यह बात हजम नहीं होती कि वे एक मंच पर आ गए हैं. अभी माह भर पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और रामविलास पासवान मिलकर 'चौथा मोर्चा' बनाएंगे. मंडलवादियों के मूल खेप का हिस्सा रहा इनमें से प्रत्येक नेता यही सोचता था कि वह कद और हैसियत में बाकी दोनों से बड़ा है. इसलिए 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के पतन के बाद इन तीनों को एक-दूसरे से अलग होना ही था. लेकिन तब से गोमती और कोसी में बहुत पानी बह चुका है और तीनों, जिन्हें बैठकों में एक-दूसरे की ओर देखना भी गवारा नहीं था, परिस्थितियों के कारण टीवी कैमरों के सामने एक दूसरे को गले लगा रहे हैं.
चुनावी मजबूरियों ने अचानक ही इन्हें एक साथ ला खड़ा किया है. बिहार में लालू यादव का सर्वविदित मुस्लिम-यादव (माइ) मेल का फॉर्मूला कमजोर पड़ रहा है और अचानक कांग्रेस के खिलाफ रेल मंत्री के तेवर से यह घबराहट साफ देखी जा सकती है. उन्होंने कांग्रेस पर तमाम आरोपों के साथ यह आरोप भी लगा डाला कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए कांग्रेस भी उतनी ही जिम्मेदार है जितनी भाजपा. इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि लालू इस तरह की सारी बयानबाजी मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए कर रहे हैं, बिहार के मतदाताओं में जिनकी 16 फीसदी की अच्छी-खासी संख्या है. वर्षों तक लालू भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी पर निशाना साधते रहे और 1990 में उनकी गिरफ्तारी का श्रेय लेते नहीं थकते थे. अब 2009 में उन्होंने निशाना बदल दिया है. शायद कुछ लोगों को आश्चर्य हुआ होगा, जब लालू ने घोषणा कि ''अगर वे गृह मंत्री होते तो वरुण गांधी पर रोलर चलवा देते.''
कांग्रेस पर लालू का हमला जबरदस्त बदलाव है, क्योंकि वे कांग्रेस के भरोसेमंद साथी रहे हैं. लेकिन यह बदलाव अकारण नहीं है. कांग्रेस पर लालू का तीखा हमला उनकी हताशा को दर्शाता है, क्योंकि उनके गृह राज्य में मुसलमानों ने अब उनके राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की जगह कई विकल्प खोज लिए हैं.
{mospagebreak}इसके अलावा मौजूदा समय भी मायने रखता है. लालू ने पहले चरण के मतदान के बाद, जिससे संकेत मिलता है कि उन्हें ज्यादा फायदा नहीं हो रहा है, कांग्रेस के खिलाफ अपना हमला तेज कर दिया है. इसीलिए वे उसकी भरपाई के लिए पूरी कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि बिहार में अब भी 27 सीटों पर मतदान होना बाकी है, स्पष्ट है कि लालू प्रसाद यादव, जो हमेशा ही मुस्लिम मतदाताओं को अपनी राजनैतिक योजना का आधार समझते रहे हैं, बेचैन हो गए हैं. हर किसी के खिलाफ नकारात्मक तेवर अपना कर वे मुसलमानों को अपनी ओर खींचने की पूरी कोशिश में जुटे हैं.
अपने पूरे कॅरिअर में लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) प्रमुख रामविलास पासवान अपनी आशावादिता के लिए जाने जाते रहे हैं-एक ऐसा शख्स, जो अवसर का पूरा लाभ उठाना जानता है. उन्हें लेकर पार्टी के कुल जमा चार सांसदों के साथ पासवान केंद्रीय कैबिनेट में जगह पाने में कामयाब रहे हैं. चुनाव बाद के परिदृश्य में भी उम्मीद की जा रही है कि पासवान लालू और मुलायम के साथ ही रहेंगे लेकिन इन दोनों के साथ डूबने का खतरा हुआ तो वे राजग के साथ जाने से भी शायद परहेज नहीं करेंगे.
हालांकि वाममोर्चा के नेताओं के साथ उनके अच्छे संबंध हैं लेकिन वाममोर्चा ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को लेकर सरकार बनाई तो वे शायद उसके साथ जाने से कतराएंगे. इस बार उनकी पार्टी बिहार में केवल 12 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, इसलिए प्रधानमंत्री पद पाने की लालसा रखने वाले पासवान चुनाव के बाद संभवतः किंगमेकर की भूमिका में न आ पाएं. लेकिन चुनाव बाद के परिदृश्य में, जहां एक सांसद वाली पार्टी भी किंगमेकर बनने का नाटक कर सकती है, पासवान महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं, खासकर अगर उनकी लोजपा तीन या चार सीटों सें जीत जाती है. ऐसी स्थिति में केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक व इस्पात मंत्री की भूमिका अहम हो सकती है.
