अविभाजित भारत में कभी हुकूमत-ए-इलाहिया (खुदा की सल्तनत) स्थापित करने का सपना देखने वाला और राजनीति को अपने सदस्यों के लिए वर्जित घोषित करने वाला 70 वर्ष पुराना सबसे बड़ा सामाजिक-धार्मिक संगठन जमात-ए-इस्लामी हिंद एक राजनैतिक पार्टी के गठन को लेकर आज भारी दुविधा में है.
पिछले हफ्ते जमात के दिल्ली मुख्यालय में राष्ट्रीय प्रमुख (अमीर) मौलाना जलालुद्दीन उमरी की अध्यक्षता में उसकी 19 सदस्यीय सर्वोच्च समिति मर्कजी मजलिसे शूरा तीन दिन तक अन्य विषयों के अलावा संगठन को एक राष्ट्रीय पार्टी का चेहरा प्रदान करने पर भी विचार करने के लिए जुटी. पर वह इसकी घोषणा नहीं कर पाई और उसने एक बेनामी पार्टी बनाने का फैसला किया.
जमात के राष्ट्रीय मामलों के सचिव मुद्गतबा फारूक बताते हैं कि उनका संगठन ऐसी राजनैतिक पार्टी की सख्त जरूरत महसूस कर रहा है जो मुसलमानों समेत कमजोर वर्गों के साथ न्याय कर सके. 'मौजूदा सियासी व्यवस्था की वजह से मुसलमानों और सामाजिक-आर्थिक तथा शैक्षणिक तौर पर कमजोर अन्य वर्गों को सामाजिक न्याय नहीं मिलता. यहां तक कि सांप्रदायिकता के खिलाफ बोलने वाली और समाजवाद के हक में लड़ने वाली वामपंथी पार्टियों से भी कोई उम्मीद नहीं दिखती, जबकि सामाजिक न्याय की रक्षा का दावा करने वाली राजद और सपा जैसी पार्टियां मुसलमानों को महज वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करती हैं.' {mospagebreak}
फारूक का कहना है कि इसके पहले जमात ने हालांकि अपनी पार्टी के गठन का फैसला किया था, लेकिन फिलहाल 'हमने ऐसे भले लोगों को (जो उसकी विचारधारा और उसूलों में आस्था रखते हैं) गोलबंद करने का फैसला किया है ताकि वे एक पार्टी का गठन करें और हम उनका समर्थन करेंगे.' अंदरूनी सूत्रों के अनुसार, पिछले विधानसभा चुनावों में असम में अपने सफल राजनैतिक प्रयोग से प्रोत्साहित होकर जमात ने सीधे या कुछ लोगों के एक समूह के जरिए एक पार्टी बनाने की आकांक्षा पालनी शुरू की.
जमात उलमा-हिंद समर्थित इत्र व्यवसायी मौलाना बदरुद्दीन अजमल के सहयोग से मुस्लिम पार्टियों को असम यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एयूडीएफ) में पिरोने के उसके प्रयोग ने पूर्वोत्तर के इस राज्य में हलचल मचा दी. एयूडीएफ ने 11 सीटें जीत लीं. लेकिन जमात परदे के पीछे रही क्योंकि राजनीतिकों के साथ मंच साझ करना उसके सदस्यों के लिए वर्जित है. 2007 में उसने असम का प्रयोग उत्तर प्रदेश में भी दोहराना चाहा, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली. {mospagebreak}
फिर भी 2009 के लोकसभा चुनावों में जमात ने एक 15 सूत्री पीपुल्स मेनिफेस्टो तैयार करके सभी राजनैतिक पार्टियों को भेजा और मांग की कि वे उसे अपने घोषणा पत्रों में शामिल करें. उत्तर प्रदेश में जमात के अमीर (प्रमुख) मुहम्मद अहमद ने बताया, 'गत वर्ष अक्तूबर में उनके संगठन ने एक राजनैतिक पार्टी, उसके संविधान और नीतियों की तफसील तैयार करने के अलावा मूल संगठन से उसके संबंधों पर विचार करने के लिए मजलिसे शूरा के सदस्य सैयद कासिम रसूल इलियासी, जो राजनैतिक और सामयिक मामलों की उर्दू पत्रिका अफकार-ए-मिली के संपादक भी हैं, की अध्यक्षता में एक तीन-सदस्यीय समिति गठित की थी.
