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कहां गई चक्की, कहां गए जांता... गुम हो गए 'जतसार गीत' जो कभी मेहनत का मरहम हुआ करते थे

बैशाख-जेठ की इसी दोपहरी में दालान में, आंगन में, चबूतरे पर या ऐसी ही किसी जगह, जहां ज्यादा लोग बैठ सकें, इन महिलाओं की मंडली बैठती है और इनके बीच में स्थापित होती है चक्की और जांता. ये मंडली गेहूं को आटा बना देती है, दलहन की फसलों को दर कर दाल बना देती हैं. चने को भी सत्तू और बेसन में बदल देती हैं. मेहनत का ये काम इतना आसान तो है नहीं, तो इसे आसान बनाता है... जतसार गीत.

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पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल में चक्की पर अनाज पीसते हुए जतसार गीत गाए जाने की परंपरा रही है
पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल में चक्की पर अनाज पीसते हुए जतसार गीत गाए जाने की परंपरा रही है

बैशाख लग गया है. धूप अब कड़ी होने लगी है. फसल पक कर घर आ चुकी है और अगर खलिहान में है तो उनके घर आने का सिलसिला जारी है. गर्मी और तपिश के बीच देह चिलचिलाती दोपहरी में आराम मांगती है, लेकिन गांव की उन औरतों के हिस्से आराम कहां, जो गृहस्थी में रची बसी हैं. ये औरतें भी सिर्फ औरत भर नहीं हैं, ये हैं सास, जेठानी, देवरानी, ननद-भाभी और इससे भी आगे बढ़कर चाची-काकी, मौसी-बुआ और आजी. उम्र के फासले से ये सभी भले ही अलग-अलग रिश्तों में बिंध गई हों, लेकिन सबका सुख-सबका दुख एक सा. श्रम इनकी पहचान है और अब जब अनाज घर आ गया है, तो उसे खाने लायक बनाने का काम इनके जिम्मे है.

जब हर घर आंगन में जमती थी चक्की
बैशाख-जेठ की इसी दोपहरी में जब आराम भी पैर पसारकर आराम फरमाता है, तब दालान में, आंगन में, चबूतरे पर या ऐसी ही किसी जगह, जहां ज्यादा लोग बैठ सकें, इन महिलाओं की मंडली बैठती है और इनके बीच में स्थापित होती है चक्की और जांता. ये मंडली गेहूं को आटा बना देती है, दलहन की फसलों को दर कर दाल बना देती हैं. चने को भी सत्तू और बेसन में बदल देती हैं. मेहनत का ये काम इतना आसान तो है नहीं, तो इसे आसान बनाता है... जतसार गीत.

आज से 20-30 साल पहले की ही बात

ये जो भी बातें ऊपर दर्ज हैं, ये आज की बात नहीं हैं. ये उस 'युग' की बातें हैं और जो महज 2 या तीन दशक पहले ही गुजरा है. कम से कम समूचे उत्तर भारत से लेकर बिहार और बंगाल तक ऐसा नजारा आम था. घर की रसोई का काम निपटाकर, साफ-सफाई और कपड़े वगैरह धोने-सुखाने के बाद करीब 12-1 बजे दोपहर में 'जतसारी' (जांता  पर अनाज पीसने वाली मंडली) बैठती थी और फिर बारी-बारी से अड़ोस-पड़ोस तक के घरों के अनाज पीस लिए जाते थे.

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जतसार गीत

चक्की और जांता की आवाज में था संगीत

चक्की चलती रहती थी, उसकी घिर्र-घिर्र की आवाज ही संगीत हो जाया करती थी और इसी धुन पर गाए जाते थे जतसार गीत. जतसार गीत कैसे होते हैं,  कैसे गाए जाते हैं इसे देखना समझना हो तो ब्लैक एंड व्हाइट वाले एरा में झांक आते हैं.

