दिनकर, बच्चन, अज्ञेय, शमशेर के बाद मैथिली और हिन्दी के जनप्रिय कवि नागार्जुन की जन्मशती शुरू हो चुकी है, लेकिन देश में सांस्कृतिक उपेक्षा का आलम यह है कि अब तक किसी सरकारी संस्था ने उनकी जन्मशती के आयोजन को लेकर कोई हलचल नहीं दिखाई दे रही है.
वरिष्ठ आलोचक व चिंतक डा. विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा, ‘स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े रहे राजनेताओं में साहित्य चेतना थी. आजादी के बाद नेहरू ने व्यक्तिगत रूचि लेकर सांस्कृतिक संस्थायें आरंभ की थी, क्योंकि नेहरू खुद एक लेखक थे.’ नेहरू द्वारा निराला और शास्त्री द्वारा मुक्तिबोध की सहायता का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि साहित्यकार मूक को वाणी देने का कार्य करता है. इसलिए उसकी उपेक्षा करने से समाज का अहित ही होगा.
उन्होंने रामचरण शुक्ल को उद्धृत करते हुए कहा, ‘जब लोग देश की भाषा और उसके लोगों से परिचित ही नहीं होंगे, वे देशप्रेम के बारे में क्या बात करेंगे.’ सत्तासीन लोगों पर समृद्ध और खुशहाल लोगों पर ध्यान देने का आरोप लगाते हुए कहा कि प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली राजभाषा समिति की बैठकें काफी कम होती हैं, जबकि यह संसद की प्रमुख समितियों में से एक है.
त्रिपाठी ने कहा, ‘‘हमें भारतीय भाषाओं और उसके लेखकों की उपेक्षा के काफी गंभीर परिणाम भुगतने होंगे, जो आने वाले वक्त में सामने आयेंगे.’
अज्ञेय और शमशेर की जन्मशती के आयोजन कर रहे अशोक बाजपेयी ने कहा, ‘अज्ञेय और शमशेर की जन्मशती के आयोजन का बीड़ा हमने इसलिए उठाया क्योंकि उनके परिवार नहीं है और उनकी विचारधारा वाला कोई संगठन भी नहीं है.’ वरिष्ठ कवि और आलोचक ने कहा कि यह लेखक समाज की तरफ से मूर्धन्य लेखकांे को विनम्र श्रद्धांजलि है.{mospagebreak}
बाबा नागार्जुन के बेटे सुकांत सोम ने पटना से फोन पर कहा, ‘लेखकों की जन्मशती या उनसे जुड़े आयोजनों के प्रति उपेक्षा का आलम यह है कि साहित्य अकादमी एक आयोजन के बाद अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेती है.’ उन्होंने कहा, ‘‘वहीं, राज्य सरकारों की इतनी चेतना ऐसी नहीं है कि वे अपनी विरासत को पहचानकर सहेज सके और इसलिए उनसे इस तरह की कोई उम्मीद ही नहीं की जानी चाहिए. सारे आयोजन निजी संस्थायें करती हैं.’
सोम ने कहा, ‘‘यह समस्या मुख्य रूप से हिन्दी पट्टी की है, जबकि बांग्ला, मराठी और उड़िया जैसी भाषाओं के लोगों में सांस्कृतिक चेतना है. हिन्दीभाषी राज्यों में जनता के धन से चलने वाली संस्थाओं में चेतना का सर्वथा अभाव है.’
उन्होंने आरोप लगाया, ‘नीतीश कुमार के पास इतनी फुर्सत नहीं थी कि वह 26 जून को बाबा नागार्जुन के जन्मशती कार्यक्रम में शामिल होते. इससे राज्य सरकारों की मानसिकता का पता चलता है.’ एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने दावा किया, ‘भारतीय राजनीति में सत्ता पर काबिज पीढ़ी को जानती ही नहीं है कि कबीर, टैगोर, निराला और नागार्जुन कौन है. ऐसे बौने व्यक्तित्व वाले लोगों से कोई उम्मीद लगाना बेमानी है.’