चंबल... ये वो नाम है जिसका जिक्र आते ही आंखों के सामने डाकुओं की तस्वीर तैरने लगती है. तीन तीन राज्यों की सीमाओं में सैकड़ों मील के दायरे में फैला ये वो बीहड़ है जिसके दामन में जुर्म की दुनिया के नामालूम कितने ही खूनी किस्से दफ्न हैं. कहते हैं कि चंबल के पानी की तासीर ही कुछ ऐसी है कि लोगों को बगावत का परचम बुलंद करने और हाथों में बंदूक उठाने के लिए मजबूर कर देता है. मगर आजकल चंबल अचानक खाली हो गया है. जानते हैं क्यों? क्योंकि चुनाव आ गया है.
दरदरी मिट्टी के ऊबड़-खाबड़ टीले. घनी कटीली झाड़ियां और बल खाती नदी. जी हां, ये चंबल है. वही चंबल जिसका सिर्फ नाम जुबान पर आते ही अच्छे-अच्छों के पसीने छूट जाते हैं. जेहन में खूंखार डाकू और डाकुओं के खौफनाक अड्डे तैर जाते हैं. ना जाने चंबल के इस बीहड़ के किस कोने में कौन डाकू छुपा हो? ना जाने कब किधर से अचानक गोलियां बरसने लगे? आम तो आम इंसान... खुद पुलिसवाले भी बगैर पलटन के चंबल मे घुसने से पनाह मांगते हैं.
मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश की सीमाओं में समाई में चंबल की घाटी पिछले कई सौ सालों से समाज और कानून के लिए सिर दर्द बनी हुई है.
पार्टियों के चुनावी प्रचार में जुटे हैं चंबल के डाकू
मगर इन दिनों चंबल खाली है. जानते हैं क्यों? क्योंकि चंबल पर राज करने वाले डाकू फिलहाल देश पर राज करने वाली अगली सरकार का भविष्य तय करने की मुहिम में जुटे हुए हैं. अब आप सोच रहे होंगे कि भला चंबल के डाकुओं का चुनाव से क्या वास्ता? तो जनाब सियासत की बिसात पर आज के डाकू भी खद्दरधारियों के मोहरे बन चुके हैं. दरअसल चंबल के डाकू राजनीतिक पार्टियों से पैसे लेकर जोर-शोर से उनके चुनावी प्रचार में जुटे हुए हैं. और इसीलिए उन्होंने चुनाव तक अपने असली पेशे यानी डाकाजनी से किनाराकशी कर ली है.
डाकुओं का सियासत से कोई नया रिश्ता नहीं
वैसे चंबल के डाकुओं का सियासत से कोई नया रिश्ता नहीं है. चंबल के डाकुओं की धमक चुनाव में हमेशा से सुनाई पड़ती रही है. दरअसल सियासी पार्टियों की मतदाताओं से जहां दाल नहीं गलती वहां वो ताकत और दहशत का सहारा लेते हैं. चुनाव से करीब महीने भर पहले ही नेताओं के इशारे पर चंबल के डाकू अपने-अपने इलाको में उम्मीदवारों के नाम का फऱमान जारी कर देते हैं. फिर भला किसकी हिम्मत है जो बुलेट के सामने बैलेट पर भरोसा करे. महीने भर के चुनावी प्रचार के एवज़ में डाकुओं को जो पीस मिलती है वो जान जोखिम में डाल कर डाकाज़नी से होने वाली कमाई से कहीं ज्यादा होती है.
चंबल बनने की कहानी की जड़ में ही सियासत
वैसे चंबल के कुख्यात चंबल बनने की कहानी की जड़ में ही सियासत है. करीब डेढ हज़ार साल पहले यूनानी सम्राट सिकंदर की हुकूमत के खिलाफ इस इलाके के लोगों ने बागियों के तौर पर अपना पहला ऑपरेशन चंबल से ही शुरू किया था. बस तभी से चंबल बागियों का बसेरा बन गया. इसके बाद जब-जब हुकूमत के खिलाफ बगावत का परचम बुलंद हुआ तो इस इलाके बागियों ने सीधे चंबल का रुख किया.
