हमारी पुराने हिंदी फिल्मों की सीरीज में आज बात करते हैं उस सुपरहिट फिल्म की, जिसे आराम से मसाला सिनेमा का बाप और खोया-पाया कहानियों की मां कहा जा सकता है और आखिर में दोनों का मिलन भी हो जाता है.
फिल्म: वक्त (1965)
कलाकार: बलराज साहनी, राज कुमार, सुनील दत्त, साधना, शशि कपूर, शर्मिला टैगोर, रहमान, अचला सचदेव, मदन पुरी और मोतीलाल
निर्देशक: यश चोपड़ा
बॉक्स ऑफिस स्थिति: सुपरहिट
कहां देखें: यूट्यूब
क्यों देखें: सिर्फ और सिर्फ राज कुमार के लिए बार-बार देखें!
सीख: जब भूकंप आए, तो भागना नहीं चाहिए.
दिग्गज फिल्म मेकर यश चोपड़ा ने फिल्म वक्त ऐसे दर्शकों के लिए बनाई थी जिनकी IQ लेवल 50 से भी कम थी. वहीं साहिर लुधियानवी ने इसमें ऐसी शानदार शायरी लिखी थी, जिसे समझने के लिए तेज दिमाग यानी 100 से ज्यादा IQ चाहिए था. दोनों ने मिलकर पूरे भारत को एक साथ एक शानदार लेकिन अजीब फिल्म के जरिए चकमा दे दिया.
वक्त की कहानी इतनी बेसिर-पैर की है, लगता है जैसे इसे भीमबेटका की गुफाओं में रहने वाले आदिमानवों ने सोचा होगा. कहानी में दिखाया गया है कि एक दिन लाला केदारनाथ (बलराज साहनी) अपने तीन बेटों के उज्जवल भविष्य के सपने बुन रहे होते हैं कि अचानक एक भूकंप आता है. कुछ ही मिनटों में उनका परिवार पूरे भारत में बिखर जाता है. लाला केदारनाथ को मरा हुआ मान लिया जाता है, जिसके बाद बड़ा बेटा अनाथालय पहुंच जाता है. मंझले बेटे को बंबई का एक अमीर परिवार गोद ले लेता है. और सबसे छोटा बेटा अपनी मां (अचला सचदेव, जो उस दौर में हर दुखभरी मां का चेहरा थीं) के साथ दिल्ली पहुंचता है. इसके बाद गानों का तांता, बचकानी जासूसी, और नर्सरी जैसी अदालत की कार्यवाही के बाद पूरा परिवार फिर मिल जाता है.
फिल्म का आखिरी संदेश: वक्त बहुत ताकतवर है और कभी भी बदल सकता है.
अब सवाल उठता है- क्या सिर्फ एक भूकंप से परिवार बिछड़ सकता है?
अगर यश चोपड़ा को परिवार को अलग करने का कोई असली कारण चाहिए था, तो वे बाढ़ जैसा कुछ दिखा सकते थे. खासकर जब लाला केदारनाथ और उनके बेटे पंजाब के उस दौर से आते हैं, जहां नदियां भरपूर थीं. लेकिन नहीं! उन्होंने बहुत ही बचकानी शुरुआत की. मगर वहां से उन्होंने तेज रफ्तार के साथ बेतुकी चीजें फॉलो कीं.
और यही इस फिल्म की असली खूबसूरती है. यह इतनी बेवकूफाना है कि उसी में इसकी महानता छुपी हुई है. यह फिल्म इतनी "डोप" है कि देखकर लगता है जैसे किसी ऐसे सपनों की दुनिया में पहुंच गए हों जहां अविश्वास पर अटूट विश्वास किया जाता है. आप फिल्म को आखिर तक देखते रहते हैं बस यह जानने के लिए कि लेखक-निर्देशक और कौन-कौन से अजीबो-गरीब मोड़ लेकर आएंगे ताकि 60,000 BC पूर्व की मूर्खता वाली फीलिंग बनी रहे.
आखिर में, यश चोपड़ा इस पूरे गड़बड़झाले को इतनी हिम्मत और बेहिचक अंदाज में निभा लेते हैं कि उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर अवॉर्ड नहीं बल्कि सिनेमा में अदम्य साहस के लिए वीरता पुरस्कार मिलना चाहिए था.
फिल्म लगातार दर्शकों को बेवकूफ बनाते हुए धड़ल्ले से चलती रहती है.
एक उदाहरण देखिए:
राज कुमार पर मदन पुरी की हत्या का आरोप लगता है. कोर्ट में, उनके वकील सुनील दत्त बीच में सुनवाई रोक कर नाटकीय अंदाज में हत्या के हथियार की खोज की घोषणा करते हैं. सुनील दत्त एक चमचमाता रामपुरी चाकू निकालकर गवाह चिनॉय सेठ की ओर लहराते हैं.
सुनील दत्त बड़ी-बड़ी आंखें दिखाते हुए शुद्ध उर्दू में कहते हैं: "इस चाकू से साफ होता है कि सिर्फ एक ही हत्यारा हो सकता है- चिनॉय सेठ, क्योंकि चाकू पर उनका नाम खुदा है."
रहमान (और बड़ी आंखों के साथ, माथे पर बाल गिरते हुए): "गलत!"
