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'जब बॉडी टुकड़ों में आती है तो दिल फट जाता है.... कोई सैलरी नहीं है!' ऐसी होती है कब्र खोदने वालों की जिंदगी

Grave Digger Story: रियाजुद्दीन पिछले 7-8 सालों से कब्र खोदने का काम कर रहे हैं. वे बताते हैं कि इस काम में उन्हें किस तरह की मुश्किलें आती हैं और इस काम से वो कितना कमा लेते हैं....

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रियाज़ुद्दीन पिछले क़रीब 7-8 सालों से ये काम कर रहे हैं. (Photo: AI Representation, Meta AI)
रियाज़ुद्दीन पिछले क़रीब 7-8 सालों से ये काम कर रहे हैं. (Photo: AI Representation, Meta AI)

'मुर्दों को देखना तो हर रोज़ काम है, लेकिन जब किसी मासूम का जनाज़ा यानी शव आता है तो हमारा भी दिल फट सा जाता है... मगर हम करें तो क्या? हमारा तो यह काम है. सुंदर सा चेहरा, छोटे-छोटे हाथ, लेकिन अल्लाह की मर्ज़ी है तो क्या ही करें...', ये शब्द रियाज़ुद्दीन के हैं, जो दुनिया को अलविदा कह गए लोगों को दफ़नाने के लिए क़ब्र तैयार करते हैं. इस्लाम के मुताबिक़, क़ब्र दुनिया में आंखें खोलने वाले लोगों की आख़िरत का यह पहला मुकाम होती है.

रियाज़ुद्दीन, दिल्ली के बाटला हाउस के एक क़ब्रिस्तान में क़ब्र खोदने के लेकर दफ़नाने तक की रिवायतों यानी परपंपराओं को पूरा करने का काम करते हैं. ऐसे में जानते हैं कि 'मौत' के क़रीब रहने वाले रियाज़ुद्दीन का क्या काम है, कितना पैसा मिलता है और हर रोज़ किस तरह के मार्मिक लम्हों से उन्हें गुज़रना पड़ता है...

रियाज़ुद्दीन पिछले क़रीब 7-8 सालों से ये काम कर रहे हैं और उससे पहले उनके वालिद (पिता) ये काम किया करते थे. वालिद साहब के गुज़र जाने के बाद इस काम की ज़िम्मेदारी रियाज़ुद्दीन पर आ गई. उनका काम किसी का इंतिक़ाल हो जाने के बाद क़ब्रिस्तान में अदा की जाने वाले रस्मों से जुड़ा है, जिसमें क़ब्र खोदने से लेकर अन्य सामान की व्यवस्था करना शामिल है. अपने काम को लेकर रियाज़ुद्दीन कहते हैं कि पहले वालिद साहब कर रहे थे, तो अब हम भी कर रहे हैं. मैं और मेरे साथ कुछ मज़दूर मिलकर ये काम करते हैं.

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वे बताते हैं, 'कई बार कुछ ऐसी लाशें आती हैं, जिनका सिर कटा होता है, हाथ अलग होता है, पूरा शरीर टुकड़ों में होता है. उस वक़्त ये सब देखकर दिल फट जाता है. उस वक़्त शरीर के टुकड़ों को बांधकर कपड़े में लपेटकर दफ़ना देते हैं. ऐसा ही उस वक़्त होता है, जब किसी मासूम को दफ़नाने के लिए लाया जाता है, उस वक़्त उसका सुंदर सा चेहरा देखकर दिल फट जाता है. मगर क्या करें, काम है. हर कोई नहीं कर पाता, इसे देखकर डर जाता है.'

कितना पैसा मिलता है?