{mospagebreak}लेकिन उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के लिए यह सचमुच अग्निपरीक्षा की घड़ी है. हाल ही में उनके करीब दर्जन भर सांसद उनका साथ छोड़ चुके हैं और उनका मुस्लिम जनाधार भी खिसक रहा है. पिछले साल जुलाई में विश्वास मत के दौरान कांग्रेस के साथ शुरू हुई उनकी नजदीकी भी खत्म हो चुकी है. भाजपा से अलग हुए कल्याण सिंह के साथ समाजवादी पार्टी (सपा) की दोस्ती उनके लिए महंगी साबित हो रही है. अपनी पार्टी की संभावनाओं को मजबूत करने के लिए मुलायम ने संजय दत्त को खड़ा किया लेकिन सुह्ढीम कोर्ट ने दत्त की उम्मीदवारी को ही खारिज कर दिया और मुलायम को अपनी रणनीति पर दोबारा विचार करना पड़ा.
एक साथ चुनाव लड़ने और दो राज्यों में मिलकर चुनावी रैलियों को संबोधित करने के दावों के विपरीत ये तीनों नेता बिहार और उत्तर प्रदेश में अपनी-अपनी स्थिति मजबूत करने में लगे हैं. वे सिर्फ प्रेस सम्मेलनों में ही अपनी दोस्ती का दिखावा करते हैं. चौथे मोर्चे के पीछे लालू, पासवान और मुलायम का इरादा सिर्फ चुनाव बाद राजनीति में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा पाने का है लेकिन यह लोकसभा चुनावों में इन तीनों नेताओं के प्रदर्शन पर निर्भर करेगा. इस पूरी कसरत का सिर्फ एक ही मतलब है-एक मजबूत मंच तैयार करना ताकि तीनों क्षत्रप चुनाव बाद यूपीए या तीसरा मोर्चा के साथ कड़ा मोल-भाव कर सकें. बिहार में लालू और पासवान के बीच दूरियां खत्म होने व कांग्रेस के साथ कटुता बढ़ने और उधर मुलायम की ओर से भी कांग्रेस पर निशाना साधने से यह बात लगभग स्पष्ट है कि चौथा मोर्चा को चुनाव बाद जरूरत पड़ने पर तीसरा मोर्चा (बसपा को छोड़कर) के साथ जाने में कोई हिचक नहीं होगी.
मुलायम ने ओबीसी के बीच जनाधार बढ़ाने और बसपा को कड़ी चुनौती देने के लिए अपने 40 साल पुराने प्रतिद्वंद्वी भाजपा के पूर्व नेता कल्याण सिंह को गले लगा लिया है. लेकिन उन्होंने जबसे कल्याण सिंह, जो बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं, से हाथ मिलाया, मुसलमान उनसे नाराज होने लगे हैं. सपा के कई मुस्लिम नेताओं ने सपा के खिलाफ बगावत कर दी है और उलेमा व दूसरे मजहबी नेताओं ने सभी चुनाव क्षेत्रों में मुलायम और उनके उम्मीदवारों की मुखालफत करने की घोषणा कर दी है. मुलायम की ओर से आग बुझाने के लिए बार-बार दिए गए स्पष्टीकरण का भी कोई फायदा नहीं हो रहा है, पहले के विपरीत इस बार उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री बचाव की मुद्रा में आ गए हैं.
{mospagebreak}वर्ष 2004 के चुनाव में सपा के पास अब तक सबसे ज्यादा 35 सांसद थे, जिनमें से सात मुसलमान थे. पार्टी ने 68 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे, जबकि बसपा ने 80 उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से 19 को जीत मिली थी. सपा को बड़ा झटका यह लगा है कि उसके करीब दर्जन भर सांसद, जिनमें बेनी प्रसाद वर्मा, राज बब्बर, सलीम शेरवानी और अतीक अहमद जैसे बड़े नेता भी शामिल हैं, उनका साथ छोड़ चुके हैं.
वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा के 31 मुस्लिम उम्मीदवार विजयी हुए थे जबकि सपा के केवल 20 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव जीते थे, जो इस बात का संकेत था कि पार्टी का मुस्लिम आधार खिसक रहा था. मुलायम से मुसलमानों की नाराजगी को देखते हुए मायावती ने आक्रामक रुख अपनाते हुए 17 मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए हैं. उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बसपा प्रमुख उन्हें अपनी ओर खींचने में लगी हैं. यहां तक कि उन्होंने माफिया डॉन मुख्तार अंसारी को, जो वाराणसी से बसपा उम्मीदवार हैं, ''गरीबों का मसीहा'' बता डाला.
अगर चौथे मोर्चा का गठन कुछ दर्शाता है तो वह है समाजवादी परिवार के इन तीनों नेताओं की बेचैनी, जो इस उम्मीद से एक-दूसरे का हाथ थाम रहे हैं कि एक साथ मिलकर वे देश के दो सबसे बड़े राज्यों की 120 सीटों में बड़ा हिस्सा हासिल कर सकें. उन्हें इनमें से करीब 50 सीटें हासिल करने की उम्मीद है ताकि वे अगली सरकार के गठन में मोलभाव कर सकें. उम्मीद से कम सीटें मिलीं तो लालू और मुलायम के सामने हाथ पर हाथ रखकर बैठने के सिवा कोई चारा नहीं रहेगा, जबकि पासवान अपना फायदा देखकर किसी के भी साथ जा सकते हैं.
-साथ में अमिताभ श्रीवास्तव, पटना में और सुभाष मिश्र लखनऊ में
साभार: इंडिया टुडे