धारवाड़ से लेकर रांची और रांची से लेकर जमशेदपुर तक आस्था और परंपरा के नाम पर ऐसी खौफनाक तस्वीरें सामने आ रही हैं कि यकीन ही नहीं होता कि हम 21वीं सदी में जी रहे हैं. ऐसे धधकते शोले, जिनके करीब जाने भर से झुलस जाएं, ऐसे तेज कोड़े, जिसकी एक मार से चमड़ी उधड़ जाए. लोग ना सिर्फ उन शोलों से खेल रहे हैं, बल्कि कोड़ों की मार खुशी-खुशी झेल रहे हैं.
अंगारों से खेलने की इस अजीबोगरीब रवायत को समझने के लिए कर्नाटक के धारवाड़ जिले के गांव बीरवल्ली की घटना का जिक्र अहम है. इस गांव में भगवान कमलेश्वर का एक मंदिर है. लेकिन दूसरे देवताओं की तरह भगवान कमलेश्वर को प्रसाद के तौर पर कुछ और नहीं बल्कि सिर्फ शोले चढ़ाए जाते हैं. इस गांव के लोग हर साल उगादी के पांचवें दिन इन्हीं शोलों से होली खेलने की रवायत निभाते आ रहे हैं.
अंगारों पर दौड़ते हुए शोलों की बारिश
शोलों की इस होली के लिए साल भर तैयारियां चलती हैं. रंग-बिरंगी रौशनियों से मंदिर की सजावट के साथ-साथ भगवान कमलेश्वर, तवरगेरी और यरिमली की पालकियां निकाली जाती हैं लेकिन इसी बीच लकड़ियों की होली जलाई जाती है और जैसे ही ये लकड़ियां धधकते शोलों में तब्दील होती हैं, अंगारों से होली की शुरुआत हो जाती है. सबसे पहले मंदिर के पुजारियों को नंगे बदन आग के ढेर के पास बिठा कर अंगारों से नहलाया जाता है. फिर जैसे ही स्नान-ध्यान की प्रक्रिया पूरी होती है, पुजारी पास खड़े लोगों पर अपने हाथों से अंगारे ऐसे देते हैं जैसे पानी का चढ़ावा दे रहे हों. फिर तो देखते ही देखते गांव के तमाम छोटे-बड़े लोग नंगे बदन और नंगे पांव इन अंगारों पर दौड़ते हुए एक-दूसरे पर शोलों की बारिश शुरू कर देते हैं.
कोड़े मारने की भी परंपरा
गांव के लोगों की मानें तो आग से होली खेलने की ये रवायत यहां महाराज विक्रमादित्य के जमाने से ही चली आ रही है लेकिन कर्नाटक से दूर झारखंड के रांची में अंगारों पर नंगे पांव चलने और जमशेदपुर में खाली बदन पर कोड़ों की मार सहने की ऐसी ही दूसरी रवायतें भी अंधविश्वास की कम बानगी नहीं हैं.
बारिश के लिए अंगारों पर आस्था
झारखंड की राजधानी रांची के नजदीक हर साल मंडा पूजा के मौके पर मेला लगता है और इस मेले में भगवान शंकर को खुश करने के लिए लोग यूं ही सालों-साल अंगारों पर चलते और दौड़ते रहे हैं तो इस साल भी इस झुलसाती गर्मी के बीच जब मंडा मेले का आयोजन हुआ तो बड़ी तादाद में इस मंदिर के पास लोग महादेव को खुश करने के लिए अंगारों पर चलने चले आए. मेले के आयोजकों ने इसके लिए पूरी तैयारी की थी. पहले लकड़ी के धधकते कोयलों की क्यारी बनाई गई और फिर पूजा-अर्चना के बाद एक-एक कर अंगारों की क्यारी से नंगे पांव गुजरने का सिलसिला शुरू हुआ. इसके बाद तो एक-एक कर सैकड़ों लोग हाथ जोड़े ऊपरवाले से बारिश की मुराद मांगते हुए अंगारों से चल निकले.
महिला हो या बच्चे, सब खा रहे हैं कोड़े
वहीं उधर रांची से थोड़ी ही दूर झारखंड के जमशेदपुर में लोग बोडम पूजा के दौरान खुद पर कोड़े बरसा रहे थे. ढोल-ताशों की आवाज के बीच पारंपरिक तरीके से पूजा-पाठ के बाद नाचते-झूमते लोगों ने जब खुद पर और दूसरों पर कोड़ों की बारिश शुरू की, तो देखनेवालों का कलेजा मुंह को आ गया. इस कोड़ा मार पूजा के लिए भी खासी तैयारियां की गई थीं. पूजा से पहले रस्सी से बने इन कोड़ों को पानी में अच्छी तरह भिगो लिया गया, ताकि इन वजन बढ़ जाए और इनके वार से चोट भी अच्छी लगे. और फिर शुरू हई नंगे बदन कोड़ों की ऐसी बारिश, जो देर तक चलती रही. यकीनन कोड़ों की वार से लोगों को तकलीफ भी होती, लेकिन ढोल-ताशों की आवाज के बीच तमाम लोगों की चीखें जैसे गुम हो कर रह गईं. खास बात ये कि बोडम पूजा में होनेवाली कोड़ों की इस बारिश से अंगारों की होली की तरह महिलाओं को अलग नहीं रखा गया, बल्कि इसमें तो महिलाओं और बच्चों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और कोड़ों की मार खाते रहे.
पत्थरों से लहूलुहान होता जिस्म
मध्यप्रदेश के छिंडवाड़ा में 3 सौ से भी ज्यादा सालों से एक खूनी रवायत निभाई जा रही है. नाम है गोटमार. आस्था के नाम पर होनेवाले इस खूनी खेल में एक-दूसरे पर पत्थर बरसा कर हर साल ना मालूम कितने ही लोग लहूलुहान हो जाते हैं. लेकिन ये सिलसिला है कि बदस्तूर जारी है.
विदेशों में भी हैं ऐसी परंपराएं
ऐसा नहीं है कि जान-जोखिम में डालने वाली परंपरा सिर्फ हिंदुस्तान में हैं. बल्कि दुनिया के कई मुल्कों में आग से खेलने की रवायत चली आ रही है. फिर चाहे वो जापान हो, मलेशिया या फिर आयरलैंड. जापान की राजधानी टोक्यो का फायर फेस्टीवल भी कुछ ऐसा ही है, जहां हर साल बुजुर्ग और जवान नंगे पांव अंगारों पर चलते हैं. जबकि आयरलैंड के डेबरा में अंगारों के बीच ये लोग इतनी खुशी से इस लिए गुजर रहे हैं, जैसे उन्हें ऐसा करने में मजा आ रहा हो. लेकिन यहां ऐसा करने के पीछे मकसद चैरिटी का है और ये चैरिटी त्वचा रोगियों की मदद के लिए है.