हर साल आश्विन मास के कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक के पंद्रह दिनों को पितृपक्ष कहा जाता है और यह समय सिर्फ पितरों के पूजन और तर्पण के लिए सुनिश्चित होता है. कहा जाता है कि इस समय पूर्वजों के स्मरण से न केवल उनकी आत्मा को तृप्ति मिलती है बल्कि वे संतुष्ट होकर आशीर्वाद भी देते हैं. तो करें 3 ऐसे ही धाम के दर्शन जहां पितृपक्ष में श्राद्ध व तर्पण करने से व केवल पितर संतुष्ट होंगे बल्कि सुख-समृद्धि धन व ऐश्वर्य से भर देंगे घर.
गया धाम
वैदिक परंपरा और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार पितरों के लिए श्रद्धा से श्राद्ध करना एक महान और उत्कृष्ट कार्य है. मान्यता के मुताबिक एक पुत्र का जीवन तभी सार्थक माना जाता है जब वह अपने जीवन काल में जीवित माता-पिता की सेवा करें और उनके मरने के बाद उनका विधिवत श्राद्ध करें.
अश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से आश्विन महीने की अमावस्या तक के समय को पितृपक्ष या महालया पक्ष कहा जाता है. मान्यता के अनुसार पिंडदान से मरने वाले व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है . ऐसे तो देश में हरिद्वार, गंगासागर, कुरूक्षेत्र, चित्रकूट, पुष्कर सहित कई स्थानों में भगवान पितरों को श्रद्धापूर्वक किए गए श्राद्ध से मोक्ष प्रदान कर देते हैं, लेकिन गया में किए गए श्राद्ध की महिमा का गुणगान तो भगवान राम ने भी किया है. कहा जाता है कि भगवान राम और माता सीता ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था.
आचार्यों के मुताबिक लोगों में यह आम धारणा है कि एक परिवार में से कोई एक व्यक्ति ही `गया` करता है. गया करने का मतलब है कि गया में पितरों को श्राद्ध करना, पिंडदान करना. गरुड़ पुराण में लिखा गया है कि गया जाने के लिए घर से निकलने पर चलने वाले एक-एक कदम पितरों को स्वर्ग की ओर ले जाने के लिए एक-एक सीढ़ी की तरह बनते जाते हैं .
गया को विष्णु का नगर माना गया है. यह मोक्ष की भूमि कहलाती है. विष्णु पुराण और वायु पुराण में भी इसकी चर्चा की गई है. विष्णु पुराण के मुताबिक गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है और उन्हें स्वर्ग में वास मिलता है. माना जाता है कि गया में स्वयं विष्णु पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे `पितृ तीर्थ` भी कहा जाता है.
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भस्मासुर के वंश में गयासुर नामक राक्षस ने कठिन तपस्या कर ब्रह्माजी से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाएं. इस वरदान के मिलने के बाद स्वर्ग की जनसंख्या बढ़ने लगी और प्राकृतिक नियम के विपरीत घटनाएं होने लगी. लोग बिना भय के पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन से पाप मुक्त होने लगे.
इससे बचने के लिए देवताओं ने यज्ञ के लिए पवित्र स्थल की मांग गयासुर से मांगी. गयासुर ने अपना शरीर देवताओं के यज्ञ के लिए दे दिया. जब गयासुर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया. यही पांच कोस की जगह आगे चलकर गया बनी परंतु गयासुर के मन से लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और फिर उसने देवताओं से वरदान मांगा कि यह स्थान लोगों को मुक्ति देने वाला बना रहे . जो भी लोग यहां पर किसी का तर्पण करने की इच्छा से पिंडदान करें, उन्हें मुक्ति मिले. यही कारण है कि आज भी लोग अपने पितरों को तारने के लिए पिंडदान के लिए गया आते हैं.
कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों की 360 वेदियां थी जहां पिंडदान किया जाता था. इनमें से अब 48 ही बची हैं. हालांकि कई धार्मिक संस्थाएं उन पुरानी वेदियों की खोज की मांग कर रही हैं. वर्तमान समय में इन्हीं वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं. पिंडदान के लिए प्रतिवर्ष गया में देश-विदेश से लाखों लोग आते हैं .
पुष्कर
गया के बाद जानें पुष्कर के बारे में. यहां आकर ब्रह्म सरोवर में डुबकी लगाना और अपने पितरों के लिए पूजा अर्चना करने का सौभाग्य जिसे मिल गया उसका जीवन सवंरते देर नहीं लगती.
जयपुर से 150 किमी पर बसा पुष्कर जहां कदम रखते ही मन एक अनोखी शांति से भर जाता है. जहां पहुंचकर न केवल परमपिता ब्रह्मा के इकलौते मंदिर के दर्शनों का सौभाग्य मिलता है बल्कि दूर तक फैले पवित्र ब्रह्म सरोवर के दर्शन से भक्तों को मिल जाता है मोक्ष.
पुष्कर के इस ब्रह्म सरोवर के बारे में कहा जाता हैं कि इस सरोवर में लगाई गई एक डुबती जन्म जन्मांतर के चक्र से मुक्ति दे देती है और जीवन में सुखृ-समृद्धि से भर देती है. पुष्कर आने के पीछे हर किसी की ये प्रबल इच्छा होती है कि वो एक बार पवित्र ब्रह्म सरोवर के दर्शन जरूर करे और यही ब्रह्मा पूजा का शास्त्रीय विधान भी है वो इसलिए ताकि हर श्रद्धालु उस स्थान को नजदीक से देख सके जहां से जीवन की उत्पत्ति हुई थी.
दुनिया भर से लोग यहां स्नान करके पुण्य कमाने ही नहीं बल्कि अपने पितरों की शांति के लिए श्राद्ध करने भी आते हैं क्योंकि पौराणिक मान्याताओं में पुष्कर को मृत्यु लोक के सबसे बड़े पवित्र तीर्थों में से एक माना गया है और यही कारण है कि श्राद्ध पक्ष के दौरान भारी संख्या में श्रद्धालु ब्रह्म सरोवर के किनारे अपने पिरतों की आत्मा की शांति व मोक्ष प्राप्ति के लिए विधि-विधान से पिडंदान व तपर्ण करते हैं.
पुष्कर आकर ब्रह्म सरोवर में जुबकी लगाना और परमपिता ब्रह्मा के दर्शन करने का पुण्य चारधाम यात्रा के पुण्य के बराबर माना गया हैं. कहते हैं अगर कोई व्यक्ति चार धाम कि तीर्थ यात्रा करता है तो उसके बाद पुष्कर आकर ब्रह्म सरोवर में डुबकी लगाने के बाद ही उसकी यात्रा पूर्ण मानी जाती है.
पुष्कर में पूजा-पाठ की प्रक्रिया ब्रह्म मुहूर्त से शुरू हो जाती है. ब्रह्म मुहूर्त में भक्त निकल पड़