सूत्रों के अनुसार, समिति को यही फैसला करना था कि क्या नई पार्टी जमात द्वारा समर्थित स्वतंत्र संगठन हो या भारतीय जनसंघ से बदलकर बनी भाजपा की तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राजनैतिक मुखौटा हो.' जमात के सदस्यों ने अमीर उमरी के इस स्पष्टीकरण को भी सामने रखा कि 'जमात-ए-इस्लामी हिंद ऐसी तंजीम है, जिसका एक मकसद है. मगर आज के सियासी माहौल में उसे एक ऐसी सियासी पार्टी की जरूरत महसूस हो रही है, जो मूल्यों पर टिकी सियासत करती हो. ऐसी सियासी पार्टी बनाने का वक्त आ गया है.' {mospagebreak}
दरअसल जमात एकमात्र ऐसा मुस्लिम संगठन है, जो समूचे उपमहाद्वीप में मुसलमानों के मानस को प्रभावित करने के लिए कुरान के उसूलों का इस्तेमाल करती है. पर उसके इस कट्टर सिद्धांत ने कि हर सदस्य इस्लाम के पहले नियम-अल्लाह के सिवा कोई खुदा नहीं और मुहम्मद उसके रसूल हैं-को मानें और इक्वामात-ए-दीन (यानी मजहब की स्थापना, सिद्धि और पालन) से जुड़े उसके मकसद पर चले, उसकी तरक्की का पहिया पीछे मोड़ दिया.
जाने-माने लेखक-कवि और मुंबई से प्रकाशित उर्दू दैनिक सहाफत के संपादक हसन कमाल बताते हैं, 'पूरे उपमहाद्वीप में जमात की तरक्की का पहिया महज उसके कट्टरपंथी नजरिए से नहीं, इसलिए भी पीछे मुड़ा कि उसने खुद को शहरी मध्यम वर्ग के मुसलमानों तक सीमित कर लिया. इनमें अनेक उन सामंती ताकतों के अवशेष थे, जिन्होंने भारत के विभाजन में भूमिका निभाई थी. इसके अलावा, मजहब को पूरी तरह लागू करने और मजहबी हुकूमत स्थापित करने का अपना सपना पूरा करने में उसने कभी आम मुसलमानों की समस्याएं समझने की कोशिश नहीं की. इससे उसकी तरक्की का पहिया पीछे मुड़ गया.' {mospagebreak}
पर स्थिति बदल रही है. गत सप्ताह मजलिसे शूरा की बैठक से पहले 13 जुलाई को जमात की आंध्र प्रदेश इकाई ने एक नए राजनैतिक मंच की घोषणा कर दी. द सिटीजंस फॉर पीस ऐंड जस्टिस (सीपीजे) नामक संगठन गरीबी तथा भ्रष्टाचार का उन्मूलन करने और सभी के लिए न्याय पक्का करने के एजेंडा को लेकर गठित किया गया. यह नया संगठन अपनी ताकत और लोकप्रियता की परख आने वाले स्थानीय निकाय चुनावों में करेगा.
आंध्र प्रदेश के विभिन्न भागों से आए सदस्यों ने एक रैली में इसके प्रति निष्ठा की शपथ ली, जहां स्वच्छ राजनीति करने की घोषणा की गई. सीपीजे के संयोजक अब्दुल जब्बार सिद्दीकी ने ऐलान किया कि उनका संगठन चुनावों में अच्छे चाल-चलन और स्वच्छ छवि वाले लोगों को उम्मीदवार बनाएगा. 'हम यह पक्का करने की कोशिश भी करेंगे कि सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का फल सभी सुपात्र लोगों तक पहुंचे.' फारूक के अनुसार, जमात स्थानीय निकायों के चुनाव चुपचाप लड़ती आ रही है और इससे पहले उसने कर्नाटक में स्थानीय निकायों की 42 सीटों पर चुनाव लड़कर 14 स्थान जीते थे. {mospagebreak}
वे बताते हैं कि इस बार जमात तेलंगाना क्षेत्र में ऐसी 250 सीटों और केरल में 700 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. जमात का कहना है कि उसकी सामाजिक जिम्मेदारी दीन (इस्लामी जीवन शैली) को लागू करना है और राजनैतिक जिम्मेदारी अब स्थानीय निकायों अथवा स्थानीय स्तर की राजनीति में हिस्सा लेना है. स्थानीय निकाय स्तर की राजनीति को सामने रखते हुए जमात ने अलग तेलंगाना राज्य की मांग का समर्थन कर ही दिया है.