यहां आपको बताएंगे कि आगामी लोकसभा चुनाव में चंबल और चंबल के डाकू क्या भूमिका निभाने जा रहे हैं. किसको धमका रहे हैं किसको जिता रहे हैं और किसको हरा रहे हैं?
चंबल का राजनीति से बड़ा पुराना और गहरा रिश्ता रहा है. ऐसा कोई चुनाव नहीं हुआ है जिसमें चंबल के डाकुओं ने हिस्सा ना लिया हो. चाहे खुद चुनाव लड़ कर या फिर चुनावी मैदान में उतरे उम्मीदवारों के समर्थन या विरोध में फरमान जारी कर. और इस बार फिर तस्वीर वैसी ही है.
पूरा मुल्क बेशक लोकतंत्र के सबसे बड़े त्योहार यानी चुनाव के शोर से सराबोर हो लेकिन बुंदेलखंड इलाके के बांदा जिले के नवगांवा गांव में पूरे देश से अलग दिन के उजाले में भी सन्नाटा पसरा हुआ है. गांव में ना तो बुजुर्गों की चौपाल लगती हैं और ना ही खुलेआम बच्चे खेलते हैं, क्योंकि चुनाव के इस दौर में इलाका दहशत के साये में जीने को मजबूर है. जैसे जैसे चुनाव कि तारीख नजदीक आ रही है यहां के लोगों की जिंदगी नर्क होती जा रही है.
लालाराम नवगांवा गांव के प्रधान हैं. वह कहते हैं - 'मुझे धमकी आई थी पैसे मांग रहे थे दो बार फोन आया हमने कहां हमारे पास पैसे नहीं है. माली की पकड़ हुई है. वो बच्चों को उठा ले जाते हैं.
लालाराम पर 20 बीघा जमीन से 40 लोगों का परिवार पालने की जिम्मेदारी है. लेकिन आलम ये है कि हर आने वाली आहट इनके साथ साथ पूरे परिवार को बुरी तरह डरा देती हैं.
लालाराम कि रिश्तेदार प्रभावती ने रोते हुए कहा - 'डर लगता है, फ़सल खड़ी है, खेत सब ऐसे ही पड़े हैं, आगे का रास्ता नहीं, लड़का बच्चा घर में छुपा कर रखते है.
लालाराम कि पत्नी राजकुमारी ने रोते हुए कहा - 'दिन का काम करते है, फिर चार बजे के बाद हम बाहर नहीं जा सकते. बाथरूम भी नहीं जा सकते.
ये महज एक गांव की कहानी नहीं पूरे इलाके की हकीकत है. बुंदेलखंड का बीहड़ एक बार फिर डकैतों की पनाहगार बन गया है. मध्य प्रदेश से लेकर उत्तर प्रदेश के सतना, चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर और बांदा जैसे 13 जिलों में डकैतों की दहशत है.
बांदा के नरौनी में कलम की लकीरों में अपनी जिंदगी तलाश रहे दयाराम को डर है कि कहीं जिंदगी की लकीर छोटी न पड़ जाए. कर्ज लेकर नवगांवा में दुकान शुरू करने वाले दयाराम को चुनाव का ये मौसम बहुत खल रहा है. बांदा में नरैनी ब्लाक के दयाराम ने कहा - मुझे बोला पैसा दो कारतूस खरीदनी है, 20 हजार रुपये मांगे मुझसे, मेरे पास कहां है. संग्राम नाम का बदमाश है, पेपर में रोज आ रहा है, फिर फोन आया सर काट देंगे तुम्हारे बच्चे को मार देंगे, हम भाग आए, कौन वोट करने जायेगा, चुनाव के लिए तो ये कर रहे हैं.'
दरअसल इलाके की गरीबी ही पूरे बुंदेलखंड इलाके की बदनसीबी है और इसी बदनसीबी ने उन्हें दहशत के साये में जीने को मजबूर किया है.
पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसने वाले बुंदेलखंड के अन्नदाता की यूं तो हर फरियाद इंद्र देवता के नाम पर होती है पर चुनावी मौसम में गांव गांव में लगे ऐसे बैनर हर किसी के चेहरे पर चिंता कि लकीरे खींच देते हैं. मायूसी के आलम में लोगों ने अब चुनाव का बहिष्कार करने की कसमें खाई है. यहां तक कि कुछ लोगों ने तो सामूहिक आत्मदाह तक करने का इरादा जाहिर किया है.
राज बहादुर ने कहा - मेरी बेटी की शादी रोक दी है 2 मई को थी वोट नही डालेंगे. जयराम ने कहा- सब नेता एक जैसे है चुनाव के बाद सामूहिक आत्मदाह करेंगे हम सब.'
1970 के दशक में बुंदेलखंड में डकैतों ने आतंक की चाबुक चलाई, गया कुर्मी, ददुआ और ठोकिया के जुल्मों ने बुंदेलखंड की दरकती उम्मीदों को रौंदने का काम किया. अब एक बार फिर बीते कल की कहानी गांववालों को सताने लौट आई है.
लोगों के चहरे भी अब दुख झेलने के आदी हैं, इन आंखों में न तो सपने हैं और ना कोई उमंग. और चुनाव के इस मौसम में एक भी ऐसी आवाज इन्हें नहीं सुनाई दी जो इनकी दुश्वारियां दूर कर सके.
पीड़ित की बेटी रूबीना कहती हैं - बदमाशों ने पैसे मांगे थे. पैसे पिता के पास थे नहीं. यही सोच-सोच के मर गए.' रूबीना के दादा ने कहा - परेशान हैं. बदमाशों का डर छोटे छोटे बच्चों पर है. जैसा मालिक चाहेदा वैसा होगा. फसल भी बर्बाद हो गई.
आलम ये है कि बुंदेलखंड के इलाके में बलखड़िया जैसे दर्जनों गिरोह का दबदबा है. और ऐसे ही गिरोह की आड़ में सियासी दल अपनी राजनैतिक रोटियां सेंक रहे हैं.
किसी ना किसी वक्त बुंदेलखंड भी किसी राजनेता कि आंखो का तारा था. बड़े चर्चे थे इन फकीरों के जितनी बड़ी बदनसीबी उतनी बड़ी हस्ती चमकती थी चौखट पर इनके , कभी राहुल कि रहमत और कभी अखिलेश का दान. यूं ही बिजली कौंधती रहे, सो भाग्य ने ये लिख ही दिया की ना तो इनकी बदनसीबी खत्म होगी ना तो इनकी मुफलिसी.
उम्मीदवारों को जिताने के लिए अलग-अलग हथकंडे
चुनावी मौसम आते ही चंबल के बीहड़ में भी हलचल तेज हो जाती है. यहां अलग-अलग पार्टियों के उम्मीदवारों के साथ-साथ अलग-अलग डाकुओं के गिरोह भी अपने-अपने उम्मीदवारों को जिताने के लिए अलग-अलग हथकंडे अपनाते हैं. और इनमें सबसे असरदार तरीका है ख़ौफ़ का. यहां चुनावी नारों से ज़्यादा उस फरमान को असर होता है जो इन डाकुओं की बंदुकों की नाल से निकलता है.
30 अप्रैल को बुंदेलखंड की चार लोकसभा सीटों पर वोटिंग
पूरे देश की तरह ही उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में भी चुनावी शतरंज की बिसात बिछ चुकी है और 30 अप्रैल को बुंदेलखंड की चार लोकसभा सीटों बांदा, झांसी, जालौन और हमीरपुर में वोट डाले जाने हैं. लेकिन यकीन मानिए यहां कि चारों संसदीय सीटों में से एक बांदा लोकसभा सीट का सफर इतना आसान नहीं है. यहां से सत्ता के गलियारों का रास्ता संगीनों के साए से होकर गुज़रता है. दरअसल आज भी इस इलाके में डाकुओं की धमक सुनाई देती है. बांदा की ज़मीनी हक़ीक़त ये है कि चुनाव आते ही बीहड़ के डाकुओं के गिरोह अपने-अपने उम्मीदवारों को चुनाव जिताने के लिए मैदान में उतर पड़ते हैं.
