जब हालात मुश्किल होते हैं तो मजबूत इरादे वाले लोग उनसे उबरने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं-और डावांडोल स्थिति वाले संदेशवाहक पर ही निशाना साध लेते हैं. मनमोहन सिंह सरकार इस बात से सहमत हो गई है कि उसकी परेशानियां संचार संबंधी कुप्रबंधन, सूचना एक्टिविस्ट की स्वेच्छाचारी अवसरवादिता, सियासी दुश्मनों और सांठगांठ करनेवाली न्यायपालिका का नतीजा हैं, जिसकी वजह से उसने अपने बचाव में व्यापक जवाबी हमला करने का फैसला किया है. मकसदः उन्हें शांत कर दिया जाए जिन्हें वह तुष्ट नहीं कर सकी, और मीडिया को 'अच्छी खबर' के माध्यम में तब्दील कर जनता की राय बदली जाए.
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'नाफरमानी करने वाले' टेलीविजन समाचार चैनलों को शांत या काबू करने के लिए सूचना और प्रसारण (आइऐंडबी) मंत्री अंबिका सोनी पर लगातार और बहुत जबरदस्त दबाव है. सरकार में शीर्ष स्तर पर यह भावना तेजी से घर कर रही है कि सूचना का अधिकार (आरटीआइ) कानून, जिसे अक्सर यूपीए-1 की महत्वपूर्ण उपलब्धि के तौर पर प्रचारित किया जाता रहा है, में संशोधन की जरूरत है ताकि सरकारी फाइलों में बंद सूचनाओं को गोपनीय ही रखा जाए. हमला काफी सूक्ष्म भेद युक्त है, सिर्फ एक बात को छोड़कर. कांग्रेस के खिलाफ हरियाणा के हिसार उपचुनाव में प्रचार करने वाले अण्णा हजारे और उनकी सामाजिक कार्यकर्ताओं की हाइ-प्रोफाइल ब्रिगेड के खिलाफ खुली छूट दे दी गई है.
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सरकार का मानना है कि वह भ्रष्टाचार पर बहस को इसलिए खो बैठी क्योंकि वह अप्रैल में दिल्ली के जंतर मंतर पर हुए अनशन के दौरान मीडिया कवरेज का बंदोबस्त सही नहीं कर सकी. इसका सीधा नतीजा मीडिया पर मंत्रियों के एक समूह (जीओएम) के गठन के रूप में सामने आया, जिसे अब संकट प्रबंधन समिति में तब्दील कर दिया गया है.
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लोगों के बीच सरकार की छवि फिर से सुधारने की ताजा कोशिश 10 अक्तूबर को उस समय की गई जब इस समूह ने अनाधिकारिक तौर पर संपादकों को एक गहन बैठक के लिए बुलाया. जीओएम के वरिष्ठ मंत्री अन्य बैठकों के बीच शास्त्री भवन के कॉन्फ्रेंस रूम से अंदर-बाहर जा रहे थे और कबाब, रोल्स और पैट्टीज के कभी न खत्म होने वाले दौर के बीच 'संवाद' के एक नए युग का सूत्रपात हो चुका था.
मीडिया पर सात सदस्यीय जीओएम के अध्यक्ष गृह मंत्री पी. चिदंबरम हैं. वे सुब्रमण्यन स्वामी की सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई उस याचिका पर सोचा-समझा मौन साधे हुए थे जिसमें 2जी मामले में उन्हें गवाह बनाने की मांग की गई है. लेकिन काूनन मंत्री सलमान खुर्शीद और दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल अपने सर्वाधिक उग्र अंदाज में थे.
ऐसी बहुत ही कम बातें कही गईं जो पहले आधिकारिक तौर पर नहीं कही गई थीं. सिब्बल अपना जाना-पहचाना अडिग रुख अपनाते हुए इस बात पर कायम रहे कि 2जी घोटाले में कोई नुक्सान नहीं हुआ है. चिदंबरम ने पहले कहा कि उन्होंने खामोश रहने की कसम ली थी लेकिन फिर इस पर जोर दिया कि उनकी अंतरात्मा एकदम साफ थी.
खुर्शीद हाल में दिए गए साक्षात्कारों से उद्धरण पेश करते रहे जिनमें उन्होंने कहा था कि आरटीआइ कानून का दुरुपयोग संस्थागत कुशलता को प्रभावित कर रहा है, और यह भी कि न्यायपालिका राजनैतिक अर्थशास्त्र को नहीं समझा सकती.
