सब उन्हें ट्विटर मिनिस्टर कह कर पुकारते हैं और वाकई उन्होंने साउथ ब्लॉक और विदेश नीति को ट्विटर पर ला दिया है. सौम्य, सभ्य शशि थरूर ने जबसे अपने ऑक्सफोर्ड उच्चारण और ब्लैकबेरी का विदेश मंत्रालय में जमकर प्रयोग शुरू किया है, तब से वे एक के बाद दूसरे विवाद को जन्म देते आए हैं. यहां तक कि अब दो सभ्यताओं की टकराहट में तलवारें भी खिंचती दिख रही हैं. एक है पुराने विचारों का, परंपरा और नियमों तथा कूटनीतिक शिष्टचार से बंधा; दूसरा प्रतिबंधों को न मानने वाला, संयुक्त राष्ट्र की अधिक उदार नौकरशाही का अभ्यस्त और ऊंची साहित्यिक जमात में घूमने-फिरने का शौकीन. उनकी ताजा चूक-यदि इसे इस श्रेणी में रखा जा सकता है तो-जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति पर की गई आलोचनात्मक टिप्पणियां हैं, जिन्होंने कभी न खत्म होने वाले थरूर आख्यान को फिर शुरू कर दिया और देश के विदेश नीति प्रतिष्ठान तथा कूटनयिक गोष्ठियों को हथियार उपलब्ध करा दिया, जहां विदेश राज्यमंत्री की हर हरकत और हर ट्विटर को कटीली नजरों से देखा जाता है, हर बार उनके राजनैतिक कॅरियर का मर्सिया लिख दिया जाता है. इस बार थरूर आक्रामक हो उठे और उन्होंने उन्हें गलत रूप में पेश करने के लिए मीडिया को लताड़ा
थरूर का दुर्भाग्य यह है कि इतना दुस्साहस दिखाने और कई लोगों की भावनाएं आहत करने की वजह से विवाद उनका पीछा नहीं छोड़ रहे. एक वजह तो यह है कि पहली बार सांसद बनने के बावजूद उन्हें राज्यमंत्री के पद पर बिठा दिया गया. दूसरी वजह बेशक उनका विदेशी लहजा और पांच सितारा जीवन शैली है. और तो और, आप्रवासी भारतीय लेखक थरूर लोकसभा चुनाव में केरल के तिरुअनंतपुरम से कांग्रेस का टिकट पाने में कामयाब रहे, जिससे कई लोगों के सीने पर सांप लोट गया. उन्हें कॉर्पोरव्ट जगत-दुबई की अफ्रास के अध्यक्ष पद-से सीधे ही जूनियर मंत्री बना दिया गया. उससे पहले थोड़े दिन उन्होंने संयुक्त राष्ट्र का भी अनुभव लिया, जिसमें 2007 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव पद की उम्मीदवारी भी शामिल है.
जब वे पहले पहल साउथ ब्लॉक में आए तो उनका आगमन ताजा हवा के झोंके-सा लगा था. वे प्रगतिशील एजेंडा और नए विचारों के जीवंत प्रतीक थे. हर किसी को उम्मीद थी कि उनकी योग्यताओं को देखते, सौम्य मंत्री मंत्रालय के लिए उपयोगी साबित होंगे. लेकिन उनकी बड़बोली टिप्पणियां विदेश मंत्रालय में उनके योगदान की तुलना में अधिक भारी रही हैं. उनके बिग बॉस, विदेश मंत्री एस.एम. कृष्ण भी अकूटनयिक ट्विटरिंग के लिए उन्हें झिरकने को मजबूर हो गए. कृष्ण ने इंडिया टुडे को बताया, ''मैंने यह स्पष्ट कर दिया कि सरकार चलाना एक गंभीर काम है, इसे ट्विटरिंग अथवा किसी अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट के जरिए नहीं चलाया जा सकता. विदेश नीति भी एक जटिल और जिम्मेदारी भरा काम है, जिसे इस तरह (ट्विटर पर) नहीं तैयार किया जा सकता.''
