scorecardresearch
 

युद्ध, रुद्र और राग... रणभेरी की गूंज के बीच, युद्ध से पहले गाए गए वो अंतिम गीत

एक तरफ शाका, तो दूसरी ओर जौहर की तैयारी. रानी पद्मावती के साथ राजपूत योद्धाओं की पत्नियां पूर्ण शृंगार करके, लाल जोड़े में सजी-धजी ऐसा नृत्य कर रही हैं, जैसे महाकाली ने खप्पर भर-भर रक्त पीने के बाद किया था. इस नृत्य में वह कभी जोश से भर उठती हैं, कभी बेहाल हो जाती हैं, कभी विरह की मारी से लगती है तो कभी फिर से उन्मादी हो जाती हैं.

Advertisement
X
चित्तौड़ के दुर्ग में युद्ध से पहले हुआ था शाका
चित्तौड़ के दुर्ग में युद्ध से पहले हुआ था शाका

क्या आपने कभी सोचा है कि चित्तौड़गढ़ के किले में रानी पद्मिनी ने जौहर की लपटों में प्रवेश करने से पहले क्या गाया होगा? या महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के युद्ध में केसरीया बाना पहनकर किस गीत के साथ अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाया होगा? गीतों की इस परंपरा को समझना है तो मलिक मुहम्मद जायसी की पद्मावत पर नजर डालते हैं, जहां जायसी ने अपने काव्य ग्रंथ में चित्तौड़ युद्ध का वीर रस से भरा सुंदर और उत्साही काव्य वर्णन किया है.  

प्रसंग है कि दिल्ली में खिलजियों का शासन है. अलाउद्दीन खिलजी ने रानी पद्मावती की लालसा में चित्तौड़ पर हमला कर दिया है. चित्तौड़ के राजा, रावल रतन सिंह इस हमले का सामना कर रहे हैं और उनके दो सेनापति योद्धा गोरा और बादल वीरता से लड़ते हुए दुश्मन सेना को गाजर-मूली की तरह काट रहे हैं.

रतनसेन जो बाँधा , मसि गोरा के गात ।
जौ लगि रुधिर न धोवौं तौ लगि होइ न रात ॥14॥

सरजा बीर सिंघ चढि गाजा । आइ सौंह गोरा सौ बाजा ॥
पहलवान सो बखाना बली । मदद मीर हमजा औ अली ॥
लँधउर धरा देव जस आदी । और को बर बाँधै, को बादी ?
मदद अयूब सीस चढि कोपे । महामाल जेइ नावँ अलोपे ॥
औ ताया सालार सो आए । जेइ कौरव पंडव पिंड पाए ॥
पहुँचा आइ सिंघ असवारू । जहाँ सिंघ गोरा बरियारू ॥
मारेसि साँग पेट महँ धँसी । काढेसि हुमुकि आँति भुइँ खसी ॥

Advertisement


भांट कहा, धनि गोरा ! तू भा रावन राव ।
आँति समेटि बाँधि कै तुरय देत है पाव ॥15॥


कहेसि अंत अब भा भुइँ परना । अंत त खसे खेह सिर भरना ॥
कहि कै गरजि सिंघ अस धावा । सरजा सारदूल पहँ आवा ॥
सरजै लीन्ह साँग पर घाऊ । परा खडग जनु परा निहाऊ ॥
बज्र क साँग, बज्र कै डाँडा । उठा आगि तस बाजा खाँडा ॥
जानहु बज्र बज्र सौं बाजा । सब ही कहा परी अब गाजा ॥
दूसर खडग कंध पर दीन्हा । सरजे ओहि ओडन पर लीन्हा ॥
तीसर खडग कूँड पर लावा । काँध गुरुज हुत, घाव न आवा 

