scorecardresearch
 

संघ के 100 साल: शिप पर खेलते-खेलते लगी शाखा और अफ्रीका में खुला RSS का रास्ता

नेपाल जिसे हिंदू देश माना जाता है वहां हिन्दू स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1992 में हुई. लेकिन भारत से सैकड़ों किलोमीटर दूर केन्या, बर्मा और मॉरीशस में संघ काफी पहले पहुंच चुका था. इन देशों में संघ के समर्पित स्वयंसेवकों ने अपने लगन से संघ की शाखाओं का विस्तार किया. अफ्रीका के लिए तो निकले एक जहाज पर उत्साही स्वयंसेवक चलती शिप पर शाखा लगाते थे. RSS के 100 सालों के सफर की 100 कहानियों की कड़ी में आज पेश है इसी से जुडी कहानियां.

Advertisement
X
1946 में केन्या जा रही शिप पर लगी थी शाखा. (Photo: AI generated)
1946 में केन्या जा रही शिप पर लगी थी शाखा. (Photo: AI generated)

जब भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों को देश से बाहर ले जाने वाले संगठनों के इतिहास की चर्चा होती है, तो शुरुआत में तीन देशों का नाम आता है, केन्या, बर्मा और मॉरीशस. तीनों ही देशों में हिंदू स्वयंसेवक संघ के पहुंचने की कहानी बेहद दिलचस्प है. तीनों का ही शुरुआती विस्तार में जिक्र होता है, जबकि नेपाल जिसे हिंदू देश माना जाता है वहीं हिंदू स्वयंसेवक संघ (HSS) की स्थापना 1992 में जाकर हुई. उससे भी दिलचस्प बात ये है कि ये सब संयोग से होता चला गया, संघ की योजना तो पहले देश के हर जिले, कस्बे, गांव में मजबूत होने की थी. लेकिन जब भारतीयों ने विदश पहुंचकर खुद ही बीड़ा उठा लिया, तो संघ अभिभावक की भूमिका में आ गया.
 
पंजाबी-गुजराती ने शिप पर ही शाखा लगाकर रख दी नींव

जगदीश चंद्र शारदा अमृतसर के रहने वाले थे, संस्कृत में उन्हें ‘शास्त्री’ की उपाधि मिली थी. किशोरावस्था में ही संघ से जुड़ गए थे. पिता की जल्द मृत्यु ने उनको जिम्मेदार बना दिया. परिवार चलाने के लिए केन्या भी जाने के तैयार हो गए. आर्यसमाज नैरोबी के अपने गर्ल्स स्कूल में संस्कृत का एक शिक्षक रखना चाहता था. केन्या में दूसरे विश्व युद्ध के बाद भारतीयों की संख्या और भी बढ़ गई थी. जगदीश ने आर्यसमाज की इस नौकरी के लिए हां कर दी और निकल पड़े सितंबर 1946 में मुंबई से मुम्बासा की शिप यात्रा पर. शिप में उन्हें एक व्यक्ति RSS का खाकी नेकर पहने दिखा तो उसका परिचय पूछा. उनका नाम था मानेकलाल रुघानी. वे गुजरात से थे. व्यापारी थे और संघ से इतना प्रभावित थे कि शिप पर भी खाकी नेकर पहने हुए थे.

Advertisement

मानेकलाल के पिता रतनजी रुघानी 1914 में ही गुजरात से एक मजदूर की तरह केन्या काम करने चले गए थे, लेकिन उन्होंने बाद में पैसा बनाया और रुघानी परिवार एक बिजनेस परिवार बन गया. वो अपने व्यापार के सिलसिले में ही केन्या जा रहे थे. दोनों ने मिलकर शिप पर समय गुजारने के लिए सुबह-शाम संघ की शाखाओं पर लगने वाले कुछ खेल खेलने शुरू कर दिए, धीरे-धीरे 17 भारतीय उनके साथ जुड़ गए तो बाकायदा शिप पर शाखा ही लगाने लगे. इन लोगों में से भी कुछ लोग संघ से पहले जुड़े हुए थे.
 