रियाज़ुद्दीन कहते हैं, इस काम के लिए सरकार या कोई कमेटी से कुछ पैसा नहीं मिलता है. हमें पैसे जिनके यहां इंतिक़ाल हुआ है, उनके परिजन ही देते हैं. अगर कोई लावारिस लाश होती है या फिर कोई ग़रीब शख़्स होता है, तो हम इसके लिए पैसे भी नहीं लेते हैं. वैसे भी हर क़ब्र या महीने के हिसाब से कोई पैसा बंधा नहीं है. हमें एक क़ब्र के लिए 2 इंच के 16-17 पटरे और बल्लियां आदि लगती है. इनके जो पैसे लगते हैं, उस हिसाब से ही हमें पैसे मिल जाते हैं. इसमें हमें लेबर को भी देने होते हैं.

हर रोज़ कितनी क़ब्र तैयार करते हैं?

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रियाज़ुद्दीन बताते हैं, 'ये कोई फ़िक्स नहीं रहता है. कई बार एक-एक हफ़्ते तक एक भी इंतिक़ाल नहीं होता और कई बार एक दिन में ही 4-5 क़ब्र खोदनी पड़ जाती है. ऐसे में ये तय नहीं है.

कोरोना का हाल मत पूछिए...

क़ब्र खोदने के अपने अनुभव शेयर करते हुए रियाज़ुद्दीन थोड़ी देर रुकते हैं और कहते हैं कि उस वक़्त का हाल तो आप पूछिए ही मत. उस वक़्त बहुत बुरा हाल था, हालात ये थे कि क़ब्रिस्तान में जगह ख़त्म हो गई थी. एक कए बाद एक मिट्टी के लिए कोई ना कोई आता रहता था. दफ़नाने के लिए जगह ख़त्म हो गई थी और मंज़र रोंगटे खड़े कर देने वाला था. उस वक़्त तो पन्नी में लिपटे शव आते थे और सीधे कब्र में ही लेटाया जाता था. उस वक़्त हम लगातार काम कर रहे थे और ख़ुद के अल्लाह को भरोसे छोड़ रखा था.

निकल जाती हैं हड्डियां

रियाज़ुद्दीन ने बताया कि वैसे तो 4-5 साल बाद क़ब्र में कोई दूसरा लेट जाता है. जब किसी एक क़ब्र पर दूसरी कब्र खोदी जाती है तो कई बार ऐसा होता है कि पहली बार वाली क़ब्र में से हड्डियां निकल जाती हैं. इस स्थिति में क़ब्र को और भी गहरा कर दिया जाता है. फिर उनकी हड्डियां को वहां दफनाकर उस पर दूसरे को लेटाया जाता है.

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'पहले मुर्दे से डर लगता था...'

जब हम बचपन में जाते थे, तो मुर्दे को देखकर डर जाते थे, लेकिन अब आदत हो गई है. जो काम करता है उसे आदत पड़ जाती है. शुरू में डर लगता था.

क़ब्र खोदने में क्या मुश्किलें आती हैं?

रियाज़ुद्दीन ने बताया कि क़ब्र खोदने का काम भी उतना आसान नहीं है. बारिश के वक़्त काफी मुश्किल होती है. उस वक़्त पहले तिरपाल से तंबू जैसा बनाना होता है और उसके नीचे क़ब्र खोदते हैं. इसके साथ ही इसमें पटरों को सही से लगाना होता है, वरना क़ब्र के बैठने का डर रहता है. ऐसे में बारिश के वक़्त इसका ख़ास ख़याल रखना होता है. क़ब्र खोदते वक़्त ये ख़याल रखना होता है कि ये क़रीब 4-5 फीट गहरी हो, उसका अंदाज़ा ऐसा लगाया जाता है कि इसमें इतनी गहराई होनी चाहिए कि मुर्दा उठकर बैठ जाए.

समाज में सब एक जैसे ही हैं...

रियाज़ुद्दीन कहते हैं, 'सही बात ये है कि हम कभी भी भेदभाव नहीं करते. सब एक साथ रहते हैं. हमारे लिए कोई भी ग़लत नहीं सोचता है. ऐसा कोई नहीं सोचता है कि ये मुर्दे दबाता है, तो उसका पानी नहीं पीना. ऐसा कुछ नहीं है.'

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