इडियट बॉक्स पर बार-बार दस्तक देने वाला ओनिडा डेविल गायब हो चुका है. यही हश्र लिरिल गर्ल एवं एयर इंडिया के महाराज का हुआ, पर अमूल गर्ल का जलवा आज भी बरकरार है. विज्ञापन की दुनिया में 50 साल पूरे कर चुकी अमूल गर्ल आज भी अपने विख्यात जुमले 'अटर्ली, बटर्ली, डिलिशियस' से उपभोक्ताओं को मोह रही है.
इस कामयाबी को अब किताब का हिस्सा बनाया गया है. नन्ही सी अमूल गर्ल की मासूमियत आज भी विज्ञापन की दुनिया पर जादू कर रही है. विज्ञापन अपने कलात्मक सौंदर्य एवं संदेश की सामाजिक प्रासंगिकता के बूते विज्ञापन की दुनिया में टिका हुआ है. इसे आज भी लाइन ड्राइंग, कार्टूनिंग एवं सधे हुए कॉपी लेखन का प्रेरक नमूना माना जाता है.
60 के दशक में इस विज्ञापन को तैयार करने वाली विज्ञापन एजेसी डाकुन्हा कम्युनिकेशंस के राहुल डाकुन्हा कहते हैं, ‘अपनी मौलिक खूबियों के कारण यह विज्ञापन कड़ी स्पर्धा में भी टिका रहा.’ इस विज्ञापन की सबसे बड़ी ताकत है इसकी टैगलाइन 'अटर्ली, बटर्ली, डिलिशियस'. यह जुमला सभी की जुबान पर चढ़ चुका है.
अमूल गर्ल के 50 साल के सफर, इसकी परिकल्पना, इसकी सामाजिक प्रासंगिकता समेत इसके तमाम पहलुओं को एक पुस्तक में समेटा गया है. 'अमूल्स इंडिया' नामक यह किताब हार्पर कॉलिन्स-इंडिया से प्रकाशित हुई है. इसी सप्ताह दिल्ली में इसका विमोचन हुआ.
गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन के संस्थापक और अमूल ब्रांड के जनक वर्गीज कुरियन ने इस पुस्तक में दिए अपने साक्षात्कार में कहा, ‘यूं तो अमूल ब्रांड 1957 में पंजीकृत हुआ, पर यह विज्ञापन करीब एक दशक बाद शुरू हुआ. इसने अमूल को ब्रांड वैल्यू प्रदान करने में विशिष्ट भूमिका निभाई.’
राहुल डाकुन्हा कहते हैं, ‘1960 के दशक में इस विज्ञापन की परिकल्पना मेरे पिता ने की थी. इसके लिए एक खास कलात्मक और सृजनात्मक सोच की जरूरत थी. इसके बाजार में छाये रहने की यही वजह है. इस विज्ञापन की ताकत यह है कि यह अमूल उत्पादों को सीधे न बेचकर, इसकी छवि ग्राहकों के दिमाग में स्थापित करता है.’