आज मिर्ज़ा ग़ालिब का 221वां जन्मदिन है. उर्दू-फ़ारसी के वह एक महान शायर थे. उनके जैसा शायर न कोई था और न ही कोई आया. इस महान शायर का जन्म 27 दिसंबर 1797 में उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था. उनका पूरा नाम असदुल्ला खां गालिब था. यहां पढ़ें गालिब के मशहूर शेर .
1. हर एक बात पे कहते हो तुम, कि तू क्या है,
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है...
2. बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'
कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है
3. मत पूछ कि क्या हाल है, मेरा तेरे पीछे,
तू देख कि क्या रंग है तेरा, मेरे आगे...
4. हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
5. न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता...
6. 'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र ओ शब-ए-माहताब में
7. रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल,
जो आंख ही से न टपका, तो वो लहू क्या है...
8. हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
9. आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती
10. वो आए घर में हमारे ख़ुदा की कुदरत है
कभी हम उन को कभी अपने घर को देखते हैं
निधन
हिंदुस्तानी जमीन पर जन्में इस नायाब शार की मौत 15 फरवरी, 1869 को हो गई. उनका मकबरा दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन इलाके में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास बना हुआ है.
उन्होंने फारसी, उर्दू और अरबी भाषा की पढ़ाई की थी. उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग खान अहमद शाह के शासन काल में समरकंद से भारत आए थे. उन्होने दिल्ली, लाहौर व जयपुर में काम किया और अन्ततः आगरा में बस गए. उन्होंने तीन भाषाओं में पढ़ाई की थी, जिसमें फारसी, उर्दू, अरबी आदि शामिल है.
सच तो ये है कि ग़ालिब कहीं गए ही नहीं, वह आज भी हमारी रगों में अपनी शायरी के साथ दौड़ते रहते हैं. हर नौजवान उनकी शायरी पढ़कर ही मोहब्बत के गलियारों में झूमता है.