इस बार रेट्रो रिव्यू में हम बात कर रहे हैं फिल्म आंधी की- एक साहसी राजनीतिक व्यंग्य जो अपनी कहानी और किरदारों के जरिए इंदिरा गांधी से जुड़ी समानताओं के चलते विवादों में घिर गई थी. ये महत्वाकांक्षाओं, प्रेम और बलिदान की एक कथा है, जो आज भी सिनेमा की एक अनमोल धरोहर मानी जाती है.
रेट्रो रिव्यू: आंधी (1975)
कलाकार: संजीव कुमार, सुचित्रा सेन, ओम प्रकाश, ए.के. हंगल, ओम शिवपुरी
निर्देशक: गुलजार
संगीत/गीत: आर.डी. बर्मन/गुलजार
बॉक्स ऑफिस: हिट
देखने की जगह: YouTube
देखने का कारण: राजनीति के निजी जीवन पर प्रभाव को मार्मिक रूप से दर्शाने वाली कहानी
कहानी की सीख: कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना
पृष्ठभूमि
भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हर सुबह योग के लिए एक घंटा देती थीं. सप्ताह में लगभग उतना ही समय वो अपने स्टाइलिस्ट के साथ बिताती थीं. इन दोनों चीजों के संगम से उनके व्यक्तित्व में एक विशिष्टता आई- स्लिम बॉडी, तेज चाल, सजी-धजी साड़ियां और उनके बालों की एक खास सफेद लट जो उनकी पहचान बन गई. 1970 के दशक में इंदिरा गांधी अपनी लोकप्रियता के चरम पर थीं. बांग्लादेश युद्ध में विजय और ‘गरीबी हटाओ’ अभियान ने उन्हें आम जनता और उच्च वर्ग—दोनों का प्रिय बना दिया था. विरोधी दलों तक ने उन्हें दुर्गा का अवतार बताया. इसी दौर में निर्देशक गुलजार ने उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा लेकर आंधी बनाई. गुलजार का कहना है कि ये फिल्म इंदिरा गांधी की जीवन-कथा नहीं थी, बल्कि इसकी मुख्य किरदार आरती देवी उनसे और पटना की प्रसिद्ध सांसद तारकेश्वरी सिन्हा से प्रेरित थी.
हालांकि फिल्म की रिलीज के समय इसे इंदिरा गांधी की बायोपिक के रूप में प्रचारित किया गया. पोस्टरों पर लिखा गया—"देखिए प्रधानमंत्री को पर्दे पर." यह प्रचार-रणनीति शुरू में सफल रही, लेकिन गुजरात विधानसभा चुनावों के दौरान इंदिरा गांधी के विरोधियों ने फिल्म के कुछ दृश्यों का दुरुपयोग किया. कांग्रेस की शिकायत पर चुनाव आयोग ने फिल्म को रिलीज के 24 हफ्तों बाद बैन कर दिया. इसके कुछ ही समय बाद, 26 जून 1975 को इंदिरा गांधी की आवाज रेडियो पर गूंजी—"आपातकाल की घोषणा की जाती है." आंधी का नाम अब आपातकाल की यादों से हमेशा के लिए जुड़ गया.
कहानी
फिल्म की कहानी आरती देवी (सुचित्रा सेन) के इर्द-गिर्द घूमती है—एक लोकप्रिय लेकिन आंतरिक रूप से बिखरी हुई नेता. एक चुनावी दौरे के दौरान उसकी मुलाकात अपने अलग हो चुके पति जे.के. (संजीव कुमार) से होती है. यह टकराव उसे अपने अतीत और महत्वाकांक्षा की कीमतों से दोबारा रूबरू कराता है. चुनाव का माहौल, विरोधियों के हमले, निजी जीवन पर सवाल और अफवाहें… सब कुछ उसके इर्द-गिर्द भयंकर तूफान बनाते हैं. लेकिन अंत में आरती एक चौंकाने वाला कदम उठाकर सबको स्तब्ध कर देती है—और मंच छीन लेती है. फिल्म और इंदिरा गांधी के जीवन में समानताएं साफ दिखती हैं. जैसे—पंडित नेहरू को इंदिरा और फिरोज गांधी की शादी पसंद नहीं थी. शादी वैदिक रीति से हुई, नेहरू की जिद पर. फिरोज गांधी एक स्वतंत्र सोच वाले पत्रकार और सांसद थे, जो सरकार की आलोचना करने से भी नहीं हिचकते थे (1958 का एलआईसी घोटाला उजागर करना उदाहरण है).
