भारत 1947 में बेशक आजाद हो चुका था लेकिन गोवा में 450 साल से अधिक समय से जमे पुर्तगाली वापस जाने का नाम नहीं ले रहे थे. पुर्तगालियों के कब्जे के चलते गोवा के लोगों में भी असंतोष बढ़ता जा रहा था और भारत सरकार पर भी अंदर से दबाव था कि यदि पुर्तगाली गोवा को नहीं छोड़ते हैं तो सैन्य कार्रवाई के जरिए उनका शासन नेस्तनाबूद कर दिया जाए.
गोवा मुक्ति पर लिखी गई केपी सिंह की पुस्तक के मुताबिक भारत सरकार पर भारतीयों की ओर से पुर्तगालियों को भगाने के लिए जबर्दस्त दबाव पड़ रहा था और खुद गोवा में भी इसके लिए हिंसक तथा अहिंसक आंदोलन चल रहे थे. पुस्तक के अनुसार पुर्तगालियों ने किसी भी सूरत में गोवा को न छोड़ने का मन बना रखा था और हमले की स्थिति में भारत को जवाब देने के लिए वे अपने स्तर पर सैन्य तैयारियों में भी लगे थे.
सिंह का कहना है कि पुर्तगालियों को जब यह विश्वास हो गया कि भारत सैन्य कार्रवाई कर सकता है तो उन्होंने भारत को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास शुरू कर दिए. दूसरी ओर भारत सरकार ने भी गोवा को मुक्त कराने का पूर मन बना लिया था और अंतत: 1961 के दिसंबर महीने में सेना को गोवा कूच का आदेश दे दिया गया.
भारतीय सेना के तीनों अंगों ने आखिरकार 18 दिसंबर 1961 को जल थल और नभ से पुर्तगालियों पर जबर्दस्त हमला बोल दिया लेकिन इस बात का पूरा ध्यान रखा कि इसमें जनहानि कम से कम हो. हालांकि दोनों ओर से झड़पें 18 दिसंबर के पहले से ही जारी थीं. पुस्तक के अनुसार पुर्तगालियों ने भारतीय सैन्य कार्रवाई का प्रतिरोध किया लेकिन दूसरे ही दिन 19 दिसंबर को हार स्वीकार कर पुर्तगाली शासन के गवर्नर सहित अन्य अधिकारियों ने भारतीय सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया.{mospagebreak}
अवकाशप्राप्त ब्रिगेडियर एस. कपूर का कहना है कि गोवा मुक्ति संग्राम में भारतीय सेना ने इस बात का पूरा ख्याल रखा कि इसमें कम से कम लोगों की जान जाए. भारत के लिए यह एक निर्णायक जीत थी जिसे सिर्फ दो दिन में हासिल कर लिया गया. कपूर के अनुसार गोवा दमन दीव दादर नगर हवेली जहां कहीं भी पुर्तगालियों का कब्जा था उन सभी इलाकों को मुक्त करा लिया गया.
गोवा मुक्ति को लेकर दुनियाभर में प्रतिक्रिया हुई. भारत के मित्र देशों ने जहां इसका समर्थन किया वहीं अन्य ने इसे अनुचित ठहराया. पुर्तगाल ने भारत से सभी संबंध तोड़ लिए और उसकी जोड़तोड़ से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के खिलाफ एक प्रस्ताव आया जिसे तत्कालीन सोवियत संघ ने वीटो कर दिया.
पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने दो जनवरी 1962 को अमेरिकी राष्ट्रपति को पत्र लिखकर भारतीय कार्रवाई की यह कहकर निन्दा की कि गोवा पर हमला कर भारत ने दर्शा दिया है कि यदि कहीं पर उसके हितों को नुकसान पहुंचता है तो वह हमला करने से नहीं चूकेगा. गोवा के भारत के हाथों में चले जाने की खबर से लिस्बन में शोक की लहर दौड़ गई थी और वहां पर क्रिसमस का त्यौहार बड़े बुझे मन से मनाया गया.
गोवा मुक्ति संग्राम के चलते भारत और पुर्तगाल के बीच रिश्तों पर बर्फ जम गई जो 1974 में आकर पिघली और संबंध फिर से बहाल हुए. रूस में जहां भारत की कार्रवाई का समर्थन किया गया वहीं अमेरिकी मीडिया में भारत के खिलाफ खबरें छापी गईं.