एक जाट बस ड्राइवर के इस लड़के ने सपने में भी नहीं सोचा था कि वह कुश्ती का पोस्टर ब्वॉय बनेगा, लेकिन 12 साल की उम्र से जो अभ्यास उन्होंने शुरू किया था उसमें कड़ी मेहनत और समर्पण की भावना का आखिरकार उन्हें फल मिला, जब हाल ही में उन्हें विश्व चैंपियन के खिताब से नवाजा गया.
सफरः 1998 में जब पोलैंड में हुए वर्ल्ड कैडेट गेम्स में उन्होंने स्वर्ण जीता, तभी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्हें पहचाना जाने लगा था. उसके बाद 2000 में एशियन रेसलिंग चैंपियनशिप में उन्होंने फिर स्वर्ण जीता और 2007 में उन्हें अर्जुन पुरस्कार मिला.
हालांकि 2007 की विश्व कुश्ती चैंपियनशिप में उन्हें सातवीं रैंकिंग मिली थी, फिर भी उन्होंने 2008 के बीजिंग ओलंपिक के लिए क्वालिफाई किया और वहां उन्हें कांस्य पदक मिला. और अंत में, इस सप्ताह वे विश्व चैंपियन का खिताब हासिल करने वाले पहले भारतीय पहलवान बने.
चुनौतीः एक बस ड्राइवर के बेटे से इस उपलब्धि तक पहुंचने की उनकी कहानी फर्श से अर्श तक पहुंचने की कहानी है. मिट्टी के अखाड़े में प्रशिक्षण लेने से लेकर एक कमरे में 20 लड़कों के साथ ट्रेनिंग लेना आसान काम नहीं था. ''मुझे और मेरे परिवार को ईश्वर ने जो कुछ दिया है, उससे मैं हमेशा खुश रहता आया हूं. मैं जानता हूं कि परिवार के लिए जो कुछ भी करना है, वह मुझे ही करना है.''
प्रेरणाः पिता दीवान सिंह और चचेरे भाई संदीप से प्रेरणा मिली, ये दोनों पहलवान थे. सुशील उनके साथ अखाड़ा जाते थे और सातवीं में पढ़ते हुए उन्होंने कुश्ती का बाकायदा प्रशिक्षण लेना शुरू किया.
गुरुः अर्जुन पुरस्कार प्राप्त सतपाल, जिनसे उन्होंने करीब 13 साल तक ट्रेनिंग ली. हाल ही में विश्व चैंपियनशिप जीतने पर फोटो खिंचवाते हुए जब खेल मंत्री एम.एस. गिल ने सतपाल को दूर हटने के लिए कहा था, तब सुशील कुमार अपने गुरु को पकड़े हुए थे.
वे मानते हैं कि सतपाल ने उनमें अनुशासन और कुश्ती के प्रति समर्पण की भावना भरी, ''कोच साहब मेरे लिए पिता की तरह हैं. मैं जब बच्चा था, तभी से उनके पास ट्रेनिंग ले रहा हूं. मुझ पर उनका सर्वाधिक प्रभाव है और मेरी सबसे अधिक मदद भी उन्होंने की.''