{mospagebreak}थरूर को मंत्री की कुर्सी पर बैठे छह महीने हो गए हैं. इस अवधि में उन्होंने दोस्त कम, दुश्मन अधिक बनाए हैं. अब तो थरूर पर हमले के लिए फिर कमर कसी जा रही है, उनके खिलाफ नए आरोप तैयार किए जा रहे हैं. उनमें एक है- विदेश मंत्रालय का पैसा उनके द्वारा लिखी पुस्तकें खरीदने के लिए खर्च किया गया, इनमें वह पुस्तक भी शामिल है जिसमें गांधी परिवार की थोड़ी आलोचना की गई है. हज कोटा के आवंटन से संबंधित शिकायतें भी हैं जिनकी वजह से ही उनसे यह जिम्मेदारी छीन ली गई. राद्गयमंत्री होने के नाते थरूर खाड़ी, लातीन अमेरिका और अफ्रीकी देशों के ह्ढभारी हैं. पहले हज कोटा ऐसा ही प्रभार संभालने वाले मंत्री संभालते आए थे. थरूर का मानना है, ''जिम्मेदारियों को नए सिरे से नहीं आवंटित किया गया. विदेश मंत्री ही पूरे मंत्रालय का ह्ढभारी होता है, और हर मामले की फाइलें उनके दफ्तर से ही होकर जाती हैं. तो हज के मामले में भी सारे फैसले उन्होंने ही किए, लेकिन जब हम दोनों दिल्ली में थे तो पर्याप्त सलाह-मशविरा किया गया.'' लेकिन कृष्ण इसे दूसरी तरह देखते हैं, ''सीटों के आवंटन के तरीके को लेकर ब'त सारी शिकायतें हमें मिली थीं. मैं व्यवस्था को और अधिक पारदर्शी बनाना चाहता था, सो मैंने सोचा, हम मंत्रालय का पूरा वजन हज चुनाव प्रक्रिया में लगा देंगे.'' अब हज कोटा से जुड़े मुद्दे कृष्ण के अधीन हैं.
थरूर के विवादों की बढ़ती सूची में मंत्री पद रुतबे का कथित दुरुपयोग भी शामिल है. कहा जा रहा है कि अपनी पुस्तक इंडियाः फ्रॉम मिडनाइट टु द मिलेनियम को वे विदेश के भारतीय दूतावासों में प्रमोट कर रहे हैं. उनके आलोचक बताते हैं कि इसमें नेहरू-गांधी परिवार की आलोचना थी और मंत्रालय को ऐसी पुस्तकों को प्रमोट नहीं करना चाहिए, थरूर आरोपों को नकार देते हैं, उनकी कैफियत है, ''ये आरोप किस आधार पर लगाए जा रहे हैं? पुस्तक १९९७ में प्रकाशित हुई थी और कुछ प्रतियां तब ही खरीद ली गई थीं... मेरे सरकार का हिस्सा बनने से बहुत पहले.'' लेकिन विदेश मंत्रालय से इंडिया टुडे के पास उपलब्ध दस्तावेज बताते हैं कि थरूर की तीनों पुस्तकों, जिनमें इंडिया फ्रॉम मिडनाइट टु मिलेनियम भी शामिल है, की १५०-१५० प्रतियां उनके विदेश राज्यमंत्री बनने के बाद विदेश कार्यालय ने खरीदीं. 3,27,924 रु. में खरीदी गई पुस्तकों को विदेशों में भारत के दूतावासों में वितरण के लिए खरीदा गया था. सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक 14 जुलाई, 2009 को विशेष सचिव पार्वती सेन व्यास की अध्यक्षता में विदेश मंत्रालय अधिकारियों की एक समिति ने मंत्री द्वारा लिखी तीनों पुस्तकों की खरीद को फाइल नंबर पीएमएस/ 308/२/30/2009 के जरिए मंजूरी दी, इसके अलावा 106 अन्य लेखकों की पुस्तकों की खरीद को भी मंजूरी दी गई. थरूर हालांकि तकनीकी तौर पर ठीक हो सकते हैं कि चयन प्रतिक्रिया में वे शामिल नहीं थे, लेकिन शिष्टाचार का तो यही तकाजा था कि उन्हें अपने मंत्रालय को सलाह देनी चाहिए थी कि उनकी पुस्तकें न खरीदी जाएं ताकि इसे पद का दुरुपयोग न समझ जाए.