संसदीय मामलों के मंत्री पवन कुमार बंसल ने कुछ नहीं कहा. प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में राज्यमंत्री वी. नारायणस्वामी मौजूद नहीं थे, शायद उनके लिए यही ठीक था. मंत्री अपनी उपलब्धियों का गुणगान कर रहे थे, जिसमें स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आ.जाद भी शामिल थे, जिन्हें चिदंबरम ने याद दिलाया कि उन्होंने पोलियो का लगभग खात्मा कर डाला है.
लेकिन वहां सबसे बड़ा सवाल मौजूद था, जिससे किसी भी कीमत पर बचा नहीं जा सकता था-टीवी समाचार चैनलों के खिलाफ सरकार की रोक संबंधी कार्रवाई की धमकी. 7 अक्तूबर को अचानक यह घोषणा कर दी गई कि कैबिनेट ने अपलिंकिंग और डाउनलिंकिंग गाइडलाइंस, 2005 में कुछ संशोधनों को मंजूरी दे दी है.
उसने समाचार और समसामयिक मामलों से जुड़े चैनलों की अपलिंकिंग के लिए शुद्ध संपत्ति या नेट वर्थ को 3 करोड़ रु. से बढ़ाकर 20 करोड़ रु. कर दिया. यह पहले चैनल के लिए है जबकि अन्य हरेक अतिरिक्त चैनल के लिए 5 करोड़ रु. का प्रावधान कर दिया गया. इससे ज्यादा चिंता का विषय है कि इसके मुताबिक, अगर कोई टेलीविजन चैनल कार्यक्रम और विज्ञापन संहिता के पांच उल्लंघनों का दोषी पाया जाता है तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय के पास उसका लाइसेंस रद्द करने का अधिकार होगा.
मंत्रालय अभी तक 745 निजी चैनलों को मंजूरी दे चुका है, जिनमें से 366 समाचार और समसामयिक मामलों से जुड़े हैं. मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि नए चैनलों की मंजूरी के लिए 410 आवेदन लंबित हैं, जिनमें से आधे समाचार चैनलोंके लिए हैं.
न्यूज ब्रॉडकास्टर एसोसिएशन, इंडियन ब्रॉडकास्टिंग फाउंडेशन और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के प्रतिनिधियों के साथ 11 अक्तूबर को बैठक के दौरान सोनी ने झ्टके को थोड़ा हल्का करने के लिए जोर दिया कि उल्लंघनों पर ''मौजूदा नियामक तंत्र के साथ परामर्श'' के बाद ही फैसला किया जाएगा (देखें बातचीत). लेकिन हर कोई इससे सहमत नहीं है.
जाने-माने विधिवेत्ता सोली सोराबजी कहते हैं, ''पांच उल्लंघनों का विचार मनमाना है. पांच उल्लंघनों का तर्क क्या हैः सात क्यों नहीं, 10 क्यों नहीं या तीन क्यों नहीं? उल्लंघनों को संहिताबद्ध कौन कर रहा है और कौन इस बात का फैसला करेगा कि उल्लंघन हुआ है?'' यही नहीं, किस जुर्म के लिए वित्तीय जुर्माना होगा और किससे लाइसेंस रद्द हो जाएगा?
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता हरीश साल्वे कहते हैं कि सामग्री पर सरकार को नियंत्रण देने से ''लोकतंत्र के खात्मे की शुरुआत होगी.'' हालांकि कोई भी सरकार आपातकाल के दौर में सेंसरशिप लगाने के कदम के आस-पास भी नहीं आई है लेकिन इसकी कुछ कोशिश की गई है. इसमें सबसे महत्वाकांक्षी था, सख्त मानहानि विधेयक जिसे 1988 में राजीव गांधी सरकार ने प्रस्तावित किया था. उस विधेयक का इतना जबरदस्त विरोध हुआ कि राजीव को फौरन अपना फैसला वापस लेना पड़ा था.
प्रेस परिषद के नए प्रमुख न्यायमूर्ति मार्कंडेय काट्जू ने कहा कि अति हो जाने पर ही मीडिया के खिलाफ ''कठोर कदम'' उठाए जाने चाहिए. सरकार अप्रैल से मीडिया की भूमिका को लेकर विरोध करती आई है.
जून के अंतिम सप्ताह में संपादकों के साथ बैठक के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था, ''आज कई मामलों में मीडिया की भूमिका अभियोगी, अभियोग पक्ष के वकील और न्यायाधीश की हो गई है.'' सरकार को लगा कि इसे रोकने के लिए कदम उठाना जरूरी है. समाचार चैनलों ने जिस तरह की 'गड़बड़ी' पैदा कर रखी है, निजी तौर पर मंत्री उससे कड़ा असंतोष जताते हैं.
