दिल्ली में जनवरी की एक सर्द रात थी. शादी समारोह में मेहमान शामियाने के नीचे पालथी मारकर बैठे थे, तभी दुल्हन का भाई बोलने के लिए उठा. उसने एक-एक करके अपनी बहन और उसके 'नए परिवार' को देने वाले गिफ्ट की लिस्ट बनाई. उसने बोलना शुरू किया कि एक चमचमाती कार, 30 तोले सोना, फर्नीचर और होम अप्लाइंसेस. भीड़ ने तालियां बजाईं. मोबाइल फोन से रिकॉर्डिंग की गई. बाद में इसकी क्लिप इंस्टाग्राम पर वायरल हो गई और उन्हें लाइक्स और हार्ट वाले इमोजी मिले. जिसे कभी 'दहेज' कहा जाता था, अब उसे सबके सामने ऑनलाइन दिखाया जा रहा है. भले ही कानून दहेज को अपराध मानता है. फिर भी कई घरों में इसे आज भी 'रिवाज़' (परंपरा) के रूप में दिखाया जाता है और इंस्टाग्राम रील्स पर ये अक्सर 'स्टेटस' दिखाने के लिए वायरल हो जाता है.
पिछले हफ़्ते ग्रेटर नोएडा में एक युवा दुल्हन निक्की भाटी, कथित तौर पर दहेज की मांग के कारण अपनी जान गंवा बैठी. उसकी मौत नेशनल लेवल पर चर्चा का विषय बन गई, जिससे लोगों में आक्रोश फैल गया. लेकिन उसके अपने परिवार पर करीब से नजर डालने पर एक और परेशान करने वाला तथ्य सामने आता है. जिस घर में ये त्रासदी हुई, उसी घर में पहले भी दहेज का मामला सामने आ चुका है. निक्की की भाभी ने आरोप लगाया कि उन्हें भी दहेज के लिए प्रताड़ित किया गया था और विडंबना ये कि उस समय निक्की खुद अपने भाई के साथ भाभी के खिलाफ खड़ी थी.
दहेज अब रील्स में हो रहा महिमामंडित
दहेज की प्रथा ने एक महिला की जान ले ली और दूसरी को जख्म दिए, लेकिन सोशल मीडिया पर यह अब भी मज़ाक और दिखावे का ज़रिया बनी हुई है. रील्स और शॉर्ट्स में दूल्हे अपनी दहेज में मिली लग्ज़री कारों, ट्रैक्टरों और हथियारों के साथ पोज़ देते दिखते हैं. ये सब उस प्रथा को महिमामंडित करता है जिस पर कानून पहले ही रोक लगा चुका है.
इन रील्स पर कुछ इस तरह के कॉमेंट्स किए गए
'दहेज लेने के लिए जिसकी औकात होती है, उससे ही दहेज मिलता है'
'हमेशा याद रखें, गिफ्ट अमीर दूल्हों के लिए होते हैं, गरीब मजदूरों के लिए नहीं'
'बस ऐसा ससुर मिल जाए, तो ज़िंदगी सेट है'
जो दहेज पहले गांव की चौपाल तक सीमित था, अब डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर दिखाया जा रहा है. इन रील्स को हज़ारों लाइक्स मिल रहे हैं, इस बात की परवाह किए बिना कि ये असल में दहेज प्रथा को सामान्य बना रहे हैं.
सोशल मीडिया पर शादी की रील्स में दूल्हे नई SUV चलाते, नोटों की गड्डियां गिनते और सोने की चेन के साथ पोज़ देते दिखाई दे रहे हैं. इन रील्स के कैप्शन में लिखा है- 'शादी के तोहफ़े', 'ससुरजी का प्यार'. युवाओं के लिए ये रील्स एक तरह से 'प्रेरणा' हैं.
'दहेज देना अब होड़ बन गया'
आजतक से बात करते हुए दिल्ली में गुज्जर समुदाय के नेता धर्मेंद्र भगत ने कहा कि हमारी संस्कृति में यह मान-सम्मान की बात हुआ करती थी. हर पिता अपनी बेटी को गहने उपहार में देना चाहता है और इसे दहेज़ नहीं समझा जाना चाहिए. पहले यह लेन-देन गांव के बुजुर्गों के सामने होता था, लेकिन अब यह इस होड़ में बदल गया है कि कौन बड़ी कार दे सकता है.
नए मंच से हो रहा दहेज का प्रचार!
