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परंपरागत खेल छोड़ वीडियो गेम में 'फंसा' बचपन

पटना के कंकड़बाग के रहने वाले 55 वर्षीय रमेश शंकर इन दिनों अपने बच्चों के खेलने के तरीके और उनके तकनीकी खेलों को लेकर परेशान हैं. उनका मानना है कि बच्चों को आज भले ही इन खेलों में मजा आ रहा हो, लेकिन परम्परागत खेल ही उन्हें अच्छा इंसान बनाने में मदद कर सकते हैं.

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पटना के कंकड़बाग के रहने वाले 55 वर्षीय रमेश शंकर इन दिनों अपने बच्चों के खेलने के तरीके और उनके तकनीकी खेलों को लेकर परेशान हैं. उनका मानना है कि बच्चों को आज भले ही इन खेलों में मजा आ रहा हो, लेकिन परम्परागत खेल ही उन्हें अच्छा इंसान बनाने में मदद कर सकते हैं.

बिहार में केवल रमेश ही ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो इन तकनीकी खेलों को लेकर परेशान हैं. राजा बाजार के कंवलजीत सिंह भी कहते हैं कि आजकल शहरों के बच्चे पीएसपी वीटा, प्ले स्टेशन मूव, पीएस-3 जैसे खेलों पर रोजाना घंटों समय बिता रहे हैं. उनकी यह सनक न केवल शारीरिक, बल्कि व्यावहारिक रूप से भी उन्हें पंगु कर रही है.

वह कहते हैं कि पहले शहरों में भी बच्चे लुका-छिपी, अती-पती, गिल्ली-डंडा, कित-कित, रस्सी कूद जैसे पारम्परिक खेलों से मन बहलाते थे, लेकिन अब बच्चे इन खेलों से दूर हो गए हैं. कई अभिभावक भी अब अपने बच्चों को पारंपरिक खेलों से दूर कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें यह खेल पिछड़ेपन का अहसास दिलाते हैं.

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बुजुर्गो का कहना है, ‘हमारे बचपन में खेले जाने वाले वह खेल न केवल शरीर को स्वस्थ रखने में मदद करते थे, बल्कि टीम में काम करने के लिए प्रेरित करते थे. यही नहीं, मानसिक विकास में भी यह खेल मदद करते थे.’

गर्दनीबाग निवासी 70 वर्षीया रामकली देवी कहती हैं, ‘लड़कों की बात तो छोड़ दीजिए, लड़कियां भी तेज धूप व बारिश में खूब खेलती थीं. बच्चे गिरते थे, चोट लगती थी और फिर खुद उठकर खेलने भी लगते थे. शायद इसलिए इस उम्र में भी हम शारीरिक रूप से मजबूत हैं.’

अपने बचपन और जवानी को याद करते हुए रामकली कहती हैं, ‘हम उस दौर में बीमार नहीं पड़ते थे. लेकिन अब बच्चे अपने अभिभावकों के साथ कमरे में सिमट गए हैं. धूप, बारिश बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं. अगर धूप में कुछ देर रहना पड़ जाए तो वह बीमार हो जाते हैं. अब तो शहर के बच्चे पारम्परिक खेलों का नाम तक नहीं जानते.’

पटना की जानी-मानी समाजशास्त्री प्रोफेसर रेणु रंजन भी कहती हैं कि यह आधुनिकता की अंधी दौड़ का नतीजा है. वह कहती हैं कि आज बच्चे एक-दूसरे की भावनाओं को समझने में सक्षम नहीं हैं. आज के दौर में भले ही बच्चों का मानसिक रूप से विकास हो रहा हो परंतु शारीरिक रूप से उनका विकास ठीक ढंग से नहीं हो रहा है.

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वह कहती हैं, ‘पहले खेलों के बहाने बच्चे प्रतिदिन एक-दूसरे से मिला करते थे, प्राकृतिक वातावरण से उनका समन्वय बनता था, लेकिन अब यह सब बच्चों से दूर हो रहा है. मोटापा की समस्या भी बढ़ गई है.’

एक अन्य समाजशास्त्री का मानना है कि परम्परागत खेल छूटने की मुख्य वजह आधुनिकता की अंधी दौड़ है. आजकल माता-पिता ही बच्चों को परंपरागत खेल से दूर कर रहे हैं. वे उन्हें घर से दूर नहीं जाने देना चाहते. उन्हें लगता है कि बच्चों को चोट लग जाएगी, वह बिगड़ जाएंगे. इस सोच के कारण वे उन्हें कमरे में बंद कर रखते हैं.

वैसे, इन खेलों के गुम होने की एक मुख्य वजह है शहर में अपार्टमेंट्स का बनना. शहर से मैदान गायब होते जा रहे हैं, बच्चे अपार्टमेंट्स में वीडियो गेम तक सीमित रह जाते हैं. इस तरह अब न वह खेल रह गए हैं और न ही उनसे मिलने वाली सीख.

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