प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को कहा कि जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की बात नहीं मानी. पटेल चाहते थे कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) पर पूरी तरह से कब्जा होने तक सेना की कार्रवाई जारी रहे. पीएम मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि अगर यह फैसला लिया गया होता तो शायद आज आतंक का दर्द नहीं झेलना पड़ता. कश्मीर पर पटेल का रुख असल में क्या था और यह प्रधानमंत्री नेहरू के रुख से किस तरह अलग था?
सबसे पहले जानते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने मंगलवार को गुजरात के कार्यक्रम में क्या कहा...
'सरदार पटेल की इच्छा थी कि जब तक पीओके वापस नहीं ले लिया जाता, सेना को रुकना नहीं चाहिए. लेकिन सरदार साहब की बात नहीं मानी गई. तब अगर सरदार पटेल की बात मान ली होती तो आज POK हमारा होता. पहलगाम में जो हुआ, वह उसी का विकृत रूप था. भारतीय सेना ने हर बार पाकिस्तान को हराया है. पाकिस्तान समझ गया है कि वह भारत से नहीं जीत सकता. हमने तय कर लिया है, हम आतंकवाद के कांटे को निकालकर रहेंगे.'
प्रधानमंत्री का यह बयान 22 अप्रैल को पहलगाम में हुए हमले के बाद आया है. जम्मू कश्मीर के पहलगाम में पाकिस्तानी और पाकिस्तान द्वारा प्रशिक्षित आतंकवादियों ने 26 पर्यटकों की हत्या कर दी थी. भारत ने ऑपरेशन सिंदूर शुरू किया और 7 मई को पाकिस्तान और पीओके में घुसकर आतंकी कैंपों पर हमला किया. इसके बाद भारत और पाकिस्तान के बीच एक छोटा युद्ध हुआ.
प्रधानमंत्री मोदी मंगलवार को ऑपरेशन सिंदूर और कश्मीर मुद्दे पर बोल रहे थे. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यदि पटेल की बात मानी होती तो कश्मीर की स्थिति अलग होती.
जम्मू और कश्मीर के राजा हरि सिंह को सैन्य सहायता देने से लेकर पाकिस्तान द्वारा कब्जाए गए कश्मीर को वापस लेने तक, सैन्य अभियान जारी रखने और इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में ले जाने तक... पटेल के विचार नेहरू से काफी अलग थे.
दिलचस्प बात यह है कि कश्मीर को लेकर खुद पटेल के विचारों में बड़ा बदलाव आया.
कश्मीर और PoK पर पटेल के विचार समय के साथ बदलते रहे
'पटेल: ए लाइफ' के लेखक और इतिहासकार राजमोहन गांधी के अनुसार, 13 सितंबर 1947 तक पटेल की कश्मीर को लेकर रुचि बहुत कम थी. समय के साथ उनके विचारों में काफी बदलाव आया और वास्तव में 13 सितंबर 1947 के बाद उनके विचार पूरी तरह से बदल गए.
राजमोहन गांधी ने अपनी पुस्तक में लिखते हैं, 'वल्लभभाई की कश्मीर को लेकर 13 सितंबर 1947 तक रुचि बहुत कम रही. उस सुबह उन्होंने बलदेव सिंह को एक पत्र में संकेत दिया कि 'अगर (कश्मीर) दूसरे डोमिनियन (पाकिस्तान) में जाना चाहता है तो वे उसे स्वीकार कर लेंगे.' लेकिन उसी दिन बाद में जब उन्हें यह जानकारी मिली कि पाकिस्तान ने जूनागढ़ के विलय को स्वीकार कर लिया है तो उनका नजरिया बदल गया.
अपनी तार्किकता के लिए विख्यात सरदार पटेल के रुख में बदलाव के पीछे स्पष्ट और व्यावहारिक तर्क था.
