देश के पहले आम चुनाव से लेकर अबतक 73 साल गुजर चुके हैं. इस बार 18वीं लोकसभा के लिए चुनाव हो रहा है. इस लंबी अवधि में भारत के राजनीतिक नक्शे में आमूल चूल बदलाव आया है. आपको ये जानकार हैरानी हो सकती है कि कभी भारत में भोपाल, बॉम्बे, अजमेर और मद्रास राज्य हुआ करते थे. समय के साथ इन राज्यों की पहचान बदल गई और ये राज्य आज दूसरी पहचान के साथ वजूद में हैं.
भारत के राजनीतिक मानचित्र पर नए राज्यों का उदय हुआ है. पुराने राज्य आकार में छोटे हो गए हैं. लोकसभा की नई सीटें बनी हैं, तो कई पुरानी सीटों का वजूद ही खत्म हो गया है.
यही नहीं चुनाव की प्रक्रिया में भी बदलाव आया है. आजादी के बाद हुए कुछ चुनाव में एक ही लोकसभा सीट से दो-दो सांसद चुने जाते थे. लेकिन सुधार और बदलाव की प्रक्रिया से गुजरता हुआ भारत का लोकतंत्र अब एक सीट से एक ही सांसद पार्लियामेंट भेजता है. आइए नजर डालते हैं पहले चुनाव से लेकर अब भारत के राजनीतिक नक्शे में क्या क्या बदलाव हुआ है.
विंध्य प्रदेश और भोपाल
भारत के लगभग मध्य में स्थित विंध्य प्रदेश में उस वक्त चार लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र हुआ करते थे. लेकिन, वहां सीट 5 थीं. क्योंकि विंध्य प्रदेश के छतरपुर, दतिया, टीकमगढ़ को मिलाकर एक क्षेत्र में दो सीट की व्यवस्था की गई थी. इसके अलावा रीवा, सतना, शहडोल तीन अन्य लोकसभा क्षेत्र थे.
भोपाल के नाम से एक अलग ही राज्य उस समय बनाया गया था. इस राज्य में भी दो लोकसभा क्षेत्र थे... रायसेन और सिहोर. आज रायसेन और सिहोर स्वतंत्र लोकसभा सीटें नहीं हैं, ये दोनों ही सीटें आज विदिशा लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा हैं.
मध्य भारत और मध्य प्रदेश
मध्य भारत, मध्य प्रदेश, भोपाल और विंध्य प्रदेश पहले आम चुनाव के इन तीन राज्यों में आज दो का अस्तित्व नहीं है. 1951 के बाद विंध्य प्रदेश और मध्य भारत को मिलाकर सिर्फ मध्य प्रदेश कर दिया गया. बाद में मध्य प्रदेश से भी अलग कर एक नया राज्य बनाया गया, जो आज छत्तीसगढ़ है. पहले आम चुनाव के वक्त मध्य भारत राज्य में 9 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र था. इसमें इंदौर, ग्वालियर, मुरैना भिंड, गुना, उज्जैन जैसे लोकसभा क्षेत्र शामिल थे. वहीं मध्य प्रदेश का अधिकतर हिस्सा वर्तमान का छत्तीसगढ़ था.
बॉम्बे जो अब गुजरात और महाराष्ट्र में बंट गया
बॉम्बे एक ऐसा राज्य था, जिसमें वर्तमान के गुजरात और महाराष्ट्र की कई लोकसभा सीट थीं. सूरत, बडोदरा, पुणे, जलगांव, सोलापुर, रत्नागिरी, बॉम्बे सिटी (मुंबई), ऐसी कई लोकसभा सीटों को मिलाकर बॉम्बे स्टेट का गठन हुआ था. इस राज्य में कुल 37 लोकसभा सीट हुआ करती थीं. उस वक्त गुजरात और महाराष्ट्र अस्तित्व में नहीं आए थे.
PEPSU, पंजाब और हिमाचल प्रदेश
पीईपीएसयू यानी पटियाला और ईस्ट पंजाब स्टेट्स यूनियन...इस प्रदेश में कुल चार लोकसभा सीट थीं. इसमें संगरूर, पटियाला, कपूरथला भठिंडा और महेंद्रगढ़ शामिल हैं. वहीं 1951 के पंजाब में कुल 15 लोकसभा सीट थीं. इसमें वर्तमान के हरियाणा और हिमाचल प्रदेश की कुछ सीट या उनके हिस्से शामिल थे. हिमाचल प्रदेश उस वक्त भी अस्तित्व में था, लेकिन वहां सिर्फ दो ही लोकसभा क्षेत्र थे, एक मंडी महासू और दूसरा चंबा सिरमौर.
सौराष्ट्र और अजमेर
उस वक्त एक और राज्य था सौराष्ट्र , जो वर्तमान के राजस्थान और गुजरात के कुछ हिस्सों को मिलाकर बनाया गया था. इस प्रदेश में कुल छह लोकसभा क्षेत्र थे. इसमें झालावाड़, गोहिलवाड़, मध्य सौराष्ट्र, सौराठ जैसे लोकसभा क्षेत्र थे. वहीं उस समय एक और छोटा सा राज्य था, जो आज राजस्थान का हिस्सा है. इसका नाम अजमेर था. अजमेर में भी दो लोकसभा सीटें हुआ करती थीं, एक अजमेर साउथ और दूसरा नॉर्थ.
हैदराबाद, मैसूर, मद्रास और त्रावणकोर कोचीन
वहीं दक्षिण में उस वक्त सिर्फ चार राज्य थे. इनमें हैदराबाद, मैसूर, मद्रास और त्रावणकोर कोचीन शामिल थे. हैदराबाद में 21 लोकसभा क्षेत्र और 25 सीटें थीं, क्योंकि 4 ऐसे निर्वाचन क्षेत्र थे, जहां दो-दो सीटों का प्रावधान किया गया था. वहीं मैसूर में भी 9 लोकसभा क्षेत्र और 11 सीटें थीं. मद्रास में सबसे ज्यादा 62 क्षेत्र और 75 सीटें थीं. वहीं त्रावणकोर कोचीन में भी 11 निर्वाचन क्षेत्र और 12 सीटें थीं. इस तरह उस वक्त केरल, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और तेलंगाना का अस्तित्व ही नहीं था.
जब एक सीट से चुने जाते थे दो सांसद
आजकल एक सीट से एक ही सांसद का चुनाव होता है. लेकिन जब देश 1951-52 में पहली बार लोकतांत्रिक प्रक्रिया से गुजरा तो कुछ सीटें ऐसी थीं जहां एक ही सीट से दो सांसद चुनने का प्रावधान था. पहले दो चुनावों तक ये नियम कायम रहा. 1951-52 के चुनाव में कुल 89 लोकसभा सीटों से 2-2 सांसद जीतकर लोकसभा पहुंचे थे. इनमें से एक सांसद जनरल कैटेगरी का था तो दूसरा सांसद अनुसूचित जाति का था.
1957 में जब दूसरी बार लोकसभा चुनाव हुआ तो यहां 91 सीटें ऐसी थी जहां से दो-दो सांसदों का चुनाव हुआ.
दरअसल समाज के कमजोर तबके को प्रतिनिधित्व देने के लिए एक सीट पर दो-दो सांसदों का फॉर्मूला अपनाया गया था. इस दौरान एक मतदाता को वो वोटर देने का अधिकार था. तीसरे लोकसभा चुनाव से इस व्यवस्था को बंद कर दिया गया.