इस साल 7 फरवरी को उसने हैदराबाद के निजाम कॉलेज मैदान में रैली कर यह घोषणा की कि तेलंगाना राज्य की मांग उसकी भी मांग है. जमात की आंध्र प्रदेश तथा उड़ीसा इकाइयों और मूवमेंट फॉर पीस ऐंड जस्टिस (एमपीजे), स्टुडेंट्स इस्लामिक आर्गेनाइजेशन (एसआइओ) और गर्ल्स इस्लामिक आर्गेनाइजेशन (जीआइओ) सरीखे उसके आनुषंगिक संगठनों की इस सभा में हैदराबाद और क्षेत्र के नौ अन्य जिलों से हजारों मुसलमानों ने शिरकत की. बड़ी संख्या में बुर्काधारी महिलाएं और लड़कियां भी सभा में शामिल हुईं. तेलंगाना राज्य के लिए लड़ रही विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के नेताओं ने रैली को संबोधित किया. {mospagebreak}
दरअसल, जमात आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल समेत सभी दक्षिण राज्यों में मजबूत है. लेकिन प्रेक्षकों का कहना है कि बदलते वक्त और पीढ़ी के साथ उसने कोई 62 साल पहले अपना नया अवतार लेने के बाद पहली बार बदलना शुरू किया है. जमात की स्थापना 26 अगस्त, 1941 को लाहौर में जाने-माने मुस्लिम विचारक मौलाना अबुल अल मौदूदी ने हुकूमत-ए-इलाही स्थापित करने के मकसद से की थी. विभाजन के वक्त वे पाकिस्तान चले गए थे और वहां उन्होंने राजनैतिक पार्टी के रूप में जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान बना ली थी.
एक साल बाद भारत में उनके साथियों और मुल्लाओं ने अप्रैल 1948 में इलाहाबाद में एक बैठक करके उसे जमात-ए-इस्लामी हिंद का नया नाम दिया और विख्यात विद्वान मौलाना अबुलैस नदवी उसके अमीर बन गए. इसी के साथ जम्मू-कश्मीर में जमात की इकाई एक स्वतंत्र संगठन बन गई. जम्मू-कश्मीर जमात-ए-इस्लामी नाम से वह भारत की जमात की तुलना में पाकिस्तान की जमात के करीब रही. {mospagebreak}
पाकिस्तान में वहां की जमात ने उग्रवादी और कट्टरपंथी मजहबी तेवर अपनाते हुए इस्लामी सरकार के लिए समस्याएं खड़ी कीं तो 1948 और 1953 के बीच उसे चार बार गैरकानूनी करार दिया गया और उसके सर्वोच्च नेता मौलाना मौदूदी को 'राजद्रोहपूर्ण लेखन' के आरोप में 1953 में सजाए मौत सुनाई गई. बाद में इसे आजीवन कारावास में बदल दिया गया.
यही नहीं, 1953 में पाकिस्तान की जमात ने मुसलमानों में 'भटकाववादी आचरण' को रोकने की कोशिश में वहां अहमदिया समुदाय के खिलाफ मुहिम छेड़ दी, जिसका परिणाम 2,000 लोगों की मौत में निकला. इस आंदोलन के चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने 1974 में अहमदियों को गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक घोषित कर दिया. और बांग्लादेश बन जाने के बाद उसने कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश का भी गठन कर डाला. इस बीच पाकिस्तान की जमात ने विभिन्न महाद्वीपों और देशों में काम कर रहे इस्लामी आंदोलनों और मिशनों के साथ करीबी वैचारिक और व्यावहारिक संबंध बना लिए और उन्हें आगे बढ़ाती गई. {mospagebreak}
भारत में जमात चूंकि शुरू से ही धर्मनिरपेक्षता की पश्चिमी अवधारणा के विरुद्ध रही और खालिस मजहबी मुल्क बनाना चाहती थी, इसलिए उसने अपने सदस्यों के राजनीति में भाग लेने या चुनाव में हिस्सा लेने पर भी मुकम्मल प्रतिबंध लगा दिया. इसके सदस्यों को राजनैतिक मंच पर जाने की अनुमति नहीं थी. लेकिन इमरजेंसी के दौरान इसके खिलाफ हुई कार्रवाई का इसकी सोच पर गहरा असर हुआ. आरएसएस और अन्य संगठनों के साथ ही इस पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया और इसके बहुत से नेताओं तथा कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया.