राजमोहन गांधी ने लिखा, 'अगर जिन्ना एक हिंदू-बहुल राज्य (जिसका शासक मुस्लिम था) पर दावा कर सकते हैं तो सरदार एक मुस्लिम-बहुल राज्य (जिसका शासक हिंदू था) में रुचि क्यों नहीं रख सकते? उसी दिन से जूनागढ़ और कश्मीर- मोहरा और रानी- दोनों उनके लिए समान रूप से महत्वपूर्ण हो गए.'
राजमोहन गांधी आगे लिखते हैं, 'वह (पटेल) एक को वापस ले लेते और दूसरे की रक्षा करते. हैदराबाद की भी रक्षा करते, जो उनके लिए शतरंज की बाजी में 'राजा' था. अगर जिन्ना 'राजा' और 'प्यादा' को भारत जाने देते तो पटेल (जैसा कि हमने देखा) 'रानी' (कश्मीर) को पाकिस्तान जाने देते, लेकिन जिन्ना ने यह सौदा ठुकरा दिया.
पटेल ने नेहरू से असहमति जताई, लेकिन कश्मीर मुद्दा कैसे आगे बढ़ा, आइए जानते हैं...
सितंबर 1947 में नेहरू ने पटेल को सूचित किया कि 'पाकिस्तानी सेनाएं कश्मीर में बड़े पैमाने पर घुसने की तैयारी कर रही हैं.'
26 अक्टूबर को नेहरू के निवास पर एक अहम बैठक हुई. जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के प्रधानमंत्री मेहर चंद महाजन ने श्रीनगर में तुरंत भारतीय सेना की तैनाती की मांग की.
महाजन ने चेतावनी दी कि अगर भारत ने तेजी से कार्रवाई नहीं की तो कश्मीर जिन्ना की शर्तों पर विचार कर सकता है.
इस पर नेहरू गुस्से में आ गए और महाजन से कहा, 'यहां से चले जाइए.' लेकिन पटेल ने तुरंत हस्तक्षेप किया और कहा, 'महाजन, आप पाकिस्तान नहीं जा रहे हैं.'
कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र (UN) में ले जाने का विचार लॉर्ड माउंटबेटन ने दिया था और उन्होंने ही इसके लिए नेहरू को प्रोत्साहित किया.
राजमोहन गांधी के अनुसार, पटेल कई निर्णयों से असंतुष्ट थे, लेकिन उन्होंने हस्तक्षेप नहीं किया क्योंकि कश्मीर अब 'नेहरू का विषय' बन चुका था.
कश्मीर का भारत में विलय 26 अक्टूबर को हुआ.
'प्रधानमंत्री का जिन्ना के सामने जाना ठीक नहीं'
26 अक्टूबर 1947 को कश्मीर के भारत में विलय के बाद भी पाकिस्तानी सेना ने क्षेत्र में आगे बढ़ना जारी रखा, जिससे भारत को हमलावरों को पीछे धकेलने के लिए अपनी सेना भेजनी पड़ी.
जैसे-जैसे संघर्ष बढ़ता गया, नेहरू ने इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंच पर ले जाकर शांतिपूर्ण समाधान की उम्मीद में 1 जनवरी 1948 को इसे संयुक्त राष्ट्र (UN) में ले जाने का फैसला किया.
भारत ने संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत शिकायत दर्ज कराई, जिसमें पाकिस्तान पर आक्रमण में मदद करने का आरोप लगाया.
लॉर्ड माउंटबेटन की यहां भूमिका महत्वपूर्ण थी.
राजमोहन गांधी ने अपनी पुस्तक में लिखा है, जहां तक कश्मीर का सवाल है, जवाहरलाल ने माउंटबेटन के कहने पर इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने पर सहमति जताई.
कश्मीर पर पाकिस्तानी हमले के तुरंत बाद माउंटबेटन ने नेहरू के साथ लाहौर जाकर जिन्ना से बात करने का प्रस्ताव भी रखा. लेकिन पटेल ने इसका कड़ा विरोध किया और कहा, जब हम सही हैं और मजबूत स्थिति में हैं, तब प्रधानमंत्री का जिन्ना के आगे झुकना... भारत की जनता कभी माफ नहीं करेगी. नेहरू ने स्वास्थ्य कारणों से यह दौरा नहीं किया.