फिल्मों में भी दिखे हैं 'जतसार गीत'

साल 1959 में एक फिल्म आई थी 'हीरा-मोती'. इस फिल्म में एक बहुत ही खूबसूरत भोजपुरी गीत है, जिसे तब के जमाने की मशहूर अदाकारा निरूपा राय और शुभा खोटे पर फिल्माया गया है. बलराज साहनी भी फिल्म में बतौर अभिनेता शामिल थे. फिल्म में एक सीन है कि निरूपा राय चक्की चला रही हैं और इसी दौरान ये गाना गाया जाता है.

कौन रंग मूंगवा, कौन रंग मोतिया

कऊन रंग ननदी, तोरे बिरना।।

सबज रंग मूंगवा, सफेद रंग मोतिया

संवर रंग भऊजी, मोरे बिरना।।

इस गीत में भाभी, ननद से कह रही है कि बताओ ननद मूंग किस रंग की होती है, मोती किस रंग की होती है और तुम्हारे भैया किस रंग के हैं. इस पर ननद भी जवाब देती है कि मूंग हरे रंग की है, मोती सफेद रंग के हैं और मेरे भैया सांवले-सलोने हैं.

फिर ननद कहती है

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टूट गइले मूंगवा,

बिखर गइले मोतिया

बिसर गइले, हाये भऊजी

मोरे बिरना

(मूंग टूटकर बिखर गई, मोती भी बिखर गई और भाई मेरे भैया क्यों नाराज हो गए हैं?)

तब भाभी जवाब देती है...

बीन लिबो मूंगवा

बटोर लेबो मोतिया

मनाये लेबो हाय... ननदी

तोरे बिरना

हो हो हो हो जी...

(सुनो ननद! मूंग बीन लूंगी और मोती बटोर लूंगी और सुनो, तुम्हारे भैया को भी मैं मना लूंगी.)

इस प्यारे गीत के बीच मुख्य काम है, चक्की चलाने का और चक्की चलती रहती है, अनाज पीसा जाता रहता है. वैसे चलती चाकी देखकर सिर्फ कबीर को ही डर नहीं लगा था कि उन्होंने लिखा,

चलती चाकी देखकर, दिया कबीरा रोय,
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय।

जब चक्की चलाने की बात आती है तो इससे डर महिलाओं को भी लगता रहा है. चक्की चलाना यानी जी-तोड़ मेहनत. इसीलिए जतसार गीतों में महिलाओं के दुख-दर्द और उनकी तमाम बाधाओं का जिक्र मिलता है. जो बातें वो आसानी से नहीं कह पाती हैं ऐसी कथनी भी जतसार गीतों की पंक्तियां बन जाती हैं. जैसे की उस समय लड़कियों की कम उम्र में शादियां हो जाती थीं और एक-दो बार पग-फेरे आदि के बाद फिर जब वे ससुराल आतीं तो उन्हें गृहस्थी की जिम्मेदारियां सौंपी जाने लगती थीं.

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जांता चलाना, दाना निकालना, अनाज पीसना भी इनमें से एक होता था. अब नई बहू, कम उम्र और सास ने कह दिया कि जतसार गाओ... खास बात ये कि सास ने कहा है जतसार गाओ, तो इसका मतलब है कि जांता चलाने का ही आदेश मिला है, क्योंकि ये गीत बिना चक्की चलाए या जांता पीसे तो गाया नहीं जाएगा.

तब बहू बेचारी जो इस श्रम से घबरा गई है, वह अपनी बात सास से कैसे कह रही है, इसकी बानगी देखिए.

रामा चले नाहीं छोट छोट हाथवा रे ना,
बड़ बड़ दतवां के बड़ लागे जतवां रे ना ।

बहू कह रही है कि मेरे छोटे-छोटे हाथों से जांता तो चल ही नहीं रहा है. इसके बड़े-बड़े दांतुएं मेरे हाथ लग जा रहे हैं, जिनसे मैं घायल हो रही हूं.