इंदिरा और फिरोज का रिश्ता जटिल रहा. अंततः वो अपने पिता के घर लौट आईं, अपने बेटों राजीव और संजय के साथ. आंधी में आरती और जे.के. का रिश्ता, इसी रिश्ते की झलक देता है. फर्क ये है कि फिल्म का अंत सुखद है, जबकि फिरोज गांधी की मृत्यु दिल के दौरे से हुई थी. एक दृश्य में आरती पर पत्थर फेंके जाते हैं. वो जवाब देती है—"हिंसा बुरी राजनीति का हिस्सा है." यह एक असली घटना से मेल खाता है जब इंदिरा गांधी की नाक पर एक रैली में पत्थर लग गया था और सर्जरी की जरूरत पड़ी थी.
अच्छा, बुरा और कड़वा
गुलजार ने इस फिल्म में व्यक्तिगत और राजनीतिक दुनिया को बड़े ही संतुलित तरीके से पिरोया है. सुचित्रा सेन ने आरती के किरदार में गजब का आत्मबल और दर्द उकेरा है. संजीव कुमार का किरदार शांत, गहरा और बेहद प्रभावी है. फिल्म की गैर-रेखीय शैली गुलजार की खासियत है, जो भूत और वर्तमान को सहज रूप से जोड़ती है. आर.डी. बर्मन का संगीत और गुलजार के गीत फिल्म का दिल है—तेरे बिना जिंदगी से और इस मोड़ से जाते हैं सिर्फ गाने नहीं, कहानी के स्तंभ हैं. ओम प्रकाश, ए.के. हंगल और ओम शिवपुरी जैसे किरदार आरती के राजनीतिक संसार के विविध रंग दिखाते हैं.
समस्या: फिल्म का क्लाइमैक्स कुछ हद तक कमजोर है. आखिरी घटनाएं थोड़ी अतिरंजित लगती हैं, जो कहानी की गहराई से मेल नहीं खातीं.
फैसला
इन कमियों के बावजूद, एक मजबूत लेकिन त्रुटिपूर्ण महिला नेता का चित्रण उस समय के लिए क्रांतिकारी था. ये फिल्म आज भी प्रासंगिक है क्योंकि यह दिखाती है कि प्रेम और सत्ता के बीच संतुलन साधना कितना कठिन होता है. 1977 में इंदिरा गांधी चुनाव हार गईं. उसके बाद जब आंधी को मोरारजी देसाई सरकार ने फिर से रिलीज किया, तो दर्शकों ने इसे हाथोंहाथ लिया. फिल्म की सफलता ने ये दिखा दिया कि इंदिरा गांधी भले हार गई हों, लेकिन टूटी नहीं थीं. जैसे आंधी ने दूसरा मौका पाया, वैसे ही उन्होंने भी वापसी की.
निष्कर्ष
आंधी अवश्य देखी जानी चाहिए. इसके साहसी लेखन, शानदार अभिनय, खूबसूरत संगीत और राजनीति के पीछे छिपे मानव-संघर्ष को दर्शाने के लिए. ये फिल्म याद दिलाती है कि हर सार्वजनिक चेहरे के पीछे एक निजी संघर्ष छिपा होता है, और कला—चाहे प्रतिबंधित हो जाए—हमेशा जिंदा रहती है.
चलते चलते एक दिलचस्प बात और... फिल्म में सुचित्रा सेन को इंदिरा गांधी के स्टाइल में दिखाया गया है— एकदम शालीन साड़ियां, और बालों में सफेद लट. मशहूर स्टाइलिस्ट हबीब अहमद ने एक बार बताया था कि इंदिरा के बाल 99% सफेद थे. उस सफेद लट को छोड़कर बाकी बाल काले रंगे जाते थे. पहले यह काम फ्रांस में हुआ, फिर भारत में हबीब ने संभाला. वो हफ्ते में एक से दो बार प्रधानमंत्री से मिलते थे, ताकि उनका ये आइकॉनिक लुक बरकरार रहे.