जायसी ने गोरा के युद्ध का जो वर्णन किया है, सुनाने वाले जब वीर रस में गाकर इसे सुनाते हैं, तो सुनने वालों का खून खौल उठता है. इसका आशय यह है कि सरजा के हमले से गोरा लहुलुहान हो गया, उसका कंधा कट, पेट फट गया. आंतें बाहर आ गईं, फिर भी वह घोड़े से न गिरा, यूं ही तना हुआ सीधा बैठा रहा और घोड़ा दौड़ाता रहा. उसने तलवार को अपनी हथेली में कस कर साध लिया और हाथ ऊंचा उठाकर शत्रु सरजा पर जोर का वार किया. तलवार उसके दाएं कंधे पर लगी और वह चिरता चला गया. गोरा ने पलकें उठाकर उसे देखा और फिर अपना शीष आकाश की ओर ऊंचा उठा लिया. बिजली चमकी. गोरा ने खुद को आकाश के हवाले कर दिया. वह अद्भुत वीरता से लड़ा.

Advertisement

युद्ध से पहले चित्तौड़ के दुर्ग में हुआ शाका
इधर, चित्तौड़ के दुर्ग में क्या हो रहा है? यहां रावल रतन सिंह ने ऐलान कर दिया है कि वह केसरिया पाग पहनकर सिर में मातृभूमि की धूल डालकर शाका करेंगे. शाका, रणचंडी को जगाने का वह युद्ध नृत्य है, जिसमें राजपूती योद्धा तलवार लेकर, युद्ध की पोशाक पहनकर और एक-दूसरे पर धूल उड़ाते हुए जय भवानी-जय शिवानी का नारा लगाते हुए नाचते हुए युद्ध भूमि के लिए निकल पड़ते हैं. ढोल और नगाड़े की धुन के बीच गीत के बोलों के मायने नहीं रह जाते हैं. यह है शाका, सिर पर कफन बंधा है, लेकिन केसरिया जो संपूर्ण बलिदान का प्रतीक है. 

एक तरफ शाका, तो दूसरी ओर जौहर की तैयारी. रानी पद्मावती के साथ राजपूत योद्धाओं की पत्नियां पूर्ण शृंगार करके, लाल जोड़े में सजी-धजी ऐसा नृत्य कर रही हैं, जैसे महाकाली ने खप्पर भर-भर रक्त पीने के बाद किया था. इस नृत्य में वह कभी जोश से भर उठती हैं, कभी बेहाल हो जाती हैं, कभी विरह की मारी से लगती है तो कभी फिर से उन्मादी हो जाती हैं.

राजस्थान की माटी का विरह गीत
राजस्थान का सदियों पुराना एक विरह गीत है, महारो जलालो-बिलालो... गीत के बोल के भाव कुछ ऐसे हैं, कि मेरा प्रिय, अब कभी आइएगा कि नहीं, मुझे नहीं पता. वह लौट आए तो बहुत अच्छा. पर नहीं ही आया तो? मेरा अन्नदाता, प्यारा, स्वामी वही तो है. उसके बिना मैं कहां कुछ. फिर भी मैं सोचती हूं कि वो जुग-जुग जिए.

Advertisement

'म्हारा जलाला बिलाला आलीजा
अलीजा ढोल रे डागाड़िये चढ़ जोऊंसा
म्हारे अन्नदातारी बाट
म्हारा साइनारी बाट
बाटडली रे बैरण सा'

इस गीत को ध्यान से सुनिये तो एक तरफ तो आंखें भी भर आती हैं और दूसरी और एक टीस सी भी उठ आती है. यह टीस भुजाओं में साहस बनकर फड़कती है. 

भारत की युद्ध परंपराएं और गीत केवल इतिहास का हिस्सा नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक आत्मा का जीवंत प्रमाण हैं. ये गीत और रस्में हमें सिखाती हैं कि वीरता केवल शस्त्रों में नहीं, बल्कि हृदय के साहस, आत्मा के बलिदान और मातृभूमि के लिए होने वाले प्रेम में बसती है. चाहे वह रानी पद्मिनी का जौहर हो या रण में उतरने से पहले किसी महाराणा का साका हर कहानी और हर गीत हमारे लिए गर्व है, प्रेरणा है. 

---- समाप्त ----
Live TV

Advertisement
Advertisement