बुंदेलखंड में कई दशकों तक डकैतों ने अपना साम्राज्य फैला कर रखा. लेकिन 1978 में शिव कुमार पटेल उर्फ ददुआ ने इलाके की राजनीति में दखल देना शुरु कर दिया और बस उसी वक्त से ये सिलसिला बदस्तूर चला आ रहा है. लेकिन 2007 में मायावती सरकार के दौरान यूपी की स्पेशल टास्क फोर्स ने ददुआ को मार गिराया और फिर अगले ही साल यानि 2008 में इलाके के एक और खूंखार डाकू ठोकिया का भी एंकाउंटर कर दिया.
लेकिन 6 साल के बाद हालात एक बार फिर से बेकाबू होते नजर आ रहे हैं और इसकी सबसे बड़ी वजह है इलाके के डकैतों के वो गिरोह जो अपने-अपने उम्मीदवारों का समर्थन कर रहे हैं. और इनमें सबसे बड़ा नाम है सुदेश पटेल उर्फ बलखड़िया का जिसके ऊपर पांच लाख का इनाम है.
आज बुंदेलखंड में बलखड़िया जैसे दर्जनों गिरोहों के हौसले बुलंद हैं. वो इसलिए क्योंकि उन्हें अलग-अलग राजनीतिक दलों का संरक्षण मिला हुआ है. यही वजह है कि एक वक्त था जब कुख्यात डकैत ददुआ ने ये फरमान जारी किया था. मुहर लगेगी हाथी पर... वरना गोली पड़ेगी छाती पर और नाक मिलेगी घाटी में...
आज उसी ददुआ के साथी रहे आर के पटेल बांदा से बीएसपी के उम्मीदवार हैं जो इससे पहले समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव जीत चुके हैं. सपा ने उनके खिलाफ ददुआ के भाई बाल कुमार पटेल को टिकट दिया है. दोनों पर हत्या कि कोशिश, मारपीट, अवैध वसूली करना और डकैतों को संरक्षण देने जैसे दर्जनों मामले दर्ज हैं और दोनो ही एक दूसरे पर दहशत फैलाने का आरोप लगा रहे हैं.
बांद के बीएसपी उम्मीदवार आर के पटेल ने कहा - बांदा के लोग अमन चाहते हैं सपा ने भय का वातावरण पैदा किया, उनके लोग डरा धमका रहे है, मां बेटियां घर से बाहर नहीं जा पाती हैं.
बांदा से सपा उम्मीदवार बाल कुमार पटेल ने कहा - ददुआ की नहीं कोई विरासत है जो है मुलायम सिंह का मार्गदर्शन है , ये जो आर के पटेल हैं इनकी कॉल डिटेल्स निकलवा लीजिए सब साफ हो जायेगा, ये साजिश है इनकी हमें फंसाने की.
बुंदेलखंड की सियासत पर बंदूक की राजनीति हावी
बुंदेलखंड की सियासत पर बंदूक कि राजनीति हावी रही है. डकैतों को राजनितिक दलों का संरक्षण मिलता रहा है. ददुआ के दो रिश्तेदार आमने सामने है दोनों ही एक दूसरे को कोस रहे हैं और दोनों ही जब चाहे पार्टियां बदलते रहे हैं. मतलब ये कि जब तक लोकतंत्र यूंही भय की बेड़ियों में जकड़ा रहेगा तब तक इसी तरह चुनाव का मखौल उड़ता रहेगा.
आज भी यही लगता है कि बांदा में कुछ भी नहीं बदला. 2014 के लोकसभा चुनाव की दस्तक यहां के लोगों के लिए एक बार फिर दहशत का पैगाम लाई है.