जतसार एक तरह का श्रम गीत ही है. श्रम में थकान कम हो और काम में रस मिले , इसके लिए ये गीत बड़े मरहम की तरह काम करते थे. जतसार गीत की स्वर लहरी एक तय अंतराल के बाद उभरती थी ताकि बीच-बीच में दम लिया जा सके. जांत के मुंह में मुट्ठी भर अनाज डाला जाता था और फिर हत्था पकड़कर धुमाया जाता था. अनाज डालने को " झींक " डालना कहते थे. एक झींक डालने के बाद औरतें जांत चलातीं थीं और साथ में जतसार गीत भी गाती जाती थीं. जब झींक डाला जाता तब गले को दम मिलता और जतसार गाकर औरतें एक-एक पसेरी (पांच-पांच किलो) तक अनाज पीस लेतीं थीं.

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जतसार सिर्फ गीत ही नहीं, एक-दूसरे की सुध-बुध लेने का तरीका भी

इस दौरान औरतें आपस में सब बात कर लेती थीं. जैसे कि वह कितने दिन से पीहर नहीं गईं या फिर बहुत दिनों से मेला घूमने जाने का मन है. कोई ये भी बताती थी कि उसने देवी माई का व्रत उठाया है, तो कोई बताती कि कैसे उसके बच्चे बदमाशी करते-करते बड़े हो रहे हैं. इस बीच महिलाएं एक-दूसरे को पति-मंगेतर आदि के नाम से छेड़ भी लेती थीं. कोई ब्याही बेटी घर आई है तो उससे उसकी ससुराल का हाल पूछा जाता था और जिस किसी बेटी की शादी हो गई है, लेकिन गवना नहीं हुआ है और उसे पति-पिया की याद आ रही है तो उसकी भी सुध ली जाती थी.

एक जतसार गीत की बानगी देखिए -

बाबा काहे लागी बढ़ल लामी लामी केसिया,
बाबा काहे लागी भईल मोर बैरिन जवानियां।

बाबा हो जे बाटे गईल पियवा मधुबनवा ,
से बटिया तुहुं बताई रे दिहत ना।

बेटी झारिलअ लामी लामी केसिया ,
कस के बान्हि ल आपन अंचरिया।

जे बाटे गईल तोर पियवा मधुबनवा ,
से बटिया भईल रे मलिनवा ना ।

ये जतसार गीत तो बिल्कुल ही भावुक कर देने वाला है. इसमें एक बेटी अपने पिता से पूछ रही है कि बाबा! मेरे बाल इतने लंबे-लंबे क्यों हो गए हैं और क्यों मैं जवान हो गई हूं. जिस रास्ते मेरा पिया मधुबन चला गया है, वह किधर है. अगली पंक्ति में पिता का जवाब है कि, बिटिया अपने लंबे बालों को बांध कर रखो और यौवन को आंचल में कस लो क्योंकि जिस रास्ते तेरा पिया मधुबन को गया उसका तो निशान मिटता दिख रहा है.

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शायद ये गीत कुछ ऐसा है कि लड़की का ब्याह तय हुआ, लेकिन किसी वजह से रिश्ता टूट गया. इस गीत की पंक्तियों में जो दर्द बहा है, वह किसी को भी बहा ले जाने की क्षमता रखता है.  

जतसार गीत

श्रम की आराधना का देश रहा है भारत
भारत जैसा देश, जहां श्रम की भी आराधना की जाती है, ऐसे में 'जतसार गीत' श्रम देवता की आरती की तरह हैं. ये मेहनत को गीतों की माला में पिरोकर उत्सव में बदल देते हैं. यह उत्तर भारत के लोकसंगीत की एक अनमोल धरोहर और उत्तर प्रदेश, बिहार, और झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों की पहचान है. जतसार गीत केवल संगीत या मनोरंजन का साधन नहीं हैं, बल्कि ये ग्रामीण जीवन की भावनाओं, परंपराओं, और सामाजिक ताने-बाने को जीवंत रखने का जरिया भी रहे हैं. इन गीतों की मधुर लय और सरल शब्द श्रम को सुखद बनाते हैं और सामूहिकता की भावना को मजबूत करते हैं. जैसे चक्के के दोनों पाट जुड़े रहते हैं ये पीढ़ियों को जोड़कर रखते हैं और पीढ़ियों तक जिंदा रखते हैं.

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