सुनील दत्त (तेज नजरें गड़ाते हुए): "क्यों?"
रहमान: "क्योंकि मारा गया आदमी अपने ही चाकू से मारा गया है..."
सुनील दत्त: "उसे कैसे पता कि हत्या उसी के चाकू से हुई थी?"
(अब सोचिए सुनील दत्त अपनी जांघ पर मारते हुए, जोर से ‘पकड़ लिया’ बोलते हैं!)
पूरा कोर्ट सन्नाटा. रहमान पसीने-पसीने हो जाते हैं- लगता है और भी कोई बेवकूफी अभी आने वाली है. वो रुमाल से चेहरा पोंछते हैं, फिर अपनी लाठी से एक लंबी तलवार निकालते हैं और सीधे सुनील दत्त पर तान देते हैं.
जज: "इन्हें गिरफ्तार करो."
रहमान खुद को भी फंसा लेते हैं और दर्शकों को भी ये समझा देते हैं कि सिनेमा असल में लोकतंत्र की तरह है- "डायरेक्टर का, डायरेक्टर के लिए, और भोले दर्शकों के नाम."
सवाल उठता है:
तो आखिर इतनी कम अक्ल वाली फिल्म सुपरहिट कैसे हो गई, और करीब 6 करोड़ रुपये (आज के 500 करोड़ के बराबर) कमा लिए?
अगर आप अपनी समझदारी से लोगों को चकित नहीं कर सकते, तो अपनी बकवास से कर दो! यश चोपड़ा ने भी यही किया. इस हल्की-फुल्की कहानी को एक बेहद चालाक रेसिपी में पकाया, ढेर सारी किस्में, छोटे-छोटे हिस्से, ढेर सारा मसाला और भव्य सेटिंग.
फिल्म में इतने सारे किरदार और साइड स्टोरीज हैं कि हर कुछ मिनटों में एक नया ट्विस्ट आ जाता है, और धीरे-धीरे सब जाकर मुख्य कहानी से जुड़ते हैं. एक्शन कभी पंजाब, कभी दिल्ली, तो कभी मुंबई से खंडाला और फिर मुंबई से कश्मीर तक ऐसे घूमता है जैसे कोई स्टेरॉयड वाला यो-यो. फिल्म की तेज रफ्तार एडिटिंग इतनी जबरदस्त है कि आपको बाथरूम जाने का भी मौका नहीं मिलता.
जब फिल्म की रफ्तार थोड़ी धीमी होने लगती है, तो यश चोपड़ा तुरन्त रवि के शानदार गाने परोस देते हैं. और हर गाना साहिर लुधियानवी की शायरी का एक मास्टरपीस है. चोपड़ा इस शानदार 'मसाला थाली' में एक और स्पेशल डिश भी डालते हैं- साधना स्विमसूट में, और सन-सनाते धूप में बिना शर्ट वाले सुनील दत्त के साथ रोमांस करते हुए. (जो बाद में त्रिशूल के "गपुची गपुची गम गम" जैसा आइकॉनिक मोमेंट बना) और फिर, पलक झपकते ही फिल्म खत्म!
वक्त आज भी क्यों अमर है?
भले ही इसकी कहानी बचकानी हो, लेकिन फिल्म दो वजहों से अमर है- संगीत और शायरी, 'आगे भी जाने न तू', 'वक्त से दिन और रात', 'कौन आया' और 'चेहरे पे खुशी' -ये गाने आज भी दिल को छूते हैं. 'ए मेरी जोहरा जबीं' -आज भी 25वीं और 50वीं शादी की सालगिरहों पर जरूरी गाना है. जब बुजुर्ग जोड़े इस गाने पर थिरकते हैं, तो महसूस होता है कि ये गाना "मरते दम तक साथ निभाने" वाली मोहब्बत का असली एंथम है.
असली हीरो: राज कुमार
इस फिल्म के सुपरस्टार हैं राज कुमार. शार्प सूट और बिल्कुल परफेक्ट टाई में वो चलते हैं, दाहिना कंधा थोड़ा झुका हुआ, और शेर जैसी चाल में पूरा स्वैग झलकता है. जहां सुनील दत्त तेज-तेज ऊलजलूल उर्दू में 'तूफान-ए-हमदम, गुल-ए-गुलजार' जैसी बातें करता है, वहीं राज कुमार सिर्फ दो लाइनों से सबकुछ लूट ले जाते हैं. जब मदन पुरी चाकू निकालता है, तो राज कुमार बड़े ठंडे अंदाज में कहते हैं- "ये बच्चों के खेलने की चीज नहीं, हाथ कट जाए तो खून निकल आता है." और फिर बड़े अंदाज से चाकू फेंक कर एक हल्की-सी हंसी हंसते हैं. उनकी आवाज की खराश और कंट्रोल में रखा गुस्सा, उस पल को ऐसा बनाता है जैसे हजारों तलवारें एक साथ गरज रही हों.
नतीजा: इस फिल्म की मूर्खता में भी एक कमाल की चमक है. राज कुमार का बेमिसाल स्वैग और फिल्म के छोटे-छोटे दमदार मोमेंट्स दिखाते हैं कि कभी-कभी पागलपन भी इतिहास बना देता है.