असम और मेघालय की सरहद पर बसे गुवाहाटी के बाहरी छोर पर एक पहाड़ी के ऊपर बने इस विशाल बंगले के इर्दगिर्द शाम ढलने के साथ एक अजीब-सा हल्कापन तारी है. आखिरकार फोन की घंटी की घरघराहट से भारी बाड़बंदी वाली इस इमारत की खामोशी अचानक टूटती है. रिसेप्शन पर अधेड़ उम्र की महिला ऐलान करती है कि इस घर के मालिक- यानी असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई- किसी भी क्षण यहां पहुंचने वाले हैं.
मुलाकाती बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं. इनमें ग्राफिक डिजाइनरों की एक टीम है जो चुनाव अभियान का एक मॉड्यूल दिखाने को बेताब है. एक राज्यसभा के सदस्य हैं जिन्होंने तीन दिन पहले मुख्यमंत्री की पार्टी के खिलाफ चुनाव लड़ा और हार गए थे. ये दोनों एक अलग कमरे में बैठे हैं. एक विरोधी पार्टी के दो बीच की पांत के नेता चर्चा में मशगूल हैं कि क्यों गोगोई ही राज्य के लिए अब भी सबसे अच्छा दांव हैं.
गुवाहाटी के राजीव भवन में चुनावी रणनीति पर तीन घंटे चली मैराथन बैठक से लौटे 80 बरस के मुख्यमंत्री तकरीबन दो घंटे से इंतजार कर रहे लोगों को निराश नहीं करते. उनके चेहरे पर थकान का कोई निशान नहीं है. वे अपनी जानी-पहचानी मुस्कान के साथ हरेक का स्वागत करते हैं और सभी तय मुलाकातों को निबटाते हैं. बातचीत के बीच-बीच में वे बराक घाटी और अपने गृह क्षेत्र तिताबोर के तीन दिनों के प्रचार अभियान के कार्यक्रम पर भी नजर डाल लेते हैं. गोगोई कहते हैं, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भले ही मुझे बहुत बूढ़े आदमी के तौर पर पेश करने की कोशिश की हो, मगर असम के लोगों की खातिर काम करने के लिए मुझमें बहुत ऊर्जा है. मैं अभी भी दिल से जवान हूं. इसी वजह से युवा छात्र मेरे साथ सेल्फी लेने उमड़ते हैं.”
हल्की-फुल्की बातों के साथ गंभीर बातों को मिलाने की यह काबिलियत ही है जिसने उनकी छवि एक बेलौस चुनाव प्रचारक की बनाई है. इसी के दम पर वे पिछले 15 साल से असम के मतदाताओं के लाड़ले बने हुए हैं. मगर 2016 की जंग उनके लिए मुश्किल दिखाई देती है. बतौर मुख्यमंत्री तीन कार्यकाल पूरे कर चुके गोगोई न सिर्फ सत्ता विरोधी रुझान का मुकाबला कर रहे हैं, बल्कि एक दशक में पहली बार सच्चे और तगड़े विपक्ष की चुनौती का भी सामना कर रहे हैं. 2006 और 2011 में बीजेपी हाशिए पर थी और असम गण परिषद (एजीपी) बेमानी थी.
एजीपी में नई जान फूंकी जा सकी है या नहीं, यह तो खैर बहस का विषय है. मगर 2014 के लोकसभा चुनाव और 2015 के नगरपालिका चुनावों की कामयाबी के बाद बीजेपी असम में गोगोई युग के लिए बड़ा खतरा बनकर उभरी है. कभी उनके भरोसमंद सहयोगी और 2001 से कांग्रेस की हरेक जीत के मुख्य शिल्पी रहे हेमंत बिस्वा सरमा पाला बदलकर बीजेपी के खेमे में चले गए हैं. उनकी महारत उस पचमेल गठबंधन में भी दिखाई दी, जिसमें वे बीजेपी, एजीपी, बीपीएफ और दूसरे जनजातीय दलों को एक छाते के नीचे ले आए. इससे कांग्रेस और 2005 में अल्पसंख्यक मुसलमानों के हितों की हिफाजत के लिए बनाई गई पार्टी ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआइयूडीएफ) अलग-थलग पड़ गए हैं. यह एआइयूडीएफ ही है जो तय करेगा कि गोगोई चौथी बार सत्ता में लौटते हैं या नहीं.
2005 में उस वक्त एजीपी के सांसद सर्बानंद सोनोवाल की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने विवादास्पद गैर-कानूनी आप्रवासी (न्यायाधिकरण द्वारा निर्धारण) कानून को रद्द कर दिया था. असम की बहुसंख्यक आबादी ने तो इस फैसले का स्वागत किया था, मगर इसने मुस्लिम आबादी के एक तबके में डर पैदा कर दिया था. उन्हें लगने लगा था कि अब उन्हें गैर-कानूनी आप्रवासी करार दे दिया जाएगा.