उन्होंने एक-दूसरे की विचारधाराओं को समझ और इसके नेताओं को एहसास हुआ कि भारतीय संदर्भ में 'धर्मनिरपेक्षता' का मतलब ला-दीनीयत (नास्तिकता) नहीं है बल्कि यह भारतीय संविधान की मूल विशेषता है, जिसमें यह पक्का किया गया है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा और वह नागरिकों को अपने-अपने धर्म पर चलने की आजादी की गारंटी देता है. इमरजेंसी के बाद जमात ने अपने पूर्णकालिक सदस्यों के मतदान के अधिकार का प्रयोग करने पर प्रतिबंध हटा लिया और पिछले साल उसने अपने संविधान में संशोधन कर उन्हें अपनी शर्तों पर राजनीति में उतरने की अनुमति भी दे दी. जमात का अपना इतिहास है.{mospagebreak}
19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के शुरू में मुस्लिम कौम की बात करने वाली बहुत-सी मुस्लिम संस्थाएं और संस्थान विभिन्न रूपों में उभरे. मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हितों को स्वर देने के लिए 1870 में इंडो-ओरियंटल मुस्लिम स्कूल वजूद में आया, जो 1881 में ऐंग्लो-मोहम्मडन ओरिंयटल कॉलेज और फिर 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बन गया, 1906 में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, 1911 में तबलीगी जमात, 1919 में जमात-ए-उलमा-ए-हिंद, 1941 में जमात-ए-इस्लामी और 1964 में ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत का गठन हुआ.
लेकिन 1925 में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रूप में एक सशक्त पुनरुत्थानवादी और हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन का जन्म हुआ तो मुस्लिम कौम के कथित नुमाइंदों का रुख भी कड़ा हो गया. इनमें जमात का दृष्टिकोण तो अड़ियल बना रहा. बहुत-से लोगों का मानना है कि जमात समेत अनेक इस्लामी संगठन हाल तक लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के इस वैज्ञानिक दौर में भी अपने आंदोलन में सुधार करने के लिए तैयार नहीं थे. आरएसएस और जमात की गतिविधियों पर गहरी नजर रखने वाले भाकपा के राष्ट्रीय सचिव अतुल अनजान कहते हैं, 'जमात के नेताओं और विचारकों को अब यह एहसास हो जाना चाहिए कि भारत कोई धर्मतंत्र नहीं बल्कि एक बहुदलीय धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र है. {mospagebreak}
धर्मतंत्र का प्रचार करने वाली किसी नई राजनैतिक पार्टी की न तो संवैधानिक वैधता होगी, न ही समाज का कोई वर्ग इसे स्वीकार करेगा.' उधर, भाजपा के युवा सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री सैयद शाहनवाज 'सैन (जो बिहार के एक मुस्लिम बहुल चुनाव क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं) कहते हैं कि पिछले सात दशक से एक सामाजिक-धार्मिक संगठन के रूप में अस्तित्व रखने के बावजूद जमात कभी मुसलमानों की आवाज नहीं बन सकी. उसके नेताओं को एहसास हो जाना चाहिए कि उनका संगठन अगर बढ़ नहीं सका तो इसलिए कि इस देश में धर्मनिरपेक्षता की जड़ें बहुत गहरी हैं.
'नई पार्टी ज्यादा से ज्यादा यह करेगी कि राजनीति में कट्टरवाद को हवा देगी.' अतीत में इसकी गतिविधियों ने भारतीय मुसलमानों में शंका के बीज ही बोए थे. और बदलाव के प्रति उत्सुक और एक 'मिशन' से सराबोर जमात ने आखिरकार 'स्वच्छ और मूल्य आधारित' राजनीति करने का फैसला किया है, लेकिन जैसा कि अनजान का कहना था, जब तक वह अपनी सोच बदलकर धर्मनिरपेक्षता में आस्था रखने वाली मुख्यधारा की राजनीति में शामिल नहीं होती, चोला बदलने का कोई फायदा नहीं होगा. और यही वजह है कि जमात आज दुविधा की शिकार है.