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हमारी अब तक की सर्वश्रेष्ठ टीम: अंशुमान गायकवाड़

अपने देश की टीम का समर्थन करना किसी के लिए भी स्वाभाविक बात है, लेकिन इस बार भारतीय क्रिकेट प्रेमी वास्तव में 28 वर्ष के अंतराल के बाद अपनी टीम को विश्व कप जीतते हुए देख सकते हैं. मेरे पास ऐसा कहने के तीन कारण हैं.

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अपने देश की टीम का समर्थन करना किसी के लिए भी स्वाभाविक बात है, लेकिन इस बार भारतीय क्रिकेट प्रेमी वास्तव में 28 वर्ष के अंतराल के बाद अपनी टीम को विश्व कप जीतते हुए देख सकते हैं. मेरे पास ऐसा कहने के तीन कारण हैं.
पहला कारण:  टूर्नामेंट का समय और उसका स्थान. 19 फरवरी से 2 अप्रैल तक यह विश्व कप भारतीय उपमहाद्वीप में होने जा रहा है. भारतीय परिस्थितयों में और श्रीलंका और बांग्लादेश में भी, इस दौर का मौसम भारतीय खिलाड़ियों को सबसे ज्‍यादा उपयुक्त महसूस होगा. विकेट धीमे और सूखे होंगे. ऐसी पिचों पर हमारे स्पिनर्स प्रभावी होंगे. गर्मी के कारण पश्चिमी टीमों को अपने आपको वातावरण के अनुरूप ढालने में कठिनाई होगी. पिच से कोई मदद न मिलने पर उनके तेज गेंदबाजों का सारा दमखम निकल जाएगा.
दूसरा कारण:  टीम की बनावट. जिस टीम ने 1983 का विश्व कप जीता था, उसमें कपिल देव, मदनलाल, रोजर बिन्नी और मोहिंदर अमरनाथ जैसे खिलाड़ी थे. ये सारे लोग बैटिंग और बॉलिंग, दोनों कर सकते थे, लेकिन जीत किसी की व्यक्तिगत प्रतिभा के बूते नहीं मिली थी. जीत मिली थी टीम के प्रयासों से. 2011 की टीम में सचिन तेंदुलकर, वीरेंद्र सहवाग, महेंद्र सिंह धोनी, यूसुफ पठान, गौतम गंभीर, युवराज सिंह और सुरेश रैना हैं. इनमें से प्रत्येक खिलाड़ी मैच जिताने की क्षमता रखने वाला है. ये लोग खेल को अंतिम क्षणों में खेलने में भी बेहतरीन हैं.

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बल्ले के साथ हरभजन सिंह की प्रतिभा ने हमारी बल्लेबाजी में गहराई पैदा कर दी है. हमारी गेंदबाजी की आक्रामकता भी शानदार है. जहीर खान हाल के समय में बेहद लाजवाब रहे हैं. आशीष नेहरा विकेट झटकने वाले हमारे गेंदबाज हैं और मुनफ पटेल में दिन दूना-रात चौगुना सुधार हुआ है. स्पिन के क्षेत्र में हमारे पास हरभजन सिंह के रूप में विश्व का सर्वश्रेष्ठ गेंदबाज है. यह बात भी हमारे पक्ष में जाती है कि हमारा विकेटकीपर भी एक अच्छा बल्लेबाज है. कई लोग कहते हैं कि हमारे पास पांचवां गेंदबाज नहीं है. लेकिन यूसुफ पठान, युवराज, सहवाग और रैना मिलकर इस कमी की पूर्ति हमेशा कर सकते हैं.

भारतीय टीम में युवा और अनुभवी खिलाड़ियों का एक बेहतरीन मेल है. लाभकारी नतीजे देने में इसकी निर्णायक भूमिका होगी. कनिष्ठ खिलाड़ियों का उत्साह वरिष्ठ खिलाड़ियों को अच्छा खेल दिखाने के लिए दबाव डालेगा, जबकि कनिष्ठ खिलाड़ियों को वरिष्ठों के अनुभव से काफी लाभ होगा. जब किसी टीम में तेंदुलकर जैसा कोई मौजूद हो, जो 400 से ज्‍यादा एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैच खेल चुका हो, तो जाहिर तौर पर इससे आपका पलड़ा दूसरों से भारी हो जाता है. विश्व कप की अन्य टीमें ऐसे संयोग का दावा नहीं कर सकतीं. ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका तेज गेंदबाजों पर बहुत ज्‍यादानिर्भर हैं, लेकिन इस उपमहाद्वीप की गर्मी और धूल में वे बहुत प्रभावी नहीं रहेंगे. यही हाल इंग्लैंड और न्यूजीलैंड के साथ है.

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तीसरा कारण: मैच जिताने वालों का उदय. तेंदुलकर, सहवाग, धोनी, युवराज और गंभीर के अलावा हमारे पास पांसा पलटने वाले तीन नए खिलाड़ी हैं. पिछले काफी समय से रैना, पठान और विराट कोहली अच्छे-खासे 30-40 रन बना लेते हैं, लेकिन ये लोग लंबी पारी नहीं खेल सके हैं. लेकिन पिछली एक दो श्रृंखलाओं में उन्होंने दबाव का मुकाबला करने में सराहनीय परिपक्वता दिखाई है. नतीजतन वे लोग जबरदस्त अनुशासन के साथ अपेक्षाकृत लंबी पारियां खेल रहे हैं. वे तब तक डटे रहते हैं जब तक काम पूरा न हो जाए, यानी टीम के लिए मैच न जीत लिया जाए. हाल की सफलता ने इन खिलाड़ियों में यह भरोसा जगा दिया है कि वे किसी बाजी को तब भी पलट सकते हैं, जब हालत पतली हो चुकी हो.{mospagebreak}

इस मजबूत टीम के निर्माण में हमें दो व्यक्तियों-कोच गैरी कर्स्टन और कप्तान धोनी-की भूमिका भी भूलनी नहीं चाहिए. कर्स्टन ने इन खिलाड़ियों को उनकी अपनी क्षमता पर विश्वास करना सिखा दिया है, जिसका नतीजा मैदान पर कभी भी हार न मानने वाले तेवर में निकला है. धोनी की कप्तानी में बहुत सुधार हुआ है. गेंदबाजी में परिवर्तन और फील्डिंग की उनकी जमावट अभेद्य है.

सबसे अंत में, लेकिन अहम तौर पर यह संभवतः तेंदुलकर का अंतिम विश्व कप हो सकता है. लिहाजा, खिलाड़ियों को अपनी ताकत का 110 फीसदी झोंकना अच्छा लगेगा. पूरा देश इंतजार कर रहा है कि धोनी के धुरंधर 2 अप्रैल को विश्व कप अपने हाथों में उठाएं.

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