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हरिशंकर तिवारी ने ऐसे कायम की थी पूर्वांचल की पॉलिटिक्स में ब्राह्मणों की धमक

यूपी की सियासत पूर्वांचल से तय होती है. यहां सवर्ण मतदाताओं में सबसे ज्यादा ब्राह्मण समुदाय के हैं. ब्राह्मण पूर्वांचल की सियासत में सबसे अहम भूमिका निभाते हैं. ये बात हरिशंकर तिवारी को छात्र राजनीति के दौरान ही पता चल गई थी. तेज दिमाग वाले हरिशंकर ने ब्राह्मण अस्मिता के नाम पर युवाओं को अपने साथ गोलबंद करना शुरू किया था.

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Harishankar Tiwari
Harishankar Tiwari

पूर्वांचल की सियासत में 70 के दशक में गोरक्षनाथ पीठ का सिक्का चलता था. जहां से सिर्फ गोरखपुर ही नहीं बल्कि पूरे पूर्वांचल की राजनीतिक दशा-दिशा तय होती थी. गोरखनाथ मंदिर में बकायदे जनता दरबार लगाया जाता था. यहां से कई ऐसे फरमान जारी होते जिसे मानने में प्रशासन और लोग अपनी भलाई समझते. पूर्वांचल की छात्र राजनीति से लेकर ठेकेदारी-रंगदारी में पूरी तरह से ठाकुरों का दबदबा कायम था. मठ इतना मजबूत था कि कुछ अफसर भी इसकी काट खोजने में लग गए थे. 

हरिशंकर तिवारी ने पावर, क्राइम और पॉलिटिक्स का जबरदस्त ‘कॉकटेल’बनाया. सबसे पहले गोरखपुर विश्वविद्यालय से ठाकुरों का वर्चस्व खत्म किया. फिर मठ के समानांतर अपनी एक अलग व्यवस्था बनाई. फिर तिवारी हाता में परिवारिक विवाद से लेकर जमीन के झगड़े तक सभी मामले सुलझाए जाने लगे. गोरखपुर में शक्ति के दो ध्रुव बन गए. एक मठ और एक हाता. ये सब कर दिखाया हाता वाले बाबा हरिशंकर तिवारी ने, जिन्होंने मंगलवार को 86 वर्ष की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

उनके जाने के बाद सवाल उठने लगे हैं कि अब पूर्वांचल में ब्रह्मणों का चेहरा कौन होगा. पिछले 10 वर्षों से हरिशंकर तिवारी राजनीति में निष्क्रिय हो गए थे, लेकिन हालात ऐसे बने कि पूर्वांचल की राजनीति से ब्राह्मणों के बड़े चेहरे गायब हो गए. कुछ राज्यपाल बन गए तो कुछ के आड़े उम्र आ गई. 

बाहुबली का 'हाता', पूर्वांचल की पॉलिटिक्स और कास्ट-क्राइम का कॉकटेल...हरिशंकर तिवारी ने यूं किया था राज

पूर्वांचल की सियासत में ब्राह्मणों की अहम भूमिका

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कहा जाता है कि देश की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है और यूपी की सियासत पूर्वांचल से तय होती है. यहां सवर्ण मतदाताओं में सबसे ज्यादा ब्राह्मण समुदाय के हैं. ब्राह्मण पूर्वांचल की सियासत में सबसे अहम भूमिका निभाते हैं. ये बात हरिशंकर तिवारी को छात्र राजनीति के दौरान ही पता चल गई थी. तेज दिमाग वाले हरिशंकर ने ब्राह्मण अस्मिता के नाम पर यहां पढ़ने वाले युवाओं को अपने साथ जोड़ना शुरू किया. इस दौरान पावर, क्राइम और पॉलिटिक्स के‘कॉकटेल’ का प्रयोगशाला बना गोरखपुर विश्वविद्यालय. धीरे-धीरे उन्होंने मठ के समानांतर अपनी अलग व्यवस्था बना ली.  ब्राह्मण उन्हें अपना मसीहा मानने लगे थे. पूर्वांचल में हरिशंकर तिवारी का सिक्का इस कदर चला कि उनके समर्थन में जय-जय शंकर, जय-जय हरिशंकर के नारे लगने लगे. हनक ऐसी कि रेलवे के ठेकों पर भी उनका कब्जा होने लगा. इस दौरान वीरेंद्र प्रताप शाही और उनकी अदावत की खूब चर्चा रही. 80-90 के दशक में दोनों के बीच चलें गैंगवार में खूब लाशें गिरी. उस दौरान गोरखपुर को  "शिकागो ऑफ इंडिया" कहा जाने लगा गया था. 