कैबिनेट में कई बार यह बात सामने आई है कि मीडिया पर लगाम कसी जानी चाहिए. अगस्त में जब यह विषय चर्चा के लिए आया तो एक मंत्री ने कैबिनेट की बैठक में हो रही गर्मागर्म बहस के दौरान अपना सेल फोन ऑन करके छोड़ दिया. उनके साथियों में से एक को अण्णा हजारे कवरेज के दौरान सरकार-विरोधी दृष्टिकोण के खिलाफ तर्क देते हुए सुना जा सकता था. अगले दिन अखबार में बातचीत की पूरी जानकारी देखकर मंत्री महोदय सन्न रह गए.
प्रधानमंत्री ने कैबिनेट की अगली बैठक में अपने सहयोगियों को गोपनीय जानकारी इस तरह सार्वजनिक करने के खिलाफ चेताया, दूसरी ओर उनके दो सहयोगी इस खुलासे पर आपस में लड़ रहे थे. यहां तक कि मंत्रियों ने अखबारों में मनचाही कवरेज से लेकर सरकारी विज्ञापनों तक को जोड़ने की बात की. सूचना और प्रसारण मंत्रालय का एटवर्टाइजिंग और फील्ड पब्लिसिटी निदेशालय हर साल पत्र-पत्रिकाओं को 400 करोड़ रु. और टीवी को 200 करोड़ रु. के विज्ञापन देता है.
सरकार ने अपनी ही उपलब्धि आरटीआइ कानून, जिसे सोनिया गांधी के ताज का नगीना समझ जाता है, के बारे में राय बदल दी है. आरटीआइ कार्यकर्ताओं ने फाइलों तक पहुंच बनाकर इस कानून का इस्तेमाल सरकार के खिलाफ ही शुरू कर दिया है. मिसाल के तौर पर, 2जी मामले में 25 मार्च, 2011 का वित्त मंत्रालय का नोट आरटीआइ के कारण ही सार्वजनिक हो गया और तत्कालीन वित्त मंत्री चिदंबरम इसके लपेटे में आ गए.
9 जून को कैबिनेट ने सीबीआइ को इसके दायरे से बाहर रखने का फैसला किया, क्योंकि तत्कालीन कैबिनेट सचिव के.एम. चंद्रशेखर की अगुआई में सचिवों की एक समिति ने इसकी सिफारिश की थी. सीबीआइ को यह सुरक्षा आरटीआइ की धारा 24 के तहत दी गई थी. यह धारा गोपनीय सूचनाएं जुटाने वाली एजेंसियों को 'सुरक्षा' कारणों से छूट देती है.
लेकिन सीबीआइ की हर जांच राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी नहीं होती है. 2जी मामला और कॉमनवेल्थ खेलों का मामला इसके मुख्य उदाहरण हैं. 2जी मामले में कई यू-टर्न और दिलचस्प विसंगतियां रही हैं. फाइलों की टिप्पणियां हासिल करने से इन विसंगतियों के कारणों का खुलासा हो जाएगा.
सरकार का एक वर्ग इस बात से चिंतित है कि आरटीआइ भविष्य में और भी ज्यादा बातों का खुलासा कर सकता है. 2जी घोटाला आरटीआइ के जरिए लोगों की नजर में नहीं आया था. लेकिन आरटीआइ कानून इस पहेली को सुलझाने में मदद कर रहा है. चिंता व्यक्त की जा रही है कि आरटीआइ कार्यकर्ता नागरिक उड्डयन और पेट्रोलियम जैसे क्षेत्रों में दूसरे विवादास्पद नीतिगत फैसलों पर सरकार को घेर सकते हैं.
अब तक केवल सीएजी की रिपोर्टों में ही विमानों की खरीद और तेल व गैस की खोज में गलत नीतियों के लिए सरकार को दोषी ठहराया गया है. लेकिन आरटीआइ के जरिए हासिल दस्तावेज सरकार के ऐसे फैसलों के खिलाफ मामले को और भी मजबूत बना सकते हैं.
सौम्य और सभ्य खुर्शीद आरटीआइ कानून में संशोधन के सबसे बड़े पक्षधर हैं. वे आधिकारिक तौर पर कह चुके हैं, ''आरटीआइ का गलत इस्तेमाल होने के कारण कई तरह की अड़चनें महसूस की जा रही हैं. राज्यपालों ने भी इस संबंध में अपनी राय जाहिर की है, अदालतों ने भी ऐसी ही राय व्यक्त की है.
