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तिरुपति, कोलकाता या दिल्ली, अध्यक्ष चुनने के लिए कौन सा मॉडल अपनाएगा गांधी परिवार?

कांग्रेस को यूं तो आलोचना के प्रति उदार होना चाहिए, पर इसके आलोचकों को भी इस बारे में कुछ बुनियादी समझ की आवश्यकता है कि ये पुरानी पार्टी कैसे काम करती है, इसके नियम क्या हैं, इसकी प्रक्रियाएं और राजनीतिक विरासत किस तरह काम करती है?

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कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी (फाइल फोटो)
कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी (फाइल फोटो)
स्टोरी हाइलाइट्स
  • सोनिया ने अगस्त-सितंबर 2022 में सांगठनिक चुनाव की घोषणा की
  • 2022 के 5 राज्यों के चुनाव नतीजों का होगा अहम रोल

कांग्रेस वर्किंग कमिटी (CWC) की बैठक में कांग्रेस संगठन के चुनाव यानी अध्यक्ष के चुनाव की तारीख पर मुहर लग गई है. तय कार्यक्रम के मुताबिक सितम्बर 2022 तक कांग्रेस को अगला अध्यक्ष मिल जाएगा. 

अगले साल अगस्त-सितंबर 2022 में कांग्रेस जब अपने सांगठनिक चुनाव करवाएगी तो पार्टी आखिर कौन सा मॉडल अपनाएगी. तिरुपति मॉडल, कलकत्ता मॉडल या फिर फिर दिल्ली मॉडल. इससे ही तय होगा कि कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के नतीजे किस तरह के होंगे?

अप्रैल 1992 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने स्वतंत्र रूप से पार्टी के चुनाव कराए थे. ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का ये सत्र तिरुपति में आयोजित किया गया था. हालांकि इस चुनाव में राव को तो कोई चुनौती नहीं मिली थी, लेकिन बाद के CWC के चुनावों में नरसिम्हा राव के प्रतिद्वंदी अर्जुन सिंह और शरद पवार ने प्रभावशाली जीत दर्ज की थी. राव शातिर राजनेता थे, उन्होंने तुरंत पैंतरा लिया और पश्चाताप की मुद्रा में कहा कि पार्टी की सर्वोच्च निर्णायक संस्था में महिला, दलित और आदिवासी नेता एक जनादेश का निर्माण करने में असफल रहे. उनके इस बयान के बाद चुने हुए नेताओं को इस्तीफा देना पड़ गया. इसके बाद राव ने इन नेताओं को CWC का नॉमिनेटेड सदस्य बना दिया. 

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सितंबर 1997 में, ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का सत्र कलकत्ता में आयोजित हुआ था. तब सीताराम केसरी पार्टी प्रमुख थे, जिन्हें शरद पवार और राजेश पायलट दोनों से नेतृत्व की चुनौती का सामना करना पड़ा. केसरी को 65 फीसदी से ज्यादा वोट मिले, लेकिन CWC के चुनाव में अर्जुन सिंह, अहमद पटेल, ए के एंटनी विशाल अंतर से जीत गए. 

अस्वस्थ सोनिया, अनिच्छुक राहुल और असंतुष्ट G-23! जानिए कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव की कशमकश 

दो साल बाद सोनिया गांधी का मुकाबला जितेंद्र प्रसाद से हुआ. यहां सोनिया बंपर मतों से जीतीं और 99 फीसदी वोट हासिल कीं. सोनिया ने CWC से एक प्रस्ताव पास कराया और अपनी पकड़ और भी मजबूत कर ली, इस प्रस्ताव से उन्हें CWC में किसी को भी रखने की संपूर्ण शक्ति मिल गई. बाद में जब भी सोनिया सर्वसम्मति से पुनर्निवार्चित हुईं, हर बार CWC ने निष्ठा के साथ उन्हें और भी सशक्त बनाया. 2017 में जब राहुल गांधी AICC के 87वें अध्यक्ष के रूप में सहमति से चुने गए, तो बेटे ने अपनी मां के ही मॉडल का अनुसरण किया. 

शनिवार को कांग्रेस द्वारा संगठनात्मक चुनावों की घोषणा, सोनिया गांधी द्वारा यह स्थापित करना कि वह ही पार्टी प्रमुख हैं और राहुल गांधी द्वारा व्यक्त की गई ये इच्छा कि वे 'टॉप जॉब' को स्वीकार करने पर विचार कर सकते हैं, अब आलोचना के दायरे में आ गई है. इससे देश की ग्रैंड ओल्ड पार्टी की खिल्ली सी ही उड़ी है. 

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आलोचना के प्रति उदार बने कांग्रेस

कांग्रेस को यूं तो आलोचना के प्रति उदार होना चाहिए, पर इसके आलोचकों को भी इस बारे में कुछ बुनियादी समझ की आवश्यकता है कि पुरानी पार्टी कैसे काम करती है, इसके नियम क्या हैं, इसकी प्रक्रियाएं और राजनीतिक विरासत किस तरह काम करती है?