इसके अलावा अधिकतर विवाद शैलियों के टकराव से भी संबंधित है. साउथ ब्लॉक में यदि जूनियर मंत्रियों को अपनी कुर्सी बचाए रखनी हो तो मुंह को बंद रखना होता है, लेकिन थरूर तो दूसरी ही मिट्टी के बने हैं, और दूसरी ही सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से सरोकार रखते हैं, और यही समस्या की जड़ है. विदेश मंत्रालय में पूर्व सचिव के.सी. सिंह कहते हैं, ''संयुक्त राष्ट्र के अति सुसंस्कृत अभिजात वातावरण से आने की वजह से राजनैतिक दायरे के कामकाज के साथ तादात्म्य बिठाने के लिए थोड़ा समय देना चाहिए था लेकिन उनके बार-बार के टकराव और एक के बाद दूसरे आक्रामक हमले चारित्रिक खामी को दर्शाते हैं.''
{mospagebreak}थरूर के विवादों में घिरे रहने का एक परिणाम यह हुआ कि उनके अधीन अफ्रीका, लातीन अमेरिका और खाड़ी देशों के बारे में ठोस नीति के ह्ढबंधन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों की तरफ से ध्यान हटता जा रहा है. प्रोटोकॉल संचालित मंत्रालय में हालांकि कर्तव्यों का स्पष्ट विभाजन है, लेकिन थरूर अपने कार्यह्नेत्र में न आने वाले मसलों पर भी धड़ल्ले से बोलते रहे हैं, जिनमें पाकिस्तान के साथ संबंधों का मुद्दा भी शामिल है. लेकिन थरूर जोर-शोर से अपना बचाव करते हैं, ''विदेश नीति पर मैंने जो भी टिप्पणियां की हैं, वे जिम्मेदार अधिकारियों द्वारा मुहैया कराई गई ब्रीफिंग पर शामिल हैं, जिन्हें खास तौर से ऐसे सवालों का जवाब देने के लिए मंत्रियों को तैयार करने के लिए ही बनाया जाता है. हालांकि राज्यमंत्रियों की जिम्मेदारियां स्पष्ट रूप से तय की जाती हैं, लेकिन देश के विदेश संबंधों में महत्वपूर्ण बदलावों से अनभिज्ञ रहना उनके लिए बेदगी भरा होगा. मैंने लोकसभा में अफगानिस्तान पर छह सवालों के जवाब दिए, यह आधिकारिक तौर पर मेरे कार्यक्षेत्र में नहीं आता. क्या इसे दूसरे के अधिकार क्षेत्र में अनधिकृत प्रवेश अथवा गैर-पेशेवराना रवैया करार दिया जाए?''
विदेश राज्यमंत्री के रूप में थरूर का कार्यकाल थोड़े ही समय में अपनी कुर्सी से अपना कद लंबा कर लेने का मामला है. थरूर दिल्ली की पेज 3 की दुनिया में ब'त अच्छी तरह घुल-मिल जाते थे, लेकिन देश की सबसे पुरानी सत्तारूढ़ पार्टी और सरकारी चौखटे में घुलने-मिलने में उनकी जीवन और कार्यशैली ने बाधाएं खड़ी कर दीं, पार्टी में उन्हें आज भी नया समझ जाता है. वे ऐसे शख्स समझे जाते हैं, जो बहुत जल्दी बहुत कुछ करने की हड़बड़ी में रहते हैं और आराम तथा विलासिता को बहुत तवज्जो देते हैं. पूर्व विदेश सचिव ललित मानसिंह कहते हैं, ''वे मुखर व्यक्ति हैं, और सरकार के लिए बहुत उपयोगी बन सकते हैं. सरकार को उनका सही इस्तेमाल करना चाहिए. कैबिनेट मंत्री और राज्यमंत्री के कार्य अधिकारों के बीच स्पष्ट विभाजन रेखा है. उन्हें स्पष्ट बता दिया जाना चाहिए कि वे किस चीज पर टिप्पणी कर सकते हैं, किन क्षेत्रों में दखल से बचना चाहिए.''