हाल में प्रकाशित एक किताब में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की तुलना उनके चचेरे भाई से करते हुए कहा गया है कि वरुण अपनी पार्टी भाजपा में व्यावहारिक तौर पर अलग-थलग हैं.
पत्रकार जतिन गांधी और वीनू संधू ने ‘राहुल’ शीषर्क वाली किताब में लिखा है, ‘काफी हद तक यह माता अथवा पिता और राहुल तथा वरुण की ही पसंद का नतीजा है. जहां राजीव गांधी को जनता का प्यार और सदभावना मिली, वहीं संजय गांधी को आमतौर पर उनकी नीतियों के कारण पंसद नहीं किया गया.’
इसमें कहा गया है, ‘जहां राहुल ने स्वयं को धर्मनिरपेक्ष साबित करने के लिए अतिरिक्त प्रयास किये, वहीं वरुण गांधी ने इससे ठीक उल्टा किया. जहां एक ओर कांग्रेस राहुल को देश के प्रधानमंत्री पद पर देखने के अलावा कुछ और नहीं चाहेगी, वहीं वरुण की पार्टी भाजपा उन्हें लेकर आशंकित रहती है, क्योंकि वह आखिरकार हैं तो गांधी ही.’
किताब में कहा गया है कि भाजपा नेता अक्सर ही वरुण की, पार्टीलाइन से हटने पर खिंचाई करते हैं जबकि राहुल के मामले में उनकी मामूली हलचल ही नयी पार्टी लाइन बन जाती है.
किताब के अनुसार, कांग्रेस जहां राहुल को प्रधानमंत्री पद का अगला उम्मदवार कहने में नहीं हिचकती वहीं दूसरी ओर वरुण गांधी अपनी ही पार्टी में अक्सर व्यवहारिक रूप से अलग-थलग खड़े नजर आते हैं.
राहुल गांधी के ‘मिशन 2012’ के बारे में इस किताब में लिखा गया है कि उन्हें उम्मीद है कि इस बार वह उत्तर प्रदेश में मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अपना कर अपनी पार्टी की जीत सुनिश्चित करेंगे. इस फार्मूले ने वर्ष 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस को 21 सीटें दिलाई थीं जिसकी वजह से बसपा प्रमुख ने ब्राह्मण मतों की कीमत पर दलित और मुस्लिमों को लुभाने पर ध्यान केंद्रित कर दिया.
किताब में कहा गया है कि उप्र में पकड़ बनाने के लिए पार्टी के प्रयासों के शुरू होने के बाद कांग्रेस को भी बसपा की ही तरह 2012 के विधानसभा चुनावों के लिए 2011 में ही उम्मीदवार तय कर लेने की उम्मीद थी.
हालांकि इसमें यह भी कहा गया है कि पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान बिहार में कांग्रेस को भारी नुकसान उठाना पड़ा और उत्तर प्रदेश को मायावती से छीनने के लिए जो कार्यकर्ता व्यापक योजना पर काम कर रहे थे वे भ्रमित हो गए.
किताब के अनुसार, 2010 में बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने बताया कि राहुल का फार्मूला पार्टी के लिए नुकसानदेह साबित हुआ.