पटेल ने कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र (UN) में ले जाने का भी विरोध किया था. उनका मानना था कि जमीन पर समय रहते कार्रवाई की जानी चाहिए. लेकिन जैसा कि राजमोहन गांधी लिखते हैं, 'कश्मीर अब तक जवाहरलाल का फेवरिट सब्जेक्ट बन चुका था और वल्लभभाई ने ज्यादा जोर नहीं दिया.'
सरदार पटेल की आशंकाएं जल्द ही सच साबित हुईं
राजमोहन गांधी आगे लिखते हैं, 'जब भारत ने संयुक्त राष्ट्र से मदद मांगी तो पटेल की आशंकाएं पूरी तरह सही साबित हुईं. पाकिस्तान ने भारत की शिकायत के जवाब में आरोपों की एक पूरी सीरीज लगा दी.'
वैश्विक बहस की दिशा बदल गई. कश्मीर में हमले को रोकने का सवाल 'भारत-पाकिस्तान विवाद' में बदल गया.
संयुक्त राष्ट्र की बहसों में 'गोपालस्वामी और अब्दुल्ला, पाकिस्तान के जफरुल्ला खान से पीछे रह गए.'
हालांकि भारतीय नेतृत्व में इस मुद्दे को लेकर बहुत ज्यादा शंकाएं थीं. लेकिन नेहरू की अनुपस्थिति में कार्यवाहक प्रधानमंत्री की भूमिका निभा रहे पटेल ने अंततः कश्मीर को विशेष दर्जा देने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया.
किताब में आगे लिखा है, इस विशेष दर्जे में वे रियायतें भी शामिल थीं जो नेहरू ने पहले नहीं मानी थीं. अब्दुल्ला ने इन रियायतों के लिए दबाव डाला, गोपालस्वामी और आजाद ने उनका समर्थन किया और सरदार ने इसका विरोध नहीं किया.
अंततः यह स्पष्ट था कि पटेल कश्मीर को लेकर लिए गए कई फैसलों से असहज थे.
पटेल कश्मीर पर भारत सरकार के कई कदमों से असंतुष्ट थे, जिनमें जनमत संग्रह की पेशकश, मामला संयुक्त राष्ट्र (UN) में ले जाना, युद्धविराम (जिसके चलते कश्मीर का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में चला गया) और महाराजा को हटाया जाना शामिल था. लेकिन उन्होंने कभी स्पष्ट रूप से अपना समाधान नहीं बताया. यहां तक कि अगस्त 1950 में उन्होंने जयप्रकाश नारायण से कहा, 'कश्मीर एक असुलझी समस्या है.'
जयप्रकाश नारायण ने पटेल के निधन के बाद उनकी स्थिति पर विचार करते हुए कहा कि पटेल के करीबी लोग भी यह नहीं कह सकते कि वे कश्मीर मुद्दे को कैसे संभालते.
जैसा कि जेपी ने कहा, सरदार शायद अपनी सोच जाहिर नहीं करना चाहते थे या फिर उनकी व्यावहारिक सोच यह कहती थी कि जब तक उन्हें समस्या सुलझाने की जिम्मेदारी ना दी जाए, तब तक उस पर ध्यान देना निरर्थक होगा. आखिरकार कश्मीर नेहरू का विषय था, और वल्लभभाई ने इसे हाथ में लेने की कोई कोशिश नहीं की.
हालांकि, यह बात सामने आई है कि सरदार वल्लभभाई पटेल कई मामलों में जवाहरलाल नेहरू से असहमत थे. सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि पटेल चाहते थे कि भारतीय सेना की कार्रवाई तब तक जारी रहे, जब तक पाकिस्तान द्वारा अवैध रूप से कब्जा किए गए कश्मीर के हिस्सों को पूरी तरह वापस न ले लिया जाए. साथ ही उन्होंने कश्मीर मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंच (संयुक्त राष्ट्र) पर ले जाने का भी विरोध किया.