सियासत में पूरी तरह से ऐसे रखा कदम

1985 तक आते-आते हरिशंकर तिवारी ने ये समझ लिया था अगर लंबे समय तक अपनी ताकत कायम रखनी है तो राजनीति को पूरी तरह से अपनाना होगा.  फिर क्या 1985 का विधानसभा चुनाव जेल में रहते हुए चिल्लूपार से निर्दलीय चुनाव लड़ा. इस चुनाव में उन्हें भारी मतों से जीत हासिल हुई. इसके बाद से वह अलग-अलग दलों से 6 बार विधायक चुने गए. तकरीबन हर सरकार में मंत्री रहे. हालांकि, 2007 में वह बसपा के प्रत्याशी राजेश त्रिपाठी से चुनाव हार गए. फिर उन्होंने अपनी राजनीतिक विरास अपने बेटों कुशल तिवारी और विनय शंकर तिवारी को सौंप दी. विनय शंकर चिल्लूपार के विधायक तो कुशल तिवारी दो बार संतकबीर नगर से सांसद रह चुके हैं. हालांकि, अपने पिता हरिशंकर तिवारी की तरह वे अपना जनाधार बनाने में कामयाब नहीं हो पाए.हरिशंकर तिवारी के निधन के साथ पूर्वांचल में अब ब्राह्मणों को गोलबंद करने वाले चेहरे का अभाव दिख रहा है.

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अमरमणि की राजनीति का अवसान

पूर्वांचल की राजनीति की बात हो और अमरमणि त्रिपाठी का जिक्र नहीं हो ऐसा हो ही नहीं सकता है. राजनीति और अपराध दोनों में अमरमणि ने खूब नाम कमाया. मारपीट, हत्या, किडैनैपिंग, लूटपाट जैसे कई मामले उनके ऊपर दर्ज थे. अपने सारे अपराधों को छिपाने के लिए सियासत का सफेद चोला ओढ़ लिया. 1996 में अमरमणि त्रिपाठी ने पहली बार नौतनवा सीट से कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़े और जीत भी दर्ज की. इसके बाद अलग-अलग पार्टियों से वह चुनाव लड़ते रहे और जीत हासिल की. साल 2007 में अमरमणि ने जेल में रहकर चुनाव जीता. इस बीच  सरकारें बदलती रहीं, अमरमणि त्रिपाठी को मंत्री पद मिलता रहा. कवियत्री मधुमिता हत्यकांड में अमरमणि का नाम आने के बाद ये सिलसिला खत्म हुआ.

अमरमणि ने अपनी राजनीतिक विरासत को बचाए रखने के लिए अपने बेटे अमनमणि को मैदान में उतारा.  2017 के विधानसभा में अपने पिता की तरह जेल में रहते हुए अमनमणि ने भी नौतनवा सीट निर्दलीय चुनावी मैदान में ताल ठोंकी. चुनाव जीत कर विधायक बने.  हालांकि, 2022 के विधानसभा चुनाव में अमनमणि को करारी हार मिली अपने पिता की तरह अमनमणि त्रिपाठी का दामन भी दागदार रहा है. 2015 में उन पर अपनी पत्‍नी सारा सिंह की हत्‍या करने का आरोप लगा था.