आरटीआइ के गलत इस्तेमाल की वजह से परेशानी हो रही है.'' लेकिन उनका रास्ता आसान नहीं है. आरटीआइ कार्यकर्ता और सोनिया के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनआइसी) की सदस्य अरुणा राय कहती हैं कि इस कानून का गलत इस्तेमाल नहीं हो रहा है.
''लेकिन हां, सरकार को कामकाज की नई पारदर्शी व्यवस्था का अभ्यस्त होना पड़ेगा.'' नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्स राइट्स टु इनफॉर्मेशन के सदस्य और उनके सहयोगी निखिल डे की राय इस बारे में ज्यादा बेबाक है, ''हम इसके संशोधन पर अपनी राय के बारे में बात भी नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि सरकार को यह कहने का मौका मिल जाएगा कि हम उनसे सहमत हैं. सरकार इसे कमजोर करने के मौके का इंतजार कर रही है.''
खुर्शीद, जिन्हें जुलाई में फेरबदल के दौरान कानून मंत्री बनाया गया है, न्यायपालिका के बढ़ते दायरे को लेकर भी एहतियात बरत रहे हैं. वे शायद इस बात को लेकर सजग हैं कि अगर वे कानून मंत्री के तौर पर कुछ काम करते नहीं दिखाई दिए तो उनका मंत्रालय पहले से इंतजार में बैठे एच.आर. भारद्वाज के पास जा सकता है. पूर्व कानून मंत्री की कथित उपलब्धि यही थी कि वे न्यायाधीशों को उनकी हद में रखते थे. खुर्शीद के पास न्यायिक सक्रियता के खिलाफ ढेरों तर्क हैं, जिनमें आर्थिक क्षेत्र भी शामिल है.
उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था, ''अगर दूसरी संस्थाएं यह नहीं समझ्तीं कि आज हमें किस तरह की राजनैतिक अर्थव्यवस्था का सामना करना पड़ रहा है तो सरकार का कामकाज प्रभावित होगा. अगर आप बड़े व्यापारियों को जेल में डाल देंगे तो क्या निवेश आएगा?'' 12 अक्तूबर को जस्टिस जी.एस. सिंघवी और एच.एल. दत्तू की पीठ ने कहा, खुर्शीद की यह टिप्पणी चिंताजनक है कि सुप्रीम कोर्ट व्यापारियों को सलाखों के पीछे रखना चाहता है.
टीम अण्णा के सदस्य प्रशांत भूषण का तर्क है कि सरकार न्यायपालिका पर हमला कर रही है, क्योंकि वह देश में भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों के नतीजों को लेकर चिंतित है. वे कहते हैं, ''वे जनता की संपत्ति को लूटने की छूट दे रहे हैं, प्राकृतिक संसाधनों की लूट की छूट दे रहे हैं और सरकारी खजाने की लूट की छूट दे रहे हैं. अब जनता और न्यायपालिका जवाब तलब कर रही हैं और सरकार उनका गला दबाने की कोशिश कर रही है.''
असंतोष के प्रति असहनशीलता बढ़ती जा रही है. 12 अक्तूबर को कश्मीर पर टिप्पणी करने पर एक छोटे से संगठन के तीन लोगों ने टीवी कैमरे के सामने प्रशांत भूषण के साथ उनके ही चेंबर में मारपीट की. हिसार में उनके साथी अरविंद कव्जरीवाल के खिलाफ एक लड़के ने गुस्सा जाहिर किया. एक दिन बाद, कांग्रेस के महासचिव और अण्णा के धुर विरोधी दिग्विजय सिंह ने हजारे को उपचुनावों में तरफदारी करने के बारे में खुला पत्र लिखा. बाद में उन्होंने आरएसएस के महासचिव सुरेश (भैयाजी) जोशी की ओर से हजारे को भेजे गए पत्र की प्रतिलिपि जारी की, जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में पूरा सहयोग देने की बात कही गई थी.
सरकार पहले ही टीम अण्णा के प्रमुख सदस्यों किरण बेदी और केजरीवाल को चुप कराने की कोशिश कर चुकी है. बेदी के एनजीओ को आयकर का नोटिस दिया गया तो कव्जरीवाल को 2000 और 2002 के दौरान अध्ययन अवकाश के बाद सरकारी सेवा में नहीं लौटने के लिए 9 लाख रु. का बकाया चुकाने के लिए कहा गया.
2जी मामले में कांग्रेस के हरावल दस्ते ने सिब्बल का रवैया अपना लिया है, जिसे दूरसंचार मंत्री ने 7 जनवरी को पहली बार प्रस्तावित किया था कि 10 जनवरी, 2008 को स्पेक्ट्रम के आवंटन में सरकार को कोई भी नुक्सान नहीं हुआ था. गलती नीति के क्रियान्वयन में थी, न कि नीति में. यह समझ से परे है कि सीबीआइ कोर्ट में जो बता रही है, उससे यह बात कैसे मेल खाएगी?