जैसा कि पहले कहा गया है कि पार्टी के आखिरी संगठनात्मक चुनाव 2017 में पांच साल की अवधि के लिए हुए थे जब राहुल को कांग्रेस का प्रमुख बनाया गया था. जब उन्होंने मई 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद इस्तीफा दे दिया, तो पार्टी का संविधान कहता था कि शेष अवधि के लिए यानी अगस्त 2022 तक के लिए कांग्रेस के डिलिगेट्स द्वारा एक अंतरिम अध्यक्ष या पूर्ण रुप से नए अध्यक्ष का चुनाव किया जाए. सोनिया गांधी ने एकदम यही किया. इसलिए प्रक्रिया के तौर पर और तकनीकी रूप से, उनका यह कहना सही है कि अभी पार्टी का एक अध्यक्ष है. 

राहुल-सोनिया का राजनीतिक पत्राचार सार्वजनिक नहीं हुआ

कांग्रेस में निर्णय लेने वाले सिस्टम के बारे में बहुत कुछ कहा गया है. यह एक खुला रहस्य है कि पार्टी के कई महत्वपूर्ण फैसले राहुल गांधी द्वारा लिए जाते हैं जो तकनीकी रूप से पार्टी के पूर्व अध्यक्ष, CWC के सदस्य और वायनाड से लोकसभा के सदस्य हैं. सीडब्ल्यूसी में राहुल का स्थान उन्हें सोनिया द्वारा निर्देशित किसी भी मुद्दे से निपटने के लिए शक्तियां (कांग्रेस अध्यक्ष की मंजूरी के बाद) देता है. यहां ये बताना जरूरी है कि मां- बेटे के बीच राजनीतिक पत्राचार को सार्वजनिक नहीं किया गया है और न ही जी-23 ने इसके बारे में जानकारी मांगी है. एक बार फिर, विशुद्ध रूप से प्रक्रिया के संदर्भ में देखें तो, सभी नियुक्तियां या तो सोनिया या संगठन के प्रभारी एआईसीसी महासचिव के सी वेणुगोपाल द्वारा की जाती हैं.  के सी वेणुगोपाल को राहुल गांधी का विश्वासपात्र माना जाता है.

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2019 के बाद राजनीतिक रूप से कुछ नहीं बदला

मीडिया द्वारा राहुल के कार्यकारी या अंतरिम अध्यक्ष के रूप में लौटने की अनिच्छा जायज है, लेकिन यहां एक बुनियादी समझ की कमी है. राहुल गांधी ने मई 2019 में आम चुनाव में करारी हार की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दिया था. तब से, राजनीतिक रूप से कुछ भी नहीं बदला है जो राहुल को भव्य वापसी का मार्ग प्रशस्त करता हो.  

अगर कांग्रेस केरल या असम में जीती होती, तो 'विजेता' राहुल औपचारिक रूप से इस पद पर लौट आते. यहां ये याद रखा जाना चाहिए कि राहुल गांधी गैर परंपरागत राजनेता हैं, जो ईमानदारी, जवाबदेही और शुचिता की अपनी ही दुनिया में जी रहे हैं. सियासत को लेकर उनका नजरिया हमारे से काफी अलग हो सकता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन्हें मीडिया या अपने राजनीतिक विरोधियों की सनक और कल्पना के अनुसार बदलने की जरूरत है. 

2022 में 0-5 का जनादेश राहुल के लिए मुश्किलें खड़ा करेगा 

इस लिहाज से अब पंजाब और उत्तराखंड विधानसभा चुनाव के नतीजों का कांग्रेस की आंतरिक राजनीति पर व्यापक असर पड़ने वाला है. उत्तर प्रदेश, गोवा, मणिपुर, पंजाब और उत्तराखंड में 0-5 का जनादेश 2022 में कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी की वापसी की राह को और भी अधिक कठिन बना देगी, किंतु अगर नतीजे 2-3 के अनुपात में रहे तो वह मार्च 2022 में कांग्रेस कार्यकारी अध्यक्ष के रोल में लौट सकते हैं. 

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G-23 के समक्ष राहुल के बरक्श नेता खोजने की चुनौती

16 अक्टूबर को CWC मीटिंग में अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगाने की सोनिया की मुद्रा का उद्देश्य G-23 के असंतुष्टों को घेरना है. अब G-23 के सामने चुनौती ये है कि वे एक ऐसा नेता खोजें जो राहुल गांधी के बरक्श चुनौती में खड़ा हो सके. जहां तक CWC चुनावों का संबंध है (जहां की असंतु्ष्टों की खास दिलचस्पी है), उम्मीद की जा रही है कि राहुल गांधी तिरुपति या कलकत्ता मॉडल की तुलना में दिल्ली मॉडल का अनुसरण कर सकते हैं. 

...तो राहुल-राहुल कहना होगा

लेकिन असंतुष्टों के लिए आगे की राह धूमिल होती दिखाई दे रही है. कांग्रेस के एक अंदरूनी सूत्र ने कहा, "कांग्रेस में रहना होगा, राहुल-राहुल कहना होगा."

 

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