इमरजेंसी पर शशि थरूर ने लिखा आर्टिकल, कहा- आज का भारत 1975 का भारत नहीं...

शशि थरूर ने लिखा कि पचास साल पहले प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से लगाए गए आपातकाल ने दिखाया था कि कैसे आज़ादी को छीना जाता है, शुरू में तो धीरे-धीरे, भले-बुरे लगने वाले मकसद के नाम पर छोटी-छोटी लगने वाली आजादियों को छीन लिया जाता है. इसलिए यह एक ज़बरदस्त चेतावनी है और लोकतंत्र के समर्थकों को हमेशा सतर्क रहना चाहिए.

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संसद परिसर में राहुल गांधी और शशि थरूर संसद परिसर में राहुल गांधी और शशि थरूर

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 10 जुलाई 2025,
  • अपडेटेड 11:49 AM IST

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से लगाए गए आपातकाल की कड़ी आलोचना करते हुए कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने कहा कि इससे पता चलता है कि किस तरह से अक्सर आजादी को छीना जाता है. उन्होंने कहा कि आपातकाल यह भी दिखाता है कि कैसे दुनिया 'मानवाधिकारों के हनन' से अनजान रही. कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने 1975 की इमरजेंसी पर एक लेख लिखा है, जिसमें उन्होंने इंदिरा गांधी के इस फैसले की जमकर आलोचना की है.

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लोकतंत्र के समर्थक रहें सतर्क

प्रोजेक्ट सिंडीकेट की तरफ से प्रकाशित लेख में थरूर ने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सत्तावादी नजरिये ने सार्वजनिक जीवन को डर और दमन की स्थिति में धकेल दिया. थरूर ने लिखा कि पचास साल पहले प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से लगाए गए आपातकाल ने दिखाया था कि कैसे आज़ादी को छीना जाता है, शुरू में तो धीरे-धीरे, भले-बुरे लगने वाले मकसद के नाम पर छोटी-छोटी लगने वाली आजादियों को छीन लिया जाता है. इसलिए यह एक ज़बरदस्त चेतावनी है और लोकतंत्र के समर्थकों को हमेशा सतर्क रहना चाहिए.

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थरूर ने लिखा, 'इंदिरा गांधी ने इस बात पर जोर दिया कि कठोर कदम जरूरी थे, सिर्फ आपातकाल की स्थिति ही आंतरिक अव्यवस्था और बाहरी खतरों से निपट सकती थी, और अराजक देश में अनुशासन और दक्षता ला सकती थी.' जून 1975 से मार्च 1977 तक करीब दो साल तक चले आपातकाल में नागरिक स्वतंत्रताएं निलंबित कर दी गईं और विपक्षी नेताओं को जेल में भर दिया गया. 

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उन्होंने कहा कि अनुशासन और व्यवस्था की चाहत अक्सर बिना कहे ही क्रूरता में तब्दील हो जाती थी, जिसका उदाहरण इंदिराजी के बेटे संजय गांधी की ओर से चलाए गए जबरन नसबंदी अभियान थे, जो गरीब और ग्रामीण इलाकों में केंद्रित थे, जहां मनमाने लक्ष्य हासिल करने के लिए ज़बरदस्ती और हिंसा का इस्तेमाल किया जाता था.

इमरजेंसी में हजारों लोग हुए बेघर

उन्होंने कहा कि दिल्ली जैसे शहरी केंद्रों में बेरहमी से की गई झुग्गी-झोपड़ियों को ढहाने की कार्रवाई ने हज़ारों लोगों को बेघर कर दिया और उनके कल्याण की कोई चिंता नहीं की गई.

उन्होंने लिखा कि आपातकाल ने इस बात का ज्वलंत उदाहरण पेश किया कि लोकतांत्रिक संस्थाएं कितनी कमज़ोर हो सकती हैं, यहां तक कि ऐसे देश में भी जहां वे मज़बूत दिखती हैं. इसने हमें याद दिलाया कि एक सरकार अपनी नैतिक दिशा और उन लोगों के प्रति जवाबदेही की भावना खो सकती है जिनकी वह सेवा करने का दावा करती है.

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वरिष्ठ कांग्रेस नेता थरूर ने यह भी बताया कि किस तरह अहम लोकतांत्रिक स्तंभों को खामोश कर दिया गया और हिरासत में यातनाएं दी गईं. एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल हत्याएं बड़े पैमाने पर की गईं, जिससे उन लोगों के लिए 'काले सच' की तस्वीर सामने आई, जिन्होंने सत्ता को चुनौती देने की हिम्मत दिखाई थी. 

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थरूर ने कहा कि न्यायपालिका भी भारी दबाव के आगे झुक गई, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने बंदी प्रत्यक्षीकरण और नागरिकों के स्वतंत्रता के अधिकार को निलंबित कर दिया. उन्होंने कहा, 'पत्रकार, कार्यकर्ता और विपक्षी नेता सलाखों के पीछे पाए गए. व्यापक संवैधानिक उल्लंघनों ने मानवाधिकारों के हनन की एक भयावह सीरीज को जन्म दिया.

आज का भारत ज्यादा मजबूत

अपने लेख में थरूर ने कहा कि आज का भारत 1975 का भारत नहीं है. हम ज्यादा आत्मविश्वासी, ज्यादा समृद्ध और कई मायनों में ज्यादा मजबूत लोकतंत्र हैं. फिर भी आपातकाल के सबक चिंताजनक रूप से प्रासंगिक बने हुए हैं. सत्ता को केंद्रीकृत करने, आलोचकों को चुप कराने और संवैधानिक सुरक्षा उपायों को दरकिनार करने का लालच कई रूपों में उभर सकता है.

उन्होंने कहा कि अक्सर राष्ट्रीय हित, इस अर्थ में आपातकाल को एक जबरदस्त चेतावनी के रूप में काम करना चाहिए और लोकतंत्र के समर्थकों को हमेशा सतर्क रहना चाहिए.

आपातकाल के तीन सबक

थरूर ने आपातकाल के सबक भी गिनाए और सत्तारूढ़ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार पर तंज किया. उन्होंने कहा, 'पहला, सूचना की स्वतंत्रता और स्वतंत्र प्रेस बहुत अहम हैं... दूसरा, लोकतंत्र स्वतंत्र न्यायपालिका पर निर्भर करता है, जो कार्यपालिका के अतिक्रमण के खिलाफ सुरक्षा देने में सक्षम और इच्छुक हो.'

थरूर ने लिखा, 'तीसरा सबक - जो शायद हमारे मौजूदा राजनीतिक माहौल में सबसे ज्यादा प्रासंगिक है, यह है कि बहुमत समर्थित एक अहंकारी कार्यपालिका, लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकती है, विशेषकर तब जब वह कार्यपालिका अपनी अचूकता के लिए पूरी तरह से आश्वस्त हो और लोकतांत्रिक प्रणालियों के लिए जरूरी चेक एंड बैलेंस के प्रति अधीर हो.'

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