दहेज हमेशा दिखावे पर टिका रहा है. कहीं पड़ोसियों को कार दिखानी है, कहीं पूरे गांव को सोना. फर्क बस इतना आया है कि अब इसका मंच बदल गया है. इंस्टाग्राम और यूट्यूब ने इस पुराने कुचक्र को नया पैमाना दे दिया है. यहां दहेज को न सिर्फ़ दिखाया जाता है, बल्कि एक तबका इसे बढ़ावा भी देता है.
दिखावे का जरिया बना दहेज
दिल्ली में गुज्जर समुदाय के एक अन्य प्रतिनिधि उपेंद्र करहाना ने आजतक से कहा कि हमारे युवा फोन और सोशल मीडिया को हैंडल नहीं कर पाते. निक्की मामले में भी असली मुद्दा इंस्टाग्राम रील्स का था. दहेज में भी अब बात मान-सम्मान की नहीं रह गई है. बात यह है कि किसके पास दिखाने के लिए स्कॉर्पियो है, और यह ख़ास तौर पर उन लोगों के लिए सच है जिनके पास अचानक नया पैसा आ गया है. डिजिटल संस्कृति के साथ दहेज़ अब मीडिया कंटेंट में बदल गया है. दहेज अब छिपाया नहीं जाता, बल्कि दिखावा किया जाता है. दुनिया भर में प्रसारित किया जाता है. इसी समुदाय के एक बुज़ुर्ग चंद्रपाल अवान ने आगे कहा कि हमने दहेज़ संस्कृति को रोकने की कोशिश की है. हमने कई पंचायतें की हैं, पंचायत के दौरान लोग इसे रोकने के लिए राज़ी हो जाते हैं, लेकिन जब उनकी बारी आती है, तो वे खुद दहेज ले लेते हैं.
प्रतिष्ठा का प्रतीक बना दहेज
दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी यूपी में गुज्जर समुदाय के बीच दहेज प्रतिष्ठा का प्रतीक बना हुआ है. गांवों में दहेज़ की सूची में ट्रैक्टर, एसयूवी, ज़मीन और हथियार तक शामिल होना आम है. समाजशास्त्रियों का कहना है कि यह लालच से कम और दिखावे की संस्कृति से ज़्यादा जुड़ा है.
क्या बोले समाजशास्त्री?
आजतक से बात करते हुए जाने-माने समाजशास्त्री शिव विश्वनाथन कहते हैं कि दहेज भारतीय समाज में आम तौर पर पाखंड है, और यह सांस्कृतिक हो गया है. दहेज प्रथा को वस्तु और व्यापार मान लिया गया है. हम अक्सर बाइक और कार वाले लोगों का मूल्यांकन करते हैं. बात सिर्फ़ दुल्हन के साथ आने वाली चीज़ों की नहीं है, बल्कि पिता द्वारा अपनी संपत्ति साबित करने, दूल्हे द्वारा अपनी योग्यता साबित करने और समुदाय द्वारा दोनों को मान्यता देने की है.
'दहेज से लड़ने का कोई प्रयास नहीं किया गया'
जब एक समुदाय दहेज संस्कृति जैसी कुप्रथा की रक्षा करता है, तो उसका विनाश कैसे हो सकता है? इस पर विश्वनाथन कहते हैं कि दहेज से लड़ने का कोई वास्तविक प्रयास नहीं किया गया है, जैसे बाल विवाह और विधवा संस्कृति से लड़ने का वास्तविक प्रयास किया गया था, लेकिन दहेज से लड़ने के लिए उस पैमाने पर कोई लड़ाई नहीं है. भारत से सामाजिक सुधार लगभग लुप्त हो चुके हैं. सामाजिक सुधार के बिना कानूनी सुधार संभव नहीं है.
क्या है कानून?
भारत में 1961 में दहेज पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. आईपीसी (घरेलू हिंसा अधिनियम) की धारा 498A पति या रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता को अपराध मानती है. धारा 304बी विशेष रूप से दहेज हत्या से संबंधित है. फिर भी NCRB (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो) बताता है कि हर साल 6000 से ज़्यादा दहेज हत्याएं होती हैं. जबकि दोषसिद्धि दर कम बनी हुई है.कानूनी तौर पर प्रवर्तन कमज़ोर है, क्योंकि समाज दहेज को अपराध नहीं मानता या रिपोर्ट नहीं करता. जो "उपहार" या "स्वैच्छिक उपहार" के रूप में दिया जाता है, वह अक्सर अपराध बन जाता है जब वह दूल्हे की अपेक्षा से कम होता है.