बचपन में ट्रक के पीछे लिखा देखा था - 13 मेरा 7. लगा कि बहुत बढ़िया वर्डप्ले है. सालों बाद एक फ़िल्म में ऐसा ही प्रयोग देखने को मिला - 2:12 (दोबारा). डायरेक्टर अनुराग कश्यप की फ़िल्म आ चुकी है. फ़िल्म में तापसी पन्नू, राहुल भट्ट और पावेल गुलाटी मुख्य भूमिकाओं में हैं. फ़िल्म दोबारा स्पैनिश फ़िल्म मिराज (Mirage) की आधिकारिक रीमेक है. चूंकि ग़ैर अंग्रेज़ी फ़िल्म है इसलिये बहुत कम लोगों ने देखी होगी.
कहानी:
[स्पॉइलर हो सकते हैं. अपने विवेक से काम लें. हालांकि फ़िल्म एक रीमेक है, इसलिये स्पॉइलर असल में स्पॉइलर रह नहीं जाते.]
फ़िल्म दो दशकों के बीच झूलती रहती है. 1990 और 2020 का दशक. फ़िल्म की टाइमलाइन इधर से उधर आती-जाती रहती है.
अनय नाम का एक 12-13 साल का लड़का पुणे में अपनी आर्किटेक्ट मां के साथ रहता है. अनय टर्मिनेटर फ़िल्म का फ़ैन है और मां का लाडला है. एक तूफ़ानी रात में वो देखता है कि उसके पड़ोस के घर में मार-पीट हो रही है. कौतुक मन वाला अनय उस घर में घुस जाता है. वहां से एक महिला की लाश दिखती है. घबराया हुआ बच्चा बाहर भागता है जहां फ़ायर ब्रिगेड की गाड़ी उसे कुचलकर निकल जाती है. फ़िल्म शुरू होने के 15 मिनट के भीतर अनय मर जाता है.
अब बात 2021 की आती है. अंतरा अपने पति विकास और 6 साल की बच्ची अवंती के साथ पुणे शिफ्ट होती है. उसी घर में जिसमें कभी अनय रहता था. वो अनय जो मर चुका है. लेकिन अनय की पुरानी टीवी के ज़रिये अंतरा उससे बात कर सकती है. बेसिकली, अंतरा भूतकाल में झांक रही थी और अनय भविष्य में. अनय की कहानी अंतरा को मालूम थी. इसलिये वो उसे फ़ायर ब्रिगेड की गाड़ी के नीचे आने से बचा लेती है. और इस तरह से अंतरा पिछले समय में जाकर उसका भविष्य बदल देती है.
यहां से एक खिचड़ी पकना शुरू होती है. इस खिचड़ी का नाम है दोबारा. खिचड़ी की थाली में ढेर सारा अचार है, फेंटा हुआ दही है और पापड़ भी है. इन सभी चीज़ों ने मिलकर दो-सवा दो घंटे का एक भोज तैयार किया है.
कैसी रही?
टिपिकल अनुराग कश्यप फ़िल्म है. स्ट्रांग महिला कैरेक्टर्स हैं. एक मां है जो आर्किटेक्ट है, अस्पताल का नक्शा तैयार कर रही है, बेटे की फ़िक्र करने के साथ-साथ. आगे चलकर तापसी पन्नू दिखती हैं जो एक डॉक्टर हैं और अपने काम में माहिर हैं. उसके सीनियर उसकी स्किल की वजह से उसपर जान छिड़कते हैं. वो अपने पति से सीधे कह देती है - 'पहले तुम्हारी बातें फ़नी लगती थीं, अब तुम्हारी आवाज़ सुनते ही मन करता है कि कानों में रुई डाल लूं.' एक बार फिर, जानी-पहचानी अनुराग कश्यप स्टाइल में फ़िल्मों का रेफ़रेंस आता रहता है. यहां तक कि फ़िल्म की शुरुआत भी किशोर कुमार के गाने से ही होती है.
चाहे वो विकास का डॉक्टर अंतरा वशिष्ठ से कहना हो, - 'आपने मेरी जान बचाई थी. आप भगवान हुईं. लेकिन न, भगवान का भी एक डेकोरम होता है.' या फिर पुलिसवाला बन चुके अनय का कहना हो - 'आज-कल तो लोगों को किसी भी बात के लिये उठा लेते हैं. तुमने तो फिर भी मर्डर किया है.' अपनी आदत से मजबूर अनुराग कश्यप पोलिटिकल स्टेटमेंट देते रहते हैं.
फ़िल्म में सस्पेंस भरपूर है. लेकिन सब कुछ इस बात पर डिपेंड करेगा कि आप किस नज़रिये से देखते हैं. आप या तो इस बात की तह तक जाना चाहेंगे कि आख़िर चल क्या रहा है और ये खिचड़ी पक कैसे रही है. या फिर आप दो बातें बोलकर आधे रास्ते में छोड़ देंगे और कहेंगे कि कैसी अजीब फ़िल्म है. बीच का कोई रास्ता नहीं है.
अनुराग अपनी फ़िल्मों में ऐक्टर्स को दोहराते हैं. राहुल भट्ट, तापसी पन्नू यहां भी हैं. पावेल गुलाटी तिकड़ी को पूरा करते हैं. ये तीनों कहीं भी कम नहीं पड़ते हैं. विकास के रोल में राहुल भट्ट स्क्रीन पर जब दिखते हैं, आपको मालूम रहता है कि कुछ मज़ेदार माल मिलने वाला है. पावेल गुलाटी अपने साथ एक तरह की मिस्ट्री लिये घूमते हैं और ये उस कैरेक्टर पर फ़बता भी है. कई टाइमलाइनों से जूझ रही अंतरा के रोल में तापसी ने शानदार काम किया है. उनकी झुंझलाहट, पागलपन और कन्फ़्यूज़न जानदार तरीक़े से दिखता है और इसके उन्हें पूरे नंबर मिलने चाहिये.
एक चीज़, जिसके बारे में ज़रूर बात होनी चाहिये - आरती बजाज की एडिटिंग. एक फ़ेज़ से दूसरे में जितनी आसानी से कहानी चली जाती है, वो इन्हीं की बदौलत है. बची-खुची कसर फ़िल्म की म्यूज़िक पूरा कर देती है. म्यूज़िक पूरी तरह से कहानी का साथ देती है. उससे आगे नहीं निकलती और रास्ता भी नहीं भटकती. वैसे गाने भी नहीं हैं जो सस्पेंस में खलल डालें. हालांकि ये डायरेक्टर महोदय का ट्रेडमार्क भी है. 2 गाने आते हैं, दोनों कहानी को आगे बढ़ाते हैं.
अंत में:
अनुराग कश्यप 2 साल के बाद आये हैं. इससे पहले उन्होंने चोक्ड बनायी थी. क्यूं बनायी, किसने कनपटी पर पिस्तौल सटा के उनसे वो फ़िल्म बनवाई थी, इसकी जांच होनी चाहिये. लेकिन अब उन्होंने अपने आप को झाड़-पोछकर अलमारी से निकाला है. फ़िल्म 'दोबारा' कैल्कुलस के कठिन चैप्टर सरीखी है. सवाल हल हो जाए तो भयानक मज़ा. लेकिन जब तक नहीं होता, सांस अटकी रहती है. फ़िल्म के साथ सावधानी हटी, दुर्घटना घटी वाला मामला है. आप अपने फ़ोन में घुसे, पॉपकॉर्न के लिये बगल वाले/वाली से बतकही की तो कोई कड़ी छूट जायेगी और सवाल हल नहीं हो पायेगा.