सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के पदों के लिए तीन साल की वकालत प्रैक्टिस को अनिवार्य कर दिया है. इस एक फैसले ने न्यायिक सेवा की राह में एक नया मोड़ ला दिया है. यह नियम जो 2002 में हटाया गया था, अब फिर से लागू हो गया है. इस फैसले को लेकर लॉ स्टूडेंट्स और न्याय क्षेत्र के विशेषज्ञ क्या सोचते हैं, आइए जानते हैं.
लॉ स्टूडेंट्स बोले- कोर्ट का रियल एक्सपोजर बहुत जरूरी
BA LLB के थर्ड इयर स्टूडेंट प्रणव सैनी कहते हैं कि यह नियम थोड़ा चुनौतीपूर्ण है. लॉ का कोर्स पहले ही 5 साल का होता है और अब इसके बाद 3 साल की प्रैक्टिस का मतलब है कुल 8 साल. यह समय काफी लंबा है. लेकिन दूसरी तरफ, बिना रियल केस हैंडल किए अगर कोई जज बन जाता है तो उसके फैसलों में गहराई की कमी हो सकती है. प्रणव कहते हैं कि मुझे लगता है कि यह नियम लंबे समय में फायदेमंद होगा बशर्ते सही ट्रेनिंग और सपोर्ट मिले.
वहीं LLB (Hons.) की छात्रा अदिति गौड़ा कहती हैं कि जब मुझे पता चला कि अब डायरेक्ट ज्यूडिशियल एग्जाम नहीं दे सकते तो थोड़ा निराशा हुई क्योंकि मैं पहले से ही तैयारी कर रही थी. लेकिन सीनियर वकीलों से बात करने के बाद समझ आया कि कोर्ट का रियल एक्सपोजर बहुत जरूरी है. यह सिस्टम लंबे समय में ज्यूडिशियरी को मजबूत करेगा. बस स्टूडेंट्स को धैर्य रखना होगा और प्रैक्टिस के दौरान प्रॉपर गाइडेंस की जरूरत होगी.
LLB फाइनल ईयर की छात्रा नेहा का कहना है कि मुझे लगता है कि तीन साल की प्रैक्टिस का नियम एक सकारात्मक कदम है. कोर्ट में काम करने का अनुभव न होने पर वास्तविक समस्याओं को समझना मुश्किल होता है. जब हम जज बनेंगे तो ग्राउंड लेवल का यह अनुभव निष्पक्ष और सटीक फैसले देने में मदद करेगा. हां, करियर शुरू करने में थोड़ा समय जरूर लगेगा लेकिन इससे जजों की क्वालिटी बेहतर होगी.
LLB (Hons.) की छात्रा वंशिका शुक्ला ने भी इस फैसले पर अपनी राय रखते हुए कहा कि शुरुआत में ये तीन साल की प्रैक्टिस की अनिवार्यता हमारे जैसे स्टूडेंट्स के लिए,जो दूसरे या तीसरे साल में हैं या इस साल या अगले साल ग्रेजुएट होने वाले हैं. हमारे लिए थोड़ी मुश्किल हो सकती है क्योंकि इससे ज्यूडिशियरी में प्रवेश का समय बढ़ जाएगा. फिर भी मेरा मानना है कि भविष्य के जजों को वास्तविक कोर्टरूम का अनुभव बहुत जरूरी है इससे उनके फैसले अधिक व्यावहारिक होंगे.
न्यायाधीशों और विशेषज्ञों ने इस फैसले को बताया जरूरी
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि पिछले 20 सालों में बिना प्रैक्टिस के फ्रेश लॉ ग्रेजुएट्स की नियुक्ति सफल अनुभव नहीं रहा और इससे कई समस्याएं पैदा हुईं. कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि जजों को पहले दिन से ही लोगों के जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति से जुड़े मामलों को संभालना होता है जिसके लिए किताबी ज्ञान या प्री-सर्विस ट्रेनिंग पर्याप्त नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट के वकील और पूर्व जज रिशभ गांधी ने इस फैसले का समर्थन करते हुए मीडिया से कहा था कि मैंने उन जजों के साथ काम किया है जो सीधे लॉ स्कूल से आए थे. कई बार उनके पास प्रैक्टिकल एक्सपोजर की कमी साफ दिखती थी.ये नियम ज्यूडिशियरी में प्रोफेशनलिज्म को बढ़ाएगा.
वकीलों ने भी इसे बताया जरूरी
कड़कड़डूमा कोर्ट दिल्ली के सीनियर एडवोकेट मनीष भदौरिया का कहना है कि कोर्टरूम का अनुभव जजों के लिए बहुत जरूरी है क्योंकि यह आपको कानून की किताबी जानकारी को प्रैक्टिकल लाइफ में लागू करने की क्षमता देता है. बिना प्रैक्टिस के जज बनने वाले कई बार जटिल केसों को समझने में चूक जाते हैं. ये नियम सुनिश्चित करेगा कि ज्यूडिशियरी में आने वाले लोग न केवल कानून जानते हों बल्कि कोर्ट की कार्यप्रणाली और लिटिगेंट्स की समस्याओं से भी वाकिफ हों.
लखनऊ हाईकोर्ट के एडवोकेट केके पांडेय का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ज्यूडिशियरी की गुणवत्ता को बढ़ाने की दिशा में एक मील का पत्थर है. तीन साल की प्रैक्टिस का अनुभव न केवल कानूनी समझ को गहरा करता है, बल्कि यह भी सिखाता है कि कोर्ट में वकील और लिटिगेंट्स के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए. उन्होंने कहा कि हालांकि ये नियम फर्स्ट-जेनरेशन वकीलों और आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए चुनौती हो सकता है. इसके लिए सरकार को प्रैक्टिस के दौरान स्टाइपेंड या फाइनेंशियल सपोर्ट की व्यवस्था करनी चाहिए.
कैसे लिया गया ये फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला कई हाई कोर्ट्स की राय के आधार पर लिया जिन्होंने ताजा ग्रेजुएट्स की नियुक्ति को प्रतिकूल बताया था. सिक्किम और छत्तीसगढ़ को छोड़कर ज्यादातर हाई कोर्ट्स ने तीन साल की प्रैक्टिस को अनिवार्य करने की वकालत की थी. कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यह नियम केवल भविष्य की भर्तियों पर लागू होगा और पहले से शुरू हो चुकी प्रक्रियाओं पर असर नहीं डालेगा. इसके अलावा, लॉ क्लर्क के रूप में काम करने का अनुभव भी तीन साल की प्रैक्टिस में गिना जाएगा.
गौरतलब है कि इस नियम से लॉ स्टूडेंट्स के लिए ज्यूडिशियल सर्विस में प्रवेश की राह निश्चित रूप से लंबी हो जाएगी. खासकर उन लोगों के लिए जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं या फर्स्ट-जेनरेशन वकील हैं, क्योंकि प्रैक्टिस के शुरुआती सालों में आय सीमित हो सकती है.