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क्या पहलगाम अटैक में मारे गए लोगों को शहीद का दर्जा मिल सकता है, कब-कब आम लोगों को मिला ये सम्मान?

पहलगाम आतंकी हमले में मारे गए लोगों को शहीद का दर्जा देने की मांग उठ रही है. विपक्ष के लीडर राहुल गांधी ने भी इसका समर्थन किया. लेकिन क्या सेना से अलग भी किसी को शहीद का स्टेटस मिल सकता है? क्या कभी केंद्र या किसी राज्य ने ऐसा फैसला लिया?

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पहलगाम आतंकी हमले में मृत पर्यटकों के लिए पूरे देश में संवेदना की लहर है. (Photo- Reuters)
पहलगाम आतंकी हमले में मृत पर्यटकों के लिए पूरे देश में संवेदना की लहर है. (Photo- Reuters)

अप्रैल में कश्मीर के पहलगाम में आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव अब संघर्ष का रूप ले चुका. भारतीय सेना ने ऑपरेशन सिंदूर के तहत पाकिस्तानी सीमा पर कई आतंकी ठिकाने तबाह कर दिए. सैन्य बदले के अलावा ये मांग भी उठ रही है कि टैरर अटैक में मारे गए पर्यटकों को शहीद का दर्जा मिले. लेकिन क्या ये मुमकिन है? जानें, क्या है देश में शहादत की परिभाषा और नियम-कायदे. 

22 अप्रैल की दोपहर पहलगाम की बायसरन वैली में आतंकियों ने 26 लोगों की हत्या कर दी, जबकि कई घायल हुए. अटैक के लिंक पाकिस्तान से जुड़े साबित हुए. इस बीच न्याय की मांग के अलावा एक और डिमांड दिखी कि हमले में मारे गए पर्यटकों को औपचारिक तौर पर शहीद माना जाए. पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में एक पीआईएल दायर हुई, जिसमें यही मांगा गया. विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने सोशल प्लेटफॉर्म एक्स पर ये मांग दोहराई. 

कौन कहलाता है शहीद

आमतौर पर जब कोई देश की रक्षा में जान दे दे, या फिर कोई बड़ा काम करते हुए जान चली जाए तो लोग उसे शहीद कहने लगते हैं. हालांकि सरकार की तरफ से सेना के अलावा किसी को ये दर्जा नहीं दिया जाता. इसमें भी एक पेंच है. साल 2017 में रक्ष मंत्रालय ने एक नोटिफिकेशन में कहा था कि देश के लिए जान देने वाले सैनिकों को भी शहीद कहने की कोई सरकारी पॉलिसी नहीं. यह टर्म बोलचाल की भाषा में इस्तेमाल होती है, और ये कानूनी या सरकारी मान्यता वाला दर्जा नहीं. 

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indian army photo- AP

पुलिस के लोग अगर आतंकवाद से जंग में मारे जाएं तो भी उन्हें सरकारी तौर पर शहीद नहीं माना जाता. यहां तक कि सेना में तयशुदा समय के लिए सर्विस देते अग्निवीरों के लिए भी यही बात लागू होती है. 

एक्टिविस्ट गोपाल प्रसाद ने साल 2013 में एक आरटीआई अर्जी लगाई थी. इसमें एक दिलचस्प बात पता लगी. न तो डिफेंस मिनिस्ट्री, और न ही होम मिनिस्ट्री के पास शहीद शब्द की पक्की परिभाषा है. आजादी की लड़ाई के दौरान बहुत से क्रांतिकारियों के लिए शहीद शब्द का इस्तेमाल हुआ. ये एक तरह की जनभावना है. आजाद भारत में भी शहीद शब्द को कोई सरकारी दर्जा नहीं मिला. 

शहीद का स्टेटस तो नहीं, लेकिन अगर कोई जवान ड्यूटी पर, या किसी ऑपरेशन में मारा जाए तो उसके परिवार को कई सरकारी रियायतें दी जाती हैं. ये एक तरह से उसकी शहादत को सरकारी एकनॉलेजमेंट है. इसमें मुआवजा, पेंशन, परिवार के किसी सदस्य को सरकारी नौकरी, रहने के लिए घर, और हवाई या रेल यात्रा में छूट मिल सकती है. सेंटर के अलावा राज्य सरकारें भी आगे आकर परिवार की सहायता करती हैं, जैसे जमीन देना, पेट्रोल पंप का लाइसेंस दिलवाना या आर्थिक मदद. 

indian army photo AP

सेंटर वैसे तो सेना के जवानों को ही शहीद मानता रहा, लेकिन कई राज्यों ने अपने लेवल पर ऐसे कई लोगों को शहीद माना, जो सेना से नहीं थे. जैसे साल 2008 में मुंबई अटैक के बाद महाराष्ट्र सरकार ने हेमंत करकरे, विजय सालस्कर और अशोक कामटे जैसे कई पुलिस अधिकारियों को शहीद कहते हुए उनके परिवारों को सम्मान और मुआवजा दिया. छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में नक्सल हिंसा में में मारे गए सरकारी कर्मचारियों या चुनाव ड्यूटी पर मारे गए लोगों को शहीद माना. 

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राजनैतिक और सामाजिक दबाव के चलते कई ऐसे मौके दिखते रहे. पंजाब को ही लें तो वहां सरबजीत को राज्य सरकार ने शहीद माना. सरबजीत पाकिस्तान की जेल में बंद थे और आधिकारिक तौर पर भारतीय सेना का हिस्सा नहीं थे लेकिन सरकार ने जनभावना का ध्यान रखते हुए पाकिस्तान में उनकी हत्या के बाद परिवार को वही सम्मान दिया, जो सेना के अधिकारी की शहादत को मिलता है. 

वापस वहीं लौटते हैं, जहां से शुरुआत की थी. फिलहाल सरकार के पास ऐसा कोई नियम नहीं, जिससे आतंकी हमले में मरे आम नागरिकों को शहीद माना जा सके. हां, राज्य चाहें तो वे ऐसा फैसला ले सकते हैं, जैसे मृत पर्यटक जिस जगह से हों, वहां की सरकार ऐसा कुछ करे. लेकिन केंद्र के स्तर पर पॉलिसी में ऐसा मुमकिन नहीं दिखता. 

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