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शिवप्रताप के 50 साल के सियासी सफर का ऐसे हुआ अंत

हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल शिवप्रताप शुक्ला भी पूर्वांचल के कद्दावार बीजेपी नेताओं में गिने जाते रहे हैं.  50 वर्षों के सियासी सफर में उन्होंने काफी उतार चढ़ाव देखें. प्रदेश सरकार में उन्हें 3 बार मंत्री बनाया गया.   गोरखपुर से 1989 में कांग्रेस के सुनील शास्त्री को हराकर पहली बार विधानसभा में पहुंचे. 1989, 1991, 1993 और 1996 में लगातार गोरखपुर से विधायक चुने गए. साल 2002 में बीजेपी ने उन्हें फिर प्रत्याशी बनाया. हालांकि, उस वक्त के गोरखपुर के सांसद और वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया. वह  राधामोहन दास अग्रवाल के खिलाफ चुनाव हार गए.  इसके बाद से ही वे पूर्वांचल की राजनीति में हाशिये पर चले गए. 2016 में उनका राजनीति वनवास खत्म हुआ. साल 2016 में उन्हें राज्यसभा सदस्य बनाया गया. 2017 में वह केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री बनाए गए. साल 2019 तक वे मंत्री रहे. साल 2022 में उनका राज्यसभा कार्यकाल समाप्त हो गया. इसके बाद उन्हें हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल पद की जिम्मेदारी सौंप दी गई. 

बाहुबली नेता और यूपी के पूर्व कैबिनेट मंत्री हरिशंकर तिवारी का निधन
 

रमापति राम त्रिपाठी के रास्तें में उम्र आ रही आड़े

रमापति राम त्रिपाठी इस समय देवरिया से बीजेपी के सांसद हैं. साल 2019 में कलराज मिश्र ने बीजेपी  के राजनीति से संन्यास ले लिया. उनकी जगह रमापति राम त्रिपाठी को टिकट दिया गया. वह चुनाव जीत गए. रमापति राम त्रिपाठी की उम्र भी 72 वर्ष हो चली है. पार्टी के नियमों के मुताबिक उन्हें 72 वर्षों में राजनीति से  संन्यास लेना होगा. ऐसे में 2024 के लोकसभा में उन्हें टिकट मिलना मुश्किल लग रहा है. उनके बेटे शरद त्रिपाठी को उनका राजनीतिक वारिस माना जाता था, लेकिन साल 2021 में सिरोसिस नाम की बीमारी के चलते उनकी मृत्यु हो गई.

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कलराज मिश्र के सियासी सफर का ऐसे हुआ अंत

कलराज मिश्र बीजेपी के सबसे बड़े ब्राह्मण चेहरे के तौर पर देखे जाते है. वह 3 बार विधान परिषद के सदस्य रहे. बीजेपी की सरकार जब भी उत्तर प्रदेश में रही तो उन्हें मंत्रिमंडल में कई अहम जिम्मेदारियां सौंपी गई. वह दो बार दो बार राज्यसभा के सदस्य भी रहे.  2012 में उन्होंने लखनऊ के पूर्वी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा और जीता भी. 2014 में उन्हें देवरिया से लोकसभा टिकट दिया गया. इस चुनाव में वह भारी वोटों से जीत भी दर्ज करने में कामयाब हुए. 2014 से 2019 तक केंद्रीय मंत्री रहें. पार्टी के नियमों के मुताबिक 75 साल के उम्र हो जाने के चलते इस्तीफा दे दिया. इसके साथ ही पूर्वांचल के एक बड़े ब्राह्मण नेता की सक्रिय राजनीति का अंत हो गया. 2019 में उन्हें हिमाचल प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया. फिलहाल, वह राजस्थान के राज्यपाल हैं.

 

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