वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद, जिनमें अपराधी नेताओं और उनके छद्म उम्मीदवारों को हार का मुंह देखना पड़ा था, देश भर में सुर्खियों में नए मतदाता के उभरने और बिहार के बाहुबली नेताओं के युग के अवसान की बात कही गई थी. एक साल बाद, ऐसा लगता है कि वक्त की सुई पीछे घूम रही है.
अक्तूबर में विधानसभा चुनाव तय हैं, और राज्य के शीर्ष नेता इन बाहुबलियों को लुभाने की हर संभव कोशिश में जुटे हैं. कांग्रेस समेत लगभग सभी राजनैतिक पार्टियां इन अपराधी नेताओं को अपने पाले में लाने के प्रयासों में अपने ढंग से जुटी हुई हैं. सत्ता के दो प्रबल दावेदार-लालू प्रसाद यादव का राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जनता दल (यू)-इस खेल में सबसे आगे नजर आ रहे हैं.
अगर नीतीश हत्या के दोषी और पूर्व सांसद आनंद मोहन के पैतृक आवास पर 'सामाजिक मुलाकात' के लिए गए, जहां आनंद मोहन की माता ने उन्हें आशीर्वाद दिया; तो लालू प्रसाद मोहम्मद शहाबुद्दीन से मिलने के लिए सीवान की जेल में ही पहुंच गए.
लालू और नीतीश, दोनों ही संगठनात्मक खामियों और पारंपरिक जनाधार में आई गिरावट से निबटने के लिए आखिरी समय में समीकरण दुरुस्त करने की कवायद में जुटे हैं. उन्होंने शत्रु खेमे से दागी बाहुबली नेताओं-प्रभुनाथ सिंह और पूर्व केंद्रीय मंत्री तस्लीमुद्दीन-को अपने खेमे में लाने में पर्याप्त लचीलेपन का परिचय दिया है.
हालांकि लालू प्रसाद ने तो राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ कभी कोई रुख नहीं अपनाया, लेकिन नीतीश के व्यवहार में यह बदलाव वाकई चौंकाने वाला है क्योंकि वे हमेशा से साफ राजनीति की कसमें खाते आए हैं.{mospagebreak}
ऐसा लगता है कि उन्होंने इस बात की ओर से अपनी आंखें फेर ली हैं कि राजनैतिक रूप से उचित-अनुचित क्या है. उदाहरण के लिए, पुलिस ने वारसलीगंज के निर्दलीय विधायक प्रदीप महतो को खुला छोड़ रखा है, जबकि उनके खिलाफ एक मामले में कई आरोपों (जिसमें हत्या के आरोप भी शामिल हैं) के चलते वारंट जारी है. वारंट के बावजूद महतो को नीतीश के साथ मंच साझा करते देखा गया है.
इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि लालू प्रसाद भी काफी जल्दबाजी में है क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि उनसे पहले नीतीश किसी बाहुबली पर हाथ साफ कर लें. आनंद मोहन के घर तक नीतीश के दौरे के तुरंत बाद राजद के प्रधान महासचिव और राज्यसभा सांसद राम कृपाल यादव जेल में बंद पूर्व सांसद से 'राजनीति पर चर्चा' करने के लिए दो बार सहरसा जेल गए. आनंद मोहन 1994 में गोपालगंज के जिला मजिस्ट्रेट जी. कृष्णैया की सड़क पर की गई हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे हैं.
बिहार में राजनीति के शीर्ष खिलाड़ियों की समावेशी राजनीति के इस नए ब्रांड पर अमल करने के साथ ही इसने अच्छे-अच्छों को हैरत में डाल दिया है. आगामी चुनाव में लालू और नीतीश का भाग्य काफी हद तक दांव पर लगा होने के कारण दोनों ही ने अपनी घबराहट जाहिर कर दी है. जहां लालू इस चुनावी महाप्रलय में डूबने से खुद को बचने की हर संभव कोशिश में जुटे हैं, वहीं नीतीश की कोशिश किसी भी तरह उन्हें इसमें डुबो देने की है. संभवतः इसीलिए ये दोनों नेता बाहुबलियों को संतुष्ट करने का कोई मौका छोड़ने के मूड में नजर नहीं आ रहे हैं. {mospagebreak}
इससे जाहिर है कि लालू और नीतीश आनंद मोहन को बहलाने में क्यों लगे हैं, जबकि वे यह तथ्य भूल जाते हैं कि उनकी पत्नी लवली आनंद को 2009 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ 81,479 वोट मिले थे और वे शिवहर से कांग्रेस के टिकट पर चौथे स्थान पर रही थीं. अगर इस बार भी ऐसा ही कुछ होता है तो यह विधानसभा चुनाव के लिए काफी कारगर रहेगा.
लोकसभा चुनाव के विपरीत, विधानसभा चुनाव में जीत का अंतर आनुपातिक मायनों में काफी कम रहता है. 1998 के लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार में 64.6 फीसदी मतदान हुआ था. एक साल बाद मतदान का आंकड़ा 61.48 फीसदी पर पहुंच गया. 2009 के लोकसभा चुनाव में राज्य के 5.44 करोड़ मतदाताओं में से सिर्फ 44 फीसदी ने ही अपने मताधिकार का प्रयोग किया. मतदान के घटते रुझान के कारण भी शायद बाहुबलियों की पूछ हो गई है क्योंकि उनसे उम्मीद की जाती है कि वे कुछ वोट तो दिलवा ही देंगे.
बहरहाल, यह तर्क बाहुबलियों के लिए बिहार की ओर नेताओं के झुकाव को भले जाहिर करे लेकिन उनके बाहुबली ह्ढेम को सही नहीं ठहरा सकता.{mospagebreak}
वास्तव में, शहाबुद्दीन, आनंद मोहन, पप्पू यादव, सूरजभान और मुन्ना शुक्ला बिहार में बाहुबलियों की राजनीति के अन्य बाहुबलियों से थोड़ा अलग हैं, वह इसलिए क्योंकि वे चुनाव लड़ सकते हैं लेकिन ये लोग नहीं क्योंकि इनके मामले में दोषसिद्धि हो चुकी है. वे गैंगस्टर भी थे तो अपनी जाति के अगुआ होने के साथ-साथ ठेकेदार और जनप्रतिनिधि थे. वे एक ऐसे लैंडस्केप में अपनी हर भूमिका अदा करते थे जहां नेताओं और अपराधियों को विभाजित करने वाली रेखा काफी पहले ही मिट चुकी थी.
इसमें कोई हैरत नहीं कि ये बाहुबली उस सहजता के प्रतीक थे जिसके जरिए ये आसानी से बिहार की राजनीति में अपना दबदबा कायम कर लेते थे. ये अपने विभिन्न मुखौटे पहने रखने के साथ ही अपराध और राजनीति का भी बखूबी मिश्रण कर लेते थे. बिहार के विविध और विभिन्न गुटों में बंटे समाज में आनंद मोहन और शहाबुद्दीन सरीखे अपराधियों को जाति या समुदाय के नायक के तौर पर सम्मान दिया जाता है. समाजशास्त्री हेतुकर झा कहते हैं, ''बिहार में सत्ता साझ करने की प्रमुख अहर्ता होने के अलावा समर्थन और आश्रय देने के लिए जाति हमेशा से निर्णायक भूमिका अदा करती आई है. यहां, जाति राजनैतिक और विचारधारात्मक प्रतिबद्धताओं को आकार देने में अहम भूमिका अदा करती है.'' चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही वे यथावत भी रहती हैं. बिहार में, यह बात पहले से कहीं ज्यादा सच लगने लगी है.