इसी डर का फायदा उठाकर इत्र के बड़े कारोबारी बदरुद्दीन अजमल ने एआइयूडीएफ की स्थापना की और कांग्रेस के मुस्लिम समर्थकों के एक बड़े हिस्से को हथिया लिया. 2006 में इसने विधानसभा की 10 सीटें जीतीं थीं, जिन्हें 2011 में पार्टी ने 18 पर पहुंचा दिया और सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बन गई. असल में बिहार के चुनाव होने से पहले तक असम के सियासी पंडित इस चुनाव में इसके 30 सीटें जीतने की भविष्यवाणी कर रहे थे. मगर बिहार के बाद पार्टी के समर्थन में गिरावट आई है जिसकी कई वजहें हैं.
गुवाहाटी विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर ननी गोपाल महंत कहते हैं, “बिहार के बाद बीजेपी के हिंदुत्व के एजेंडे का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस को बेहतर ताकत के तौर पर देखा जा रहा है. दूसरे, असहिष्णुता को लेकर चल रही बहसों के दौरान अजमल की खामोशी भी एआइयूडीएफ के खिलाफ गई.” एक वरिष्ठ पार्टी नेता का दावा है कि सत्ता विरोधी रुझान के चलते कई मौजूदा विधायक अपनी सीटें गंवा देंगे.
अपने बुनियादी हिमायतियों के बीच पार्टी की लोकप्रियता में गिरावट को भांपकर अजमल कांग्रेस के साथ गठबंधन करना चाहते थे और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उनके बीच समझौता करवाने की पेशकश भी की. मुस्लिम वोटों को एकजुट करने की गरज से कांग्रेस आलाकमान भी एआइयूडीएफ के साथ गठबंधन चाहता था, मगर गोगोई गठजोड़ के खिलाफ दीवार बनकर खड़े हो गए.
सियासत के मंजे हुए खिलाड़ी गोगाई जानते हैं कि एआइयूडीएफ के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन से हिंदू और जनजातीय मतदाता बीजेपी के हक में फौरन एकजुट हो जाएंगे. मगर ज्यादा बड़ी पेच उन सीटों की तादाद को लेकर फंस गई जिनकी मांग एआइयूडीएफ कर रहा था. अजमल से हाथ नहीं मिलाने की गोगोई की रणनीति तो बाद में सोच-विचार पर सामने आई. बिहार चुनाव नतीजे के फौरन बाद गोगोई ने एजीपी, एआइयूडीएफ और पूर्व सहयोगी बीपीएफ सहित सभी गैर-भाजपाई पार्टियों के एक महाबुजाबुजी (महागठबंधन) की पेशकश की थी, मगर वह नाकाम रहा.
गोगोई के महाबुजाबुजी फॉर्मूले को अपनाकर कांग्रेस और एआइयूडीएफ के खिलाफ गठबंधन बनाने वाले सरमा कहते हैं, “गोगोई और अजमल के बीच पक्के तौर पर तालमेल है और असम को इस नापाक सांठगांठ से बचाने के लिए हम कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. हम अजमल सरीखे बहिरागत को सियासी सत्ता कैसे हासिल करने दे सकते हैं?” गोगोई ने नीतीश कुमार के प्रमुख रणनीतिकार प्रशांत किशोर के साथ कई दौर की बैठकें कीं. मगर दोनों कई मुद्दों पर रजामंद नहीं हो सके और बताया जाता है कि किशोर ने गोगोई को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए रखने के खिलाफ कांग्रेस आलाकमान को आगाह भी कर दिया.
किशोर और दूसरी पार्टियों से झिड़की खाने के बाद मुख्यमंत्री ने अकेले अपने दम पर चुनाव में उतरने का फैसला किया. उन्होंने इंडिया टुडे से कहा, “कांग्रेस फिर 75 सीटें जीतेगी.” तीन कार्यकालों से लगातार मुख्यमंत्री इस बार खुद अपने निर्वाचन क्षेत्र में बीजेपी सांसद और जनजाति नेता कामाख्या प्रसाद तासा से मिल रही चुनौती को लेकर बेपरवाह हैं. जोरहाट में उन्होंने रिपोर्टरों से कहा, “इस बार तो मैं और भी कम चुनाव प्रचार कर रहा हूं. ”
मिशन 75 को पूरा करने के लिए गोगोई की रणनीति सीधी-सादी हैः सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ खुद को असम के भूमि पुत्र के तौर पर पेश करना. उनके मुताबिक, मोदी “हिंदुत्व की असहिष्णु ताकतों की नुमाइंदगी करते हैं, जिन्हें असम की सांस्कृतिक और जातीय विविधता की कोई समझ नहीं है.” अहोम राजा शुकाफा को लेकर अमित शाह के गड़बड़झाले, बांग्लादेश के साथ भूमि समझौते को लेकर मोदी के यू-टर्न से लेकर छेड़छाड़ की गई उस तस्वीर तक, जिसमें बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार सर्बानंद सोनोवाल केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के पैर छूते हुए दिखाई दे रहे हैं, गोगोई बीजेपी को असमिया गौरव को चोट पहुंचाने वाली ताकत के रूप में पेश करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते.
