चीन लगभग हर मोर्चे पर अपनी ताकत की आजमाइश कर रहा है. चीन की चुनौती से निपटने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप वैश्विक गुट खड़ा करने की बात तो कर रहे हैं लेकिन उनकी अपनी ही 'अमेरिका फर्स्ट' की नीति इसमें सबसे बड़ी बाधा बनकर उभरी है. एक वक्त लगभग हर संगठन और तमाम गठबंधनों में अमेरिका का दबदबा हुआ करता था लेकिन अब वैश्विक व्यवस्था में अमेरिका ने खुद ही अपनी स्थिति कमजोर कर ली है.
अमेरिका और चीन के बीच टकराव लगातार बढ़ता ही जा रहा है. पिछले कुछ दिनों में ह्यूस्टन में चीनी कॉन्सुलेट को जासूसी का गढ़ करार देते हुए बंद कर दिया गया तो बदले में चीन के चेंगदू शहर के अमेरिकी मिशन को बंद कर दिया. फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (एफबीआई) ने चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी से जुड़े होने के शक में अमेरिकी यूनिवर्सिटीज के चीनी शोधकर्ताओं को भी गिरफ्तार करना शुरू कर दिया है. चीन से करीबी रखने वाले अमेरिकी शोधकर्ताओं और कारोबारियों को भी चेतावनी दी जा रही है.
ट्रंप प्रशासन लगातार चीन के खिलाफ हमलावर है. अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने चीन की तरफ इशारा करते हुए गुरुवार को कहा कि मुक्त दुनिया को इस नए अत्याचार पर जीत पानी ही होगी. पोम्पियो ने एक बयान में कहा कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की पकड़ को कमजोर करना ही हमारे वक्त का सबसे अहम मिशन है. पोम्पियो भारत, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन समेत कई देशों को चीन के खिलाफ एकजुट करने की भी कोशिशें कर रहे हैं. कहा जा रहा है कि अमेरिका के इस मिशन को एशिया के बड़े हिस्से और कम से कम प्रशांत क्षेत्र में समर्थन मिल भी सकता है. हालांकि. पोम्पियो ने अगली ही सांस में कहा कि अमेरिका इसका नेतृत्व करने के लिए सबसे उपयुक्त स्थिति में है.
विश्लेषकों का कहना है कि अमेरिका के भूले-भटके सहयोगियों के गले पोम्पियो का ये दावा शायद ही उतरा होगा. ऐसा इसलिए क्योंकि इन देशों का मानना है कि
ट्रंप प्रशासन की 'अमेरिका फर्स्ट' की नीति और एकपक्षीय व्यवस्था को लागू
करने की वजह से बनी खाली जगह में ही चीन को उभरने का मौका मिला.
सत्ता में आने के बाद ट्रंप की विदेश नीति का सबसे पहला कदम था- ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप से अमेरिका को अलग करना जिसे चीन को रोकने के लिए आर्थिक साझेदारी माना जा रहा था. अमेरिका के सहयोगी इस पर आगे बढ़ते गए लेकिन उसकी गैर-मौजूदगी ने इस संगठन को कमजोर कर दिया. इसमें कनाडा, जापान, ऑस्ट्रेलिया समेत प्रशांत क्षेत्र के 12 देश और आसियान (ASEAN) देश शामिल थे. अगर अमेरिका ट्रांस-पैसेफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) से बाहर ना निकलता तो इसकी वैश्विक जीडीपी में 40 फीसदी की हिस्सेदारी होती. ट्रंप राष्ट्रपति बनने के बाद से अब तक कुल 12 अंतरराष्ट्रीय संगठनों और संधियों से अमेरिका को अलग कर चुके हैं.
एक उदाहरण ईरान का भी है. अमेरिका ने ईरान के साथ हुई परमाणु डील से बाहर
होने के बाद उस पर कई कड़े प्रतिबंध थोप दिए. ईरान की अर्थव्यवस्था इन
प्रतिबंधों की वजह से बुरी तरह प्रभावित हुई. हाल ही में, संकट से उबरने के लिए ईरान ने चीन के साथ 25 सालों के लिए अरबों डॉलर की रणनीतिक-आर्थिक समझौता कर लिया.
मध्य-पूर्व में अमेरिका का दबदबा हुआ करता था जबकि चीन की भूमिका सीमित
होती थी लेकिन अब इस समझौते के बाद इस क्षेत्र में चीन की पकड़ मजबूत होगी.
विश्लेषक कह रहे हैं कि चीन के साथ इस बड़ी रणनीतिक साझेदारी के लिए
अमेरिका ने ही ईरान को मजबूर कर दिया.
एशिया में जापान और दक्षिण कोरिया के साथ अमेरिका के खास रिश्ते थे. दोनों देशों की सेना और उनकी सुरक्षा में अमेरिका की अहम भूमिका रही है. लेकिन ट्रंप ने साफ कह दिया कि जापान अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद ले. दक्षिण कोरिया के मामले में भी ट्रंप ने यही किया. दक्षिण कोरिया को उत्तर कोरिया से सबसे ज्यादा खतरा है लेकिन ट्रंप ने किम जोंग उन से बात करना ज्यादा ठीक समझा.
ट्रंप की अमेरिका फर्स्ट की मार केवल कनाडा, जापान, दक्षिण कोरिया, और मेक्सिको पर ही नहीं पड़ी बल्कि इसका शिकार भारत भी बना. भारत को अमेरिका से निर्यात में कई तरह की छूट मिलती थी जिसे ट्रंप ने खत्म कर दिया और भारत की आर्थिक नीतियों की आलोचना भी की.
विश्लेषकों का कहना है कि चीन पर हथियार नियंत्रण और निगरानी के लिए दबाव बनाने में भी अमेरिका तब ज्यादा कामयाब होता अगर वह खुद हथियार नियंत्रण के तीन अहम समझौतों से बाहर ना हुआ होता. अमेरिका रूस के साथ रणनीतिक परमाणु हथियारों को सीमित करने वाले न्यू स्टार्ट समझौते से भी निकलने की ओर अग्रसर है. यही नहीं, जब पूरी दुनिया कोरोना वायरस की महामारी से जूझ रही है तो अमेरिका ने विश्व स्वास्थ्य संगठन से बाहर होने का फैसला कर लिया. अमेरिका ने कहा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन पर चीन का कब्जा हो गया है. वैश्विक नेतृत्व की भूमिका से अमेरिका के खुद ही पीछे हटने का ये एक और उदाहरण था.
ट्रंप प्रशासन कोरोना वायरस से निपटने में भी पूरी तरह नाकाम रहा है.
कोरोना हॉटस्पॉट होने की वजह से तमाम देशों ने अमेरिकियों के आने पर पाबंदी
लगा दी है. चीन के खिलाफ तमाम देशों को एकजुट करने की अमेरिकी राजदूतों की
कोशिशों को इससे भी झटका लगा है.
जब अमेरिका की कूटनीति सबसे कमजोर दौर में पहुंच गई है और वह चीन के खिलाफ सहयोगियों को खड़ा करने में जुटा है, तो चीन अकेले ही अमेरिका से बेहतर तरीके से निपटता दिख रहा है.