सुप्रीम कोर्ट ने सीतामढ़ी जिले में 5 अगस्त 1967 से दायर टाइटल सूट पर अपना फैसला सुना दिया. सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने ट्रायल कोर्ट का फैसला मानते हुए अपीलीय कोर्ट के फैसले को निरस्त करते हुए ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम पाते है कि मुकदमे को खारिज करने का ट्रायल कोर्ट का फैसला सही है.
अब 54 साल की इस मुकदमे की धीमी लेकिन लगातार जारी यात्रा पर निगाह डालें तो दूर एक छोर पर सीतामढ़ी के अधीनस्थ न्यायाधीश की अदालत में पांच अगस्त 1967 को परिहार गांव में छह कट्ठा जमीन के मालिकाना हक का विवाद दर्ज हुआ था. बनारस साह ने डॉ कृष्णकांत प्रसाद के खिलाफ ये मुकदमा दर्ज कराया था. इन 54 साल में मुद्दई और मुदालह दोनों पक्षकार ने फैसले का इंतजार नहीं किया और दुनिया छोड़ गए, लेकिन मुकदमा अपनी रफ्तार से चलता रहा. अब जाकर फैसला आया जिसे दोनों पक्षकारों के बेटों पोतों ने सुना.
इसमें पहली अदालत ने 1986 में फैसला सुनाते हुए मुकदमा खारिज कर दिया. फिर निचली अपीलीय अदालत ने 7 दिसंबर 1988 को इस अपील पर वादी बनारस साह के पक्ष में दिया. प्रतिवादी डॉक्टर कृष्णकांत प्रसाद के वारिस पटना हाई कोर्ट चले गए. पटना हाई कोर्ट में एकल न्यायाधीश ने 25 मई 1989 को फैसला सुनाते हुए अपील खारिज कर दी.
उन्होंने एक संक्षिप्त आदेश में यह दर्ज किया था कि प्रथम अपीलीय अदालत द्वारा देखे गए तथ्यों के निष्कर्ष अंतिम थे और कानून का कोई बड़ा सवाल नहीं खड़ा हो गया. ममाले में आगे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया गया, जिसमें पाया गया कि उच्च न्यायालय ने अपील को खारिज करने में सही नहीं था क्योंकि भूमि के टाइटिल से संबंधित एक गंभीर विवाद था. 23 फरवरी, 2000 के आदेश के तहत, मामले को उच्च न्यायालय ने नए सिरे से विचार के लिए रिमांड पर लिया गया था.
20 मार्च, 2009 को उच्च न्यायालय ने मामले पर नए सिरे से विचार करने के बाद दूसरी अपील खारिज कर दिया. अपील में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने विचार किया कि क्या वादी ने मुकदमे की भूमि पर अपना अधिकार स्थापित किया था, इसलिए मृतक प्रतिवादी के कानूनी उत्तराधिकारियों के खिलाफ कब्जे की डिक्री के हकदार थे. उच्च न्यायालय ने कहा था कि वादी का विवादित भूमि पर अधिकार है.
रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों को ध्यान में रखते हुए अदालत ने पाया कि वादी उस संपत्ति के मालिक नहीं थे, जिस दिन उन्होंने 5 अगस्त, 1967 को मालिकाना हक और कब्जे के लिए वर्तमान मुकदमा दायर किया था. इसलिए, इसने प्रथम अपीलीय अदालत के फैसलों को रद्द कर दिया और उच्च न्यायालय और ट्रायल कोर्ट द्वारा मुकदमे को खारिज करने को बरकरार रखा.