मकर संक्रांति के दिन केन्या में भारतीय स्वयंसेवक संघ की शुरुआत

जगदीश शारदा और मानेकलाल में अच्छे रिश्ते बन गए थे. दोनों ने तय किया कि क्यों ना केन्या में भी संघ जैसा कोई संगठन भारतीयों के लिए खड़ा किया जाए, जिसके बैनर तले भारतीय एकजुट रह सकें. लेकिन उसकी आत्मा आरएसएस की ही हो. इस तरह मकर संक्रांति के दिन 14 जनवरी 1947 को नैरोबी में ‘भारतीय स्वयंसेवक संघ’ की स्थापना की गई. बाद में इसी का नाम बदलकर ‘हिंदू स्वयंसेवक संघ’  कर दिया गया. हालांकि मानेकलाल अपने व्यापार विस्तार में भी व्यस्त थे, लेकिन वे लगातार ना केवल नैरोबी बल्कि केन्या के बाकी शहरों में भी संघ विस्तार में सहायता करते रहे. जगदीश शारदा के प्रयासों से धीरे धीरे तंजानिया, यूगांडा, जाम्बिया आदि में भी संगठन विस्तार होता रहा. बाद में जगदीश शारदा कनाडा में जाकर रहने लगे और वहां भी संघ के विस्तार में लगे रहे. कनाडा में ही उन्होंने आखिरी सांस ली. कई लोग उन्हें हिंदू स्वयंसेवक संघ का पितामह तक कहते हैं.
 
विष्णु दयाल ने मॉरीशस के फ्रीडम फाइटर्स को बना दिया स्वयंसेवक

Advertisement

यूं तो आधिकारिक रूप से मॉरीशस में हिंदू स्वयंसेवक संघ की शुरुआत 1977 में हुई थी. लेकिन तथ्य ये भी है कि विदेशों में सबसे पहले कहीं संघ की कार्यपद्धति या स्वयंसेवक की शुरुआत हुई थी तो वो देश था मॉरीशस. दरअसल मॉरीशस के रहने वाले विष्णु दयाल 1936 में भारत के लाहौर में पढ़ने आए थे. उन दिनों लाहौर में संघ का काम मजबूत था. स्वयंसेवकों के सम्पर्क में आकर विष्णु भी संघ के स्वयंसेवक बन गए और लगातार शाखाओं में जाने लगे. उनको संघ संस्थापक डॉ हेडगेवार से भी मिलने का मौका मिला. जब तीन-चार साल बाद पढ़ाई करके विष्णु दयाल मॉरीशस लौटे तो वहां स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था, वो भी उसमें शामिल हो गए और जो शाखाओं में सीखा था, उसे युवा क्रांतिकारियों को सिखाने लगे.

RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी 

उन्होंने वहां के स्वतंत्रता सेनानियों को नाम दिया ‘स्वयंसेवक’,  जो बाद में वहां काफी प्रसिद्ध हो गया था. उनके समूहों में वो सब कुछ संघ शाखाओं की तरह के ही कार्यक्रम या गतिविधि करते थे, लेकिन कभी भी औपचारिक तौर पर किसी संगठन का नाम इसे नहीं दिया गया. 1968 में जाकर मॉरीशस को ब्रिटेन से आजादी मिली. उसके बाद संघ के प्रचारकों के भी दौरे विदेशों में होने लगे थे. ये तब ज्यादा बढ़ा, जब भारत में इमरजेंसी लगी थी. 1977 में एचएसएस का काम मॉरीशस के कुछ शहरो में शुरू किया गया. मॉरीशस के पहले प्रधानमंत्री सीबूसागर रामगूलाम भी एचएसएस के कार्यक्रम में उन दिनों एक बार आए थे. इस तरह मॉरीशस के लोगों ने भी इस संगठन को अपना समर्थन शुरू कर दिया और आज लगभग हर बड़े शहर में इसकी इकाइयां हैं.
 
बर्मा (म्यांमार) के प्रचारक ने ही रखी वहां नींव

Advertisement

1956 में जब संघ ने गुरु गोलवलकर का 51वां जन्मदिन एक कार्यक्रम के तौर पर मनाने का निर्णय लिया तो उनकी एक छोटी सी आत्मकथा ‘व्यक्ति दर्शन’  के नाम से बुकलेट के तौर पर छापी गई थी. उस बुकलेट का जब वर्मी भाषा में भी अनुवाद संघ ने करवाया तो बहुत लोग उस वक्त चौंके थे क्योंकि उन दिनों मीडिया के कम माध्यम होने और संघ के मीडिया से दूरी बनाए रखने के चलते खबरें पता ही नहीं चलती थीं. लोगों को नहीं पता था कि संघ से प्रेरित एक संगठन म्यामांर की जनता के बीच अपनी जड़ें मजबूत कर चुका है.

कल के ब्रह्मदेश और बर्मा को आज म्यांमार के तौर पर जाना जाता है. 1935 से पहले ये ग्रेटर भारत का हिस्सा था. भारत का एक धीर परिवार वहां जाकर रहने लगा था.  1927 में जन्मा उस परिवार का एक बेटा रामप्रकाश 1942 में भारत में पढ़ने आया, पंजाब के शहर जालंधर में. यहां वह संघ के सम्पर्क में आकर इतना प्रभावित हुआ कि संघ में प्रचारक ही बन गया. उसको पंजाब में ही संघ विस्तार का काम सौंप दिया गया.

1950 में बर्मा (म्यांमार) में संघ काम करने लगा था. (Photo: AI generated)

इधर 1950 में बर्मा में पंजाब के ही डॉ मंगल सेन ने भारतीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी और ये वहां के भारतीयों की आवाज बन गया था. अचानक ही बर्मा में राजनैतिक उथल-पुथल शुरू हो गई थी, जिसके चलते तमाम भारतीयों ने देश छोड़ दिया. ऐसे में भारतीय स्वयंसेवक संघ का काम भी ठप पड़ गया. इस तरह 5 साल से वहां कोई काम आगे नहीं बढ़ रहा था, लेकिन जब 1955 में गुरु गोलवलकर के जन्मदिन की चर्चाएं शुरू हुईं तो संघ अधिकारियों के ध्यान में बर्मा के ही स्वयंसेवक राम प्रकाश धीर का ख्याल आया और तय किया गया कि राम प्रकाश धीर वापस बर्मा लौटकर संघ का काम वहां फिर से खड़ा करेंगे.

Advertisement

अब तक राम प्रकाश धीर संघ की कार्यपद्धति को अच्छे से समझ ही चुके थे. सो उन्हें कोई बड़ी कठिनाई नहीं आई. राम प्रकाश ने बर्मा के सभी बड़े नामचीन लोगों से संघ का साहित्य लेकर सम्पर्क बढ़ाना शुरू कर दिया. इनमें से एक बर्मा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश यू छान थुन भी थे. राम प्रकाश ने उन्हें गुरुजी की आत्मकथा के साथ एक और किताब भेंट की. 1957 में भारतीय स्वयंसेवक संघ ने अपने मकर संक्रांति उत्सव में यू छान थुन को मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया. 2 साल बाद वो अपनी पत्नी के साथ वर्ल्ड ज्यूरिस्ट कॉन्फ्रेंस में भारत भी आए. मुंबई में वह संघ के मकर संक्रांति उत्सव में मुख्य अतिथि बनाए गए. गुरु गोलवलकर के साथ मंच भी साझा करने को मिला. उन्होंने संघ को बुद्ध के कामों से भी जोड़ने की सलाह दी और भारतीय स्वयंसेवक संघ का नाम बदलने की भी सलाह दी.

मार्च 1960 में गुरु गोलवलकर ने एक बैठक बुलाई जिसमें राम प्रकाश धीर औऱ दीनदयाल उपाध्याय भी थे. बैठक में बर्मा के मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर भारतीय स्वयंसेवक संघ का नाम बदलकर सनातन धर्म स्वयंसेवक संघ कर दिया गया. दीनदयाल उपाध्याय को  संस्कृत में बर्मा के लिए नई प्रार्थना लिखने के लिए कहा गया. धीरे-धीरे मॉरीशस में संघ का काम बढ़ने लगा,, तब से अब तक भगवान बुद्ध के प्रचार के लिए उनके विद्वान भी यहां आते रहे हैं.

Advertisement

पिछली कहानी: भाऊराव देवरस, जिनके पास इंदिरा ने राजीव गांधी को गुरुदक्षिणा सहित भेजा 

---- समाप्त ----
Live TV

  • क्या आपको लगता है कि आरएसएस का काम सिर्फ हिंदू समाज तक सीमित है?

Advertisement
Advertisement