तेलंगाना का विवाद तब शुरू हुआ जब चिदंबरम ने 9 दिसंबर, 2009 को इसके गठन का वादा किया. तभी से दिल्ली परस्पर विरोधी स्थानीय दबावों के बीच फंस गई है, जिसके कारण राज्य पंगु हो गया है और कांग्रेस की हालत खराब है. इस संकट को सुलझाने का काम मिलनसार आ.जाद को सौंप दिया गया है. उनकी एकमात्र रुचि, या शायद व्यावहारिक विकल्प यह है कि प्रणब मुखर्जी के सामने इस गर्म मुद्दे को ले जाने से पहले समय काटा जाए.
आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के प्रभारी आजाद आम सहमति बनाने के बारे में राज्य के सांसदों से बातचीत में पहले ही 100 से ज्यादा घंटे खर्च कर चुके हैं. गृह मंत्रालय का कहना है कि वह तेलंगाना पर कांग्रेस को राजी करने की कोशिश कर रहा है. कांग्रेस के विद्रोही नेता जगन मोहन रेड्डी ने अभी अपना मत व्यक्त नहीं किया है, मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन ने कहा है कि वह कांग्रेस के पीछे चलेगी और तेलुगु देशम पार्टी ने कहा है कि वह कांग्रेस की राय जाहिर होने तक अपना फैसला सुरक्षित रखेगी.
वर्चस्व के लिए आपस में ही लड़ाई से सरकार के सूचना प्रहार में मदद नहीं मिली है. सूचना एवं प्रसारण मंत्री सोनी और मनमोहन के मीडिया सलाहकार हरीश खरे के बीच ऐसी ही खींचतान है. सोनी को प्रधानमंत्री के निवास पर आयोजित मीडिया के साथ उनकी बातचीत के दो अवसरों से दूर रखा गया. दोनों अवसरों पर खरे ने प्रमुख की भूमिका निभाई. दोनों बातचीत का उलटा असर हुआ.
पहली बातचीत संसद के बजट सत्र की पूर्व संध्या पर 16 फरवरी को हुई थी ताकि मनमोहन खुद को 2जी घोटाले से दूर रख सकें. लेकिन वे इससे अपना पिंड नहीं छुड़ा सके. दूसरी बातचीत बाबा रामदेव की हवाईअड्डे पर अगवानी से उठे विवाद के फौरन बाद 29 जून को हुई थी. तब प्रधानमंत्री की आलोचना की गई थी कि उन्होंने हवाईअड्डे पर योग गुरु की अगवानी के लिए चार कैबिनेट मंत्रियों को भेजा था. कैमरे से परे इस बातचीत के लिए कुछ चुनिंदा संपादकों को आमंत्रित किया गया था और मनमोहन ने उनके सामने अपनी कार्रवाई की वकालत की थी.
आरटीआइ से सूचना जाहिर होने के डर से शासन का कार्य वस्तुतः ठप हो गया है क्योंकि नौकरशाहों ने फाइलों पर न्यूनतम कार्रवाई का रवैया अपना लिया है. नौकरशाहों को अंदेशा है कि उनके राजनैतिक आकाओं की हरकतों के लिए उन्हें बलि का बकरा बनाया जा सकता है. नतीजतन वे फाइलों पर अपनी नोटिंग को हर मुमकिन फीका-सीठा बनाए रखने का प्रयास कर रहे हैं. एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है, ''इस तरह के डरावने माहौल में कोई सोचा-समझा फैसला नहीं किया जा सकता.''
भारतीय कंपनी जगत के दो दिग्गजों केशब महिंद्रा और दीपक पारेख के नेतृत्व में जानी-मानी हस्तियों के एक समूह ने 10 अक्तूबर को प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर बताया कि वे सरकार से क्या करने की उम्मीद करते हैं. इस समूह ने सीएजी रिपोर्ट में 2जी के पहले रहस्योद्घाटन के बाद जनवरी में एक पत्र लिखा था जिससे सरकार थम-सी गई. नवीनतम पत्र में कहा गया है, ''भूमि, न्यायिक, चुनाव और पुलिस सुधार की बेहद जरूरत है.''
फिलहाल इनमें से कोई भी मुद्दा सरकार के एजेंडे में ऊपर नहीं है. वह हकीकत में खुद को परेशान करने वाले पंगुपन को दूर करने की बजाए अपने ख्याली दानव से निबटने को तरजीह दे रही है.
-साथ में शफी रहमान