इस इलाके में कबूतर भी एक पंख से उड़ता हो और दूसरे से अपनी इज्जत बचाता हो उस इलाके में इंसानों की क्या हालत होगी? हाल ही में आई फिल्म 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' में वासेपुर की कुछ ऐसी ही तस्वीर पेश की गई है. पर क्या सचमुच वासेपुर ऐसा ही है? क्या वहां सिर्फ खून-खराबा और गैंगवार ही है? या फिर असलीयत कुछ और है?
पर क्या वाकई वासेपुर इतनी खतरनाक जगह है? इतनी खतरनाक जगह जहां....परिंदों को भी अपनी इज्जत का खतरा है?
फिल्म में जिस वासेपुर का जिक्र किया गया है वो झारखंड के धनबाद जिले में है. कोयला माफियाओं के खूनी इतिहास के साथ-साथ सन सैंतालिस की त्रासदी, मजदूरों पर जुल्म, डरी-सहमी पुलिस, भ्रष्ट नेता और बेखौफ माफिया को मिला कर इस फिल्म के जरिए वासेपुर की तस्वीर पेश करने की कोशिश की गई है,
फिल्म गैंग्स ऑफ़ वासेपुर की वजह से धनबाद समेत पूरा कोयलांचल इन दिनों सुर्खियो में है. वजह है इसमें दिखाई गई वर्चस्व के लिए दो गुटों की आपसी अदावत और इसे लेकर किसी भी हद तक जाने का जूनून. साथ में वासेपुर की बोलचाल के नाम पर परदे पर इस्तेमाल की गई गालियां और बोल्ड डायलॉग.
पर फिल्म में जिस तरह से वासेपुर के माहौल, रहन-सहन और गाली-गलौज दिखाया गया है वो दरअसल हकीकत से कोसो दूर है.
फिल्म के मुताबिक इस इलाके में सिर्फ अपराधियो की तूती बोलती है. फिल्म की मानें तो इस मोहल्ले में दाखिल होने के लिए पहले इजाज़त लेनी पड़ती है.
इस फिल्म में वासेपुर को गंदगी से लबरेज है और तंग-संकरी गालियों से अटा पड़ा दिखाया गया है. जबकि हकीकत ये नहीं है. यहां पक्की सड़कें और बहुमंजिली इमारतें हैं. मोहल्ला गंदा भी इतना नहीं है. और सबसे बड़ी बात वासेपुर के लोग खुलेआम दिन-रात बेखौफ कहीं भी घूमते-फिरते हैं.
जहां तक बात इतिहास की है तो धनबाद के एक मशहूर बिल्डर वासे साहब ने 1956 में यहां के जंगलों को काटकर इस मोहल्ले के नींव रखी थी. बाद में उन्ही के नाम पर इस मोहल्ले का नाम वासेपुर रख दिया गया. कहते हैं कि तब इस मोहल्ले में सिर्फ सौ लोग बसते थे. पर अब यहां की आबादी करीब डेढ़ लाख है.
लेकिन फिल्म रिलीज होने के बाद से ही ये मोहल्ला बदनाम हो गया है. वासे साहब के एक रिश्तेदार के मुताबिक इस फिल्म की वजह से अब वे जहां भी जाते है लोग उन्हें गलत नज़रो से देखते हैं. यहां तक कि अब लोग वासेपुर में शादी के लिए अपनी बेटी तक देने से मना करने लगे हैं.
वैसे ये सच है कि बीते चार दशको में यहां कोयला, रेलवे और लोहे के अवैध कारोबार की वजह से हुई आपसी रंजिश में बीसियों क़त्ल हो चुके हैं. जिनमे नामचीन लोगों से लेकर छोटे-छोटे प्यादे तक शामिल है. लेकिन अब ये क़स्बा अतीत को कहीं पीछे छोड़ चूका है. पहले के मुकाबले अब यहां के लोगों का रहन-सहन बदल चुका है. पढ़ाई के लिए यहां स्कूल से लेकर कालेज तक खुल चुके हैं. रोजगार और कारोबार के सिलसिले में इस मोहल्ले के बहुत सारे लोग विदशो तक में जाकर काम कर रहे हैं.
अब सवाल ये है कि जब वासेपुर ऐसा है तो फिर गैंग्स ऑफ वासेपुर कैसे पैदा हो गया? तो इसकी भी पूरी कहानी है.
दरअसल फिल्म में जिन दो कुनबो के बीच लड़ाई का ताना बाना बुना गया है वो दोनों वासेपुर के ही रहने वाले हैं. इनमें से एक फहीम खान इस वक्त हजारीबाग जेल में उम्रकैद की सजा काट रहा है. तो वहीं दूसरा साबिर अंसारी अभी हाल ही में पेरोल पर जेल से बाहर आया है.
फ़हीम खान और साबिर अंसारी की इसी दुश्मनी पर ज़ीशान क़ादरी नाम के लेखक ने एक उपन्यास लिखा था. और उसी उपन्यास पर ये फिल्म बनी है. खुद ज़ीशान क़ादरी भी इसी वासेपुर के रहने वाले हैं.
वासेपुर के इसी क़मर मख़दूनी गली में फहीम और साबिर का पुश्तैनी मकान है. पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक इन दोनों पड़ोसियों के बीच हुए खुनी गैंगवार में बहुत से लोगों की जानें गईं. इनमें फहीम की मां, भाई और मौसी की जानें शामिल थीं तो वहीं दूसरी तरफ साबिर के भाई समेत उसके कई रिश्तेदारों और प्यादों को भी फहीम के गुर्गो ऩे मौत के घाट उतार दिया. पर इन कत्लेआम के बाद भी इन दोनों कुनबो के बीच की रंजिश कम नहीं हुई और आज भी वे एक दुसरे के खून के प्यासे बने हुए है.
हालांकि दूसरी तरफ वासेपुर के आम लोगों का कहना है की फहीम खान और साबिर के बीच चल रहे गैंगवार में पुरे वासेपुर को घसीटा जाना गलत है. फिल्म के टाइटल से नाहक ही ये मोहल्ला बदनाम हो रहा है.
वैसे शायद वासेपुर के लोगों को पहले ही अंदाज़ा हो गया था कि फिल्म में क्या दिखाया जाने वाला है. यही वजह है कि फिल्म रिलीज होने के बावजूद इस फिल्म का एक भी पोस्टर वासेपुर में नहीं लगा. यहां तक कि फिल्म का नाम बदलवाने के लिए लोग अदालत तक जा पुहंचे.