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कोरोना

बेबस, मायूस, मजबूर, सूनी सड़क और पैदल ही गांव लौटते मजदूर!

बेबस, मायूस, मजबूर, सूनी सड़क और पैदल ही गांव लौटते मजदूर!
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कोरोना वायरस की वजह से पूरे देश में 21 दिन का लॉकडाउन हो गया. इस लॉकडाउन ने एक संकट से बचाने के लिए दूसरा संकट खड़ा कर दिया. दिल्ली-NCR में रोज कमाने-खाने वाले हजारों प्रवासी मजदूर सड़कों पर आ गए. भुखमरी जैसी हालात से बचने के लिए वो परिवार सहित पैदल ही निकल पड़े सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गांव. सिर पर बोरिया-बिस्तर, गोद में बच्चे और आंखों में मदद की उम्मीद. भूख-प्यास से जूझते, सड़क किनारे सुस्ताते और फिर हिम्मत जुटाकर आगे निकल पड़ते इन लोगों को कैमरे में कैद किया इंडिया टुडे के ग्रुप फोटो एडिटर बंदीप सिंह ने.



बेबस, मायूस, मजबूर, सूनी सड़क और पैदल ही गांव लौटते मजदूर!
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इस शख्स के कंधे पर सवार बच्चे को इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह कहां जा रहा है. पर बच्चे और उसे ढोने वाले की आंखों में सवाल जरूर है. कब हटेगा ये लॉकडाउन. इस सड़क पर सवारी क्यों नहीं है.
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मां के सिर पर सामान का बोझ है और गोद में ये लटकता हुआ बच्चा. लंबे रास्ते के बीच अचानक से इसका असंतुलित होना उसकी हैरानी और थकान दोनों दिखाता है.
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प्रवासी मजदूरों के सिर पर रखी ये बोरी बताती है कि पीछे दिख रहीं इमारतों की ऊंचाई मुसीबत को रोक नहीं सकती. इस लंबे सफर पर यही सामान मदद करेगा.


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लंबे रास्ते पर चलते परिवार को जब एक गाड़ी दिखती है उन्हें उम्मीद बंध जाती है कि शायद थोड़ी दूर के लिए लिफ्ट मिल जाए. 
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फ्लाईओवर पर वे कॉन्क्रीट की दीवार के सहारे आराम कर रहे हैं, उनका परिवार किसी गाड़ी के मिलने का इंतजार कर रहा है, इस बीच एक बच्चा कैमरे के फ्लैश से आकर्षित होता है और 'वी' का साइन बनाता है, उसका भाई भी ऐसा करने की कोशिश करता है, लेकिन उसके चेहरे पर हालात का फीकापन हावी है.


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एक अकेला परिवार पैदल चलते हुए थक चुका है. खाली एक्सप्रेसवे पर किसी गाड़ी का इंतजार कर रहा है. हमारी गाड़ी को भी हाथ देता है. उन्हें आगरा जाना है. लेकिन अभी वह बहुत दूर है.
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इतने लंबे सफर में कभी-कभी जूते चप्पल भी दर्दनाक हो जाते हैं. नंगे पैर पैदल चलने का मन करता है. आदत होती नहीं है इतना लंबा चलने की इसलिए कुछ लोग जूता-चप्पल निकाल कर सड़क पर चल रहे थे.
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आगे पांच लोगों का एक समूह दिखता है. उनमें से एक के पैर पोलियोग्रस्त हैं. चेहरे पर मुस्कान के साथ वह चला जा रहा है. पूछा कि कहां तक जाओगे तो कहा-आगरा तक. 'यहां क्या करेंगे? सब पैसा भी खत्म हो गया.
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इन सब बुरे हालात के बीच एक लड़का अपने बैग पर सिर रखकर आराम से सोता हुआ दिख रहा है. उसने हेडफोन और मेटैलिक चश्मा पहन रखा है. जहां लोग अपने घर पहुंचने को बेताब हैं, यह तो नौजवान तो जैसे बेफिक्र लगता है.


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अब अंधेरा हो चुका है. हम ग्रेटर नोएडा के परी चौक की तरफ वापस आ रहे थे कि सड़क पर तीन परिवारों का एक समूह दिखता है. वे इस उम्मीद में हैं कि कोई बस मिल जाए. तभी एक बस दिखती है और वे दौड़ पड़ते हैं. लेकिन बस पहले से ही खचाखच भरी थी.
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फिर एक औरत दिखती है जो कुछ घंटों पहले एक्सप्रेसवे पर पैदल आ रही थी. मुझे उसका बच्चा नहीं दिखता. जब पूछा बच्चा कहां है तो गोद में साड़ी से ढंका बेटा दिखाती है.
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रोड पर आराम कर रहा यह बच्चा थोड़े मध्यमवर्गीय परिवार का दिखता है. उसकी छोटी बहन भी फुटपाथ पर बैठी हुई है. उसकी मां बताती है कि वे श्रीनिवासपुरी से पैदल चलकर नोएडा (करीब 18 किमी) तक आए हैं. वह कहती हैं, 'बच्चों को इतना चलने की आदत नहीं है न.'
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