देश के नामी पत्रकारिता संस्थान इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन (IIMC) के एलुमनाई एसोसिएशन ने पिछले दिनों 'न्यू मीडिया की संभावनाओं' पर एक पेपर रीडिंग कंपटीशन करवाया था. आज तक की वेबसाइट इस प्रतियोगिता की डिजिटल साझेदार थी. हिंदी कैटेगरी में पहला स्थान पाने वाली मनीषा (2013-2014 बैच) का लेख हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं.
भारत में चुनावी माहौल गरमाते ही विभिन्न राजनीतिक दल जनता को लुभाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं. ढोल-नगाड़ों के साथ हवा में हाथ लहराते हुए हजारों लुभावने वादों के साथ नेता, उनके कार्यकर्ता विकास कार्यों के दावों से पटे पर्चें बांटते हुए चलते हैं. बाद में इन्हीं पर्चों का जहाज बना बच्चे आसमान में उड़ा देते हैं. फिज़ूलखर्ची पर टिकी इस पारंपरिक चुनावी प्रणाली को आज न्यू मीडिया कड़ी टक्कर दे रहा है. न्यू मीडिया (फेसबुक, गूगल+, ब्लॉक, टिवटर, यू-ट्यूब, वॉट्सएप) के द्वारा आज बड़े-बड़े नेता अपना और अपनी पार्टी का जमकर प्रचार कर रहे हैं. बाजार में सस्ते स्मार्टफोन के कारण मोबाइल पर भी न्यू मीडिया का विस्फोटक पदार्पण हो चुका है. हालात ये हैं कि न्यू मीडिया के सहारे वोट बैंक की राजनीति की जा रही है.
2014 में लोकसभा चुनावों के मद्देनजर कोई भी प्रतिभागी न्यू मीडिया की ताकत को नज़रअंदाज करने का जोख़िम नहीं उठा सकता. न्यू मीडिया का उपभोग करने वालों में सबसे बड़ी जमात युवाओं की है. जो इन युवाओं को लुभाने में कामयाब हुआ है, वो आज राजनीति के उच्च शिखर पर विराजमान है. बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने युवाओं की नब्ज पकड़ ली है जिसकी बदौलत मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है. वर्तमान राजनीति में पैठ कर रही न्यू मीडिया के प्रभाव को देखते हुए कांग्रेस ने भी आगामी चुनावों के लिए दिल्ली कार्यालय में व्यापक स्तर पर मीडिया एवं आईटी विभाग स्थापित किया है.
न्यू मीडिया के प्रभाव से अन्य राजनैतिक दल भी अछूते नहीं है. आम आदमी पार्टी लोगों को एसएमएस भेजकर समर्थन जुटाने में लगी हुई है, वहीं कुछ दिनों पहले टिवटर पर राजनेताओं की बयानबाजी का मज़ाक उड़ाने वाले बिहार के मुख्यमंत्री ने भी हाल ही में फेसबुक पर एंट्री मारी है. अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को तो न्यू मीडिया ने ही हवा दी, जिससे पूरा देश ‘मी अण्णा हजारे आहे’ की टोपी लगाए फिरने लगा. निर्भया बलात्कार कांड से पैदा जनाक्रोश ने तो सरकार की नींद ही उड़ाकर रख दी. ये दोनों ही आंदोलन पूरी तरह से न्यू मीडिया के सहयोग से उपजे, जिसने सरकार विरोधी मुहिम की जमीन तैयार की. इन घटनाओं से यह संकेत निकाला जा सकता है कि अब न्यू मीडिया ही राजनीतिक क्रांति और परिवर्तन का सूत्रधार बनेगा. न्यू मीडिया के सहारे हम निश्चित रूप से ऐसे समय की ओर बढ़ रहे हैं जो संसदीय व्यवस्था और पार्टी पॉलिटिक्स को सुदृढ़ करने का समय है.
