{mosimage}कहने को तो भारत उच्च शिक्षा लेने वाले छात्रों की संख्या के मामले में चीन और अमेरिका के बाद तीसरे नंबर पर है लेकिन तथ्य यह भी है कि स्कूल से निकले महज 11 फीसदी छात्र ही कॉलेजों में दाखिला ले पाते हैं. फिर भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रशिक्षित अध्यापकों की कमी अभी ही 40 प्रतिशत तक है. जब और विश्वविद्यालय तथा उच्च शिक्षा के और संस्थान खुलेंगे, जैसी कि योजनाएं हैं, तो क्या हाल होगा समझा जा सकता है.
महज नाम के लिए शोध
फैकल्टी की कमी का नतीजा यह है कि हमारे उच्च संस्थानों में शोध और अन्वेषण महज नाम के लिए होता है. हालांकि भारत से होने वाले पेटेंटों की संख्या हाल के बरसों में बढ़ी है लेकिन चीन के मुकाबले हम कहीं नहीं हैं जबकि ज्ञान की महाशक्ति बनने के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और अन्वेषण आवश्यक शर्त है. विकसित पश्चिमी देशों में किसी अकादमिक की कद्र होती है और उन्हें समाज का मार्गदर्शक माना जाता है. अपने देश में कॉलेजों के भी शिक्षकों की जिंदगी मुश्किल है-कम तनख्वाह, कई स्थानों पर तो महीनों से पगार नहीं, तरह-तरह के दबाव, वर्षों से अद्यतन नहीं किए गए पाठ्यक्रम और अकादमिक श्रेष्ठता हासिल करने के कोई साधन नहीं.
गैर-शैक्षणिक कामों में लगे शिक्षक
सरकारी स्कूलों के शिक्षक, जिनमें अब बड़ी संख्या अस्थायी शिक्षाकर्मियों, शिक्षा मित्रों वगैरह की है, अध्यापन कम और इतर सरकारी, गैर-शैक्षणिक कामों में ज्यादा खपाए जाते हैं. ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि सरकारी स्कूलों के आधे बच्चे चार-पांच साल पढ़ने के बाद भी ठीक से पढ़-लिख नहीं पाते. और स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ने वाले छात्रों का प्रतिशत बहुत ऊंचा है. हालांकि शिक्षा के कार्य-व्यापार में सुधार के बहुतेरे उपाय हो चुके हैं, सरकार खुद ही शिक्षा के क्षेत्र पर हर साल 44,528 करोड़ रु. खर्च करती है लेकिन उसके प्रयास राजनीति, नौकरशाही के मकड़जाल और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं.
फिर भी उम्मीदें हैं कायम
निराश के ऐसे रेगिस्तान में भी उम्मीदों के नखलिस्तान हैं-वे शख्सियतें और संस्थान जिन्होंने आस न खोते हुए अपनी कोशिशें जारी रखीं, नौकरशाही के अडंगों को ताक पर रखा और शिक्षा के क्षेत्र में अपने इर्द-गिर्द के समाज में आमूल बदलाव लाने के लिए प्रचलित ढर्रा छोड़कर नई राह पकड़ी. ठोस और परिणामकारी परिवर्तन करने वाले व्यक्तित्वों और संस्थानों पर केंद्रित इस अंक की आवरण कथा दिखाती है कि एक छोटी-सी शुरूआत भी बड़ी-बड़ी बातों की तुलना में कितनी प्रभावी होती है.