कोरोना की मार के चलते पूरे देश में लॉक डाउन लागू है. ऐसे में हजारों प्रवासी मजदूर अलग-अलग राज्यों से अपने घरों की तरफ पैदल ही निकल पड़े हैं. उनके सामने कोरोना अकेली परेशानी नहीं बल्कि भूख भी इनके लिए जानलेवा साबित हो रही है. ऐसे में सवाल उठता है कि बड़े शहरों को और बड़ा बनाने वाले ये मज़दूर क्या यूं ही हमेशा बेबस बने रहेंगे. जिस देश में हर छोटी से छोटी और गैरज़रूरी चीज़ों के लिए भी कानून बन जाता है, तो क्या उस देश में इन मज़दूरों की सुरक्षा और अधिकारों के लिए कोई कानून नहीं होने चाहिए? वैसे कहने को इन प्रवासी मजदूरों के हितों और संरक्षण के लिए एक नहीं बल्कि दो-दो कानून बने हैं. मगर लॉकडाउन के दौरान इन दोनों कानूनों की धज्जियां उड़ रही हैं.
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अंतरराज्यीय प्रवासी मज़दूर अधिनियम 1979
पहला कानून है अंतरराज्यीय प्रवासी मज़दूर अधिनियम जो 1979 में बनाया गया और दूसरा स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट जो साल 2014 में बना. सबसे पहले बात करते हैं अंतरराज्यीय प्रवासी मज़दूर अधिनियम की. फर्ज़ कीजिए कि अगर कोई कंपनी या फैक्ट्री दूसरे राज्यों से आए मज़दूरों को काम पर रखती है और ऐसे मज़दूरों की तादाद 5 से या उससे ज़्यादा है तो ये अधिनियम उस कंपनी या फैक्ट्री पर लागू होगा.
हालांकि ज़्यादातर कंपनियां इससे बचने के लिए सीधे तौर पर नौकरियां ना देकर एजेंसियों या कांट्रैक्टरों के ज़रिए भर्तियां कराती हैं. ताकि वो खुद को इस कानून से बचा सकें और कांट्रैक्टर इस कानून से बचने के लिए 11-11 महीने का कॉन्ट्रैक्ट करते हैं ताकि वो इसके दायरे में ना आ सकें. इस तरह किसी कंपनी में काम करके भी ये अंतरराज्यीय प्रवासी मज़दूर उस कंपनी का हिस्सा नहीं बन पाते हैं और उन तक सरकार की योजनाओं का लाभ नहीं पहुंचता.
स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट 2014
इस कानून के तहत सड़कों पर दुकान लगाने वाले जिन्हें स्ट्रीट वेंडर्स कहते हैं. उन्हें इसका लाइसेंस दिया जाएगा ताकि उनका रिकॉर्ड सरकार के पास हो. जिसमें वेंडर का नाम, पता और वेंडिंग की जगह होती हैं. इस नियम के तहत ये सुनिश्चित किया जाता है कि उन्हें कोई परेशान न करे. हालांकि हकीकत ये है कि देश में जितने लाइसेंसी स्ट्रीट वेंडर्स हैं उससे कई गुना ज़्यादा तादाद में गैर लाइसेंसी स्ट्रीट वेंडर्स हैं जो दूसरे राज्यों से आए हुए हैं.और पुलिस के रहमो-करम या कहें उन्हें खुश कर यहां-वहां अपनी दुकान लगाते हैं. ऐसे लोगों का सरकार के पास कोई रिकार्ड नहीं.
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कानून इन मजदूरों के साथ नहीं. शहर ने साथ भी इन लोगों का साथ छोड़ दिया. सेठों ने भी इनकी तरफ से मुंह फेर लिए. हाकिम के पास इनके लिए वक्त नहीं तो फिर ये सब क्या करें. बस इसीलिए ये भूखे प्रवासी मजदूर पूरे देश में बदहवास घूम रहे हैं. इन्हें सामने मौत नाचती दिखाई दे रही है. इनके और मौत के बीच एक जंग सी छिड़ी है. ये चाहते हैं कि अब अगर मरना ही है तो अपने गांव जाकर मरें. लेकिन मौत चाहती है कि जब मारना ही है, तो यहीं क्यों नहीं. अभी क्यों नहीं.