पारंपरिक राजनीति से बेहतर है न्यू मीडिया प्रभावी राजनीति
राजनीति का असल मतलब केवल वोटों से लगाया जाता है. ‘लोकतंत्र में चुनाव को महज गिनती का खेल’ समझने वाली सभी राजनीतिक पार्टियाँ इस प्रवृत्ति की शिकार है. चुनावी परिणाम को धन और बल के सहारे अपने पक्ष में करने की प्रक्रिया पारंपरिक राजनीति का ही एक हिस्सा बन चुकी है.
वस्तुतः बंदूक के बल पर ही छोटा-सा समूह अपनी परंपरागत सत्ता टिकाए रखना चाहता है. बंदूक के जोर पर ही वह चुनाव जीत जाना चाहता है. न्यू मीडिया के आने से समाज में नई चेतना एवं जागृति आई है. आज नेताओं को वोट पाने के लिए फेसबुक और टिवटर पर सक्रिय होना पड़ रहा है. एक अंग्रेजी दैनिक समाचार-पत्र में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में ही कांग्रेस के 43 में से 30 एमएलए फेसबुक और टि्वटर पर सक्रिय है. वे अपने फेसबुक पेज पर अपने कार्यक्रमों, फोटो और होर्डिंग्स को अपलोड करके अपना वोट बैंक बढ़ा रहे है.
आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर विभिन्न राजनैतिक दल वर्कशॉप आयोजित करवाकर अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को न्यू मीडिया पर जनता से संवाद करने की ट्रेनिंग दे रहे हैं. बिना बंदूक की नोंक पर वोट पाने की यह राजनीति परंपरागत राजनीति से कई गुना बेहतर है.
आज फेसबुक, टिवटर और व्हॉट्सएप जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर यह पता लगाना कठिन है कि कौन कायस्थ है और कौन ब्राह्मण. राजनीति की जमीन पर जाति की फसल को रोकने में यह आधुनिक व्यवस्था परंपरागत राजनीति की दीवारों को तोड़ती है. पारंपरिक राजनीति में ही नहीं बल्कि आज भी कई जगह स्थानीय निकायों में आमतौर पर ऊंची जातियों ने सत्ता पर इजारेदारी कायम कर ली है.
सांप्रदायिकता के हथकंडे का इस्तेमाल और मुसलमानों के खिलाफ धार्मिक उन्माद पैदा करने से रोकने में न्यू मीडिया एक क्रांतिकारी भूमिका निभा सकता है. न्यू मीडिया पर जन्मा यह समाज सड़ी-गली राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ खड़े होने का माद्दा रखता है. चुनावी मौसम नजदीक आते ही नेताओं द्वारा पैमफ्लेट, पर्चें और झण्डे बंटने शुरु हो जाते हैं, लेकिन अब न्यू मीडिया के आने से इन खर्चों पर लगाम लगाई जा सकती है. साथ ही चुनाव आयोग की निष्पक्ष मतदान की प्रक्रिया को भी गति मिल सकती है.
न्यू मीडिया के सहारे वोट बैंक बढ़ाने की कवायद
पिछले साल गुजरात विधानसभा चुनाव में तीसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री बने नरेन्द्र मोदी ने थ्री-डी प्रचार तकनीक से युवाओं को लुभाने का प्रयास किया. देश में एकसाथ 53 जगहों पर सभाएं आयोजित करवाकर सम्बोधित करने का यह अपने आप में एक अनूठा तरीका था. मोदी ने न्यू मीडिया की ताकत को बखूबी पहचाना, नतीजतन आज वह बीजेपी की तरफ से 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार है.
देश में इंटरनेट के बढ़ते प्रसार ने सभी राजनीतिक दलों को न्यू मीडिया पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए बाध्य किया है. ‘टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया’ के आकंडों के अनुसार मार्च 2013 तक मोबाइल के मार्फत इंटरनेट चलाने वालों की संख्या 164.81 मिलियन है. जिसमें से 84 प्रतिशत युवा इंटरनेट के द्वारा सोशल मीडिया पर एक्टिव हैं.
