाल रोमेश भंडारी की तरफ से जगदंबिका पाल को फ्री हैंड दिया गया. उस मदद की वजह से ही 22 फरवरी को जगदंबिका पाल को सीएम की कुर्सी मिली.

बताया जाता है कि कल्याण सिंह के राजनीतिक ढलान की वजह उन्हीं की पार्टी की एक नेता कुसुम राय थीं जो समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय क्रांति पार्टी की मिलीजुली सरकार में कैबिनेट मंत्री थीं. दरअसल एनडीए के दम पर अटल बिहारी वाजपेयी 10 अक्टूबर 1999 को प्रधानमंत्री बनने में कामयाब रहे. इसी के बाद बीजेपी में कल्याण सिंह को हटाने के लिए मांग उठने लगी. यूपी में वाजपेयी के करीबी नेता खुलकर कल्याण सिंह के खिलाफ एकजुट हो गए. कल्याण सिंह और वाजपेयी के बीच कड़वाहट जगजाहिर हो गई थी. कल्याण सिंह को लग रहा था कि उन्हें पद से हटाने का मोर्चा जिन नेताओं ने खोल रखा है, उन्हें वाजपेयी शह दे रहे हैं.

वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्रा कहते हैं कि कल्याण सिंह का पहला कार्यकाल सिर्फ बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए ही नहीं, बल्कि एक सख्त ईमानदार और कुशल प्रशासक के तौर पर भी याद किया जाता है. करीब डेढ़ साल का उनका कार्यकाल एक सख्त प्रशासक की याद दिलाता है. नकल विरोधी कानून एक बड़ा फैसला था, जिसकी वजह से सरकार के प्रति लोगों की नाराज़गी भी बढ़ी, लेकिन पहली बार नकल विहीन परीक्षाएं हुईं. साथ ही सूबे में समूह 'ग' की भर्तियों में बेहद पारदर्शिता बरती गई. कल्याण सिंह का यह कार्यकाल उनकी ईमानदारी के लिए भी याद रखा जाता है.