उनके प्रमुख सिपहसालार के विरोधी खेमे में चले जाने की वजह से हर चीज का जिम्मा गोगोई को खुद संभालना पड़ रहा है. 26 मार्च को, जिस दिन मोदी ने असम में तीन रैलियों को संबोधित किया था, गोगोई ने जोरहाट में हड़बड़ी में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई और एक दिन पहले गुवाहाटी में जारी किए गए बीजेपी के विजन दस्तावेज की खामियां और गलतियां गिनाईं. उसी दिन उन्होंने अपने बेटे सांसद गौरव को माजुली में कांग्रेस रैली को संबोधित करने के लिए भेजा, ठीक उस वक्त जब मोदी वहां उतरे थे. गोगोई पुत्र को सुनने के लिए वहां महज मुट्ठी भर लोग ही जमा हुए.
अगले दिन सुबह 10.45 बजे अपने निर्वाचन क्षेत्र में 3,000 लोगों की सभा में उन्होंने बताया कि माजुली- सोनोवाल के निर्वाचन क्षेत्र-में दो वैष्णवी गुरुओं ने बीजेपी की हिंदुत्व की थीम को नकार दिया है. उन्होंने माना कि 24 घंटे पहले मोदी की 50,000 लोगों की विशाल सभा के मुकाबले उनकी रैली फीकी थी, लेकिन दावा किया कि उन्हें छोटी भीड़ में आनंद आता है. उन्होंने इंडिया टुडे से कहा, “मैं तो बस इसलिए आया था क्योंकि मेरे लोगों ने मुझे बुलाया था. मैं छोटी से छोटी सभाओं में भी जाता हूं.”
आप उनसे पिछले 15 साल में उनकी सरकार की उपलब्धियों के बारे में पूछें और वे पलक झपकते ही आपको 1990 के दशक में हिंसा से ग्रस्त एजीपी की हुकूमत की याद दिलाते हैं. वे कहते हैं, “बीजेपी प्रफुल्ल कुमार महंत की बैसाखी के सहारे सत्ता में आने की उम्मीद कर रही है, उन्हीं महंत के सहारे जिनकी अध्यक्षता मंर गुप्त हत्याएं हुई थीं.” तासा हालांकि सहमत नहीं हैं, “तिताबोर के किसी भी कोने में चले जाएं. सड़कों की दयनीय हालत है.”
विकास की यह भीषण बदहाली ही गोगोई के गृह जिले के एक और नामी-गिरामी निर्वाचन क्षेत्र माजुली में सोनोवाल के चुनाव अभियान का केंद्रबिंदु है. सोनोवाल ने इंडिया टुडे से कहा, “आजादी के तकरीबन 70 साल बाद भी नदियों से घिरे इस द्वीप को मुख्य भूभाग से जोडऩे के लिए एक पुल तक नहीं बना.”
जहां उनके डिप्टी सरमा ने इस चुनाव को बीजेपी और उसके सहयोगी दलों की नुमाइंदगी में असम के मूल देशज बाशिंदों और कांग्रेस तथा एआइयूडीएफ की नुमाइंदगी में गैरकानूनी बांग्लादेशी घुसपैठियों के बीच लड़ाई करार दिया है, वहीं 2005 के हीरो सोनोवाल घुसपैठ की समस्या को उठाने से हिचकते हैं. लोकसभा चुनाव की दौड़ में मोदी ने ऐलान किया था कि गैरकानूनी आप्रवासियों को 16 मई, 2014 तक देश छोड़कर जाना पड़ेगा.
दो साल बाद सोनोवाल बांग्लादेश के साथ जमीन की अदला-बदली के मोदी सरकार के समझौते का बचाव कर रहे हैं, जबकि पहले बीजेपी की राज्य इकाई इस फैसले का तीखा विरोध करती रही थी. वे कहते हैं, “दिसंबर 2016 तक बस नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजनशिप तैयार हो जाए, तो सारे गैरकानूनी आप्रवासियों की पहचान हो जाएगी और फिर उनसे सियासी हक छीन लिए जाएंगे. इससे असम के मूल बाशिंदों की हिफाजत होगी.”
असम के धुर पश्चिमी जिले धुबरी में अजमल पहले ही ऐलान कर चुके हैं कि असम में उनकी मदद के बगैर कोई मुख्यमंत्री नहीं बन सकता. दूसरी तरफ अजमल का जिक्र आते ही सौक्वय और शालीन सोनोवाल गोगोई की तरह आक्रामक तेवर अख्तियार कर लेते हैं, “हमारे गठबंधन को दो-तिहाई बहुमत हासिल होगा. हमें सरकार बनाने के लिए किसी की जरूरत नहीं पड़ेगी.”