आज देश के युवा राजनीति में सक्रिय भागीदारी निभा रहे हैं. थोड़ी-सी देर में ही कोई भी राजनैतिक घटना टिवटर पर ट्रेंडिंग टॉपिक और समाचार चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज बन जाती है. आडवाणी अपने ब्लॉक में कुछ भी लिखते है तो वह चर्चा का विषय बन जाता है. बाद में इन्हीं विषयों पर विशेषज्ञ बुलाकर बड़ी-बड़ी बहस आयोजित कराई जाती है. अतः न्यू मीडिया ही आज बातचीत का एजेंडा तय कर रहा है. नेताओं द्वारा यू-ट्यूब पर वीडियो अपलोड की जा रही है. भाजपा अपने प्रमुख नेताओं के रिकॉर्डेडवीडियो और ऑडियो भाषणों का भी मोबाइल के जरिए जनता तक पहुँचा रही है.
‘आईआरआईएस नॉलेज फाउंडेशन’ द्वारा की गई रिसर्च के अनुसार सोशल मीडिया आगामी चुनाव के नतीजों को प्रभावित करने तथा नई सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. न्यू मीडिया की इसी क्षमता के कारण प्रत्येक पार्टी सोशल मीडिया पर जमकर प्रचार कर रही है. आम आदमी पार्टी अपनी उपलब्धियों के प्रचार के लिए हैशटैग का खूब इस्तेमाल कर रही है. ‘आप’ के फेसबुक पर इतने कम समय में लगभग 3.33 लाख और टि्वटर पर 1.35 लाख प्रशंसक हो गए हैं. न्यू मीडिया की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि अब तो फेसबुक और टिवटर पर नेताओं के बीच व्यक्तिगत छींटाकशीं का दौर ही चल पड़ा है. टिवटर पर मोदी और राहुल के समर्थकों के बीच क्रमशः ‘फेंकू’ और ‘पप्पू’ का ट्रेंड चल पड़ा है.
आईआरआईएस और आईएएमएआई (इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन इन इंडिया) की रिपोर्ट बताती है कि न्यू मीडिया के कारण उच्च प्रभावित निर्वाचन क्षेत्र वे हैं, जहां फेसबुक उपभोक्ताओं की संख्या पिछले लोकसभा चुनाव में जीतने वाले प्रतिभागी के वोटों के अंतर से ज्यादा है और जहां फेसबुक इस्तेमाल करने वालों की संख्या कुल मतदाता जनसंख्या की 10 प्रतिशत है.
इस रिपोर्ट के आधार पर कहा जा सकता है कि न्यू मीडिया 2014 के लोकसभा चुनाव के परिणामों को प्रभावित कर सकता है. अपनी ताकत का लोहा तो यह ईरान के चुनावों में, ओबामा के दूसरी बार अमेरिका का राष्ट्रपति चुने जाने पर तथा इजिप्ट में राजनैतिक उथलपुथल के रूप में मनवा चुका है. आगामी लोकसभा चुनाव राजनीतिक परिवर्तन की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण होने जा रहे है. आईआरआईएस और आईएएमएआई की रिर्पोट के अनुसार 543 निर्वाचन क्षेत्रों में से सोशल मीडिया द्वारा सबसे ज्यादा प्रभावित 160 निर्वाचन क्षेत्र हैं. यह आकंडें चुनावों में नए समीकरण बना सकते हैं.
न्यू मीडिया का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसके कारण जनता को अपने नेता तक पहुंचने के लिए पूर्व अनुमति की जरुरत नहीं पड़ती, केवल एक बटन पर क्लिक करते ही उन तक अपनी बात रखी जा सकती है. वर्तमान समय में लाखों लोग फेसबुक, टिवटर, व्हॉट्सएप जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स का जमकर इस्तेमाल कर रहे है. ये स्थिति नेताओं के लिए एक बहुत बड़ा मौका है व्यापक स्तर पर अपने मतदाताओं तक पहुंचने का और जनाधार का निर्माण करने का. वो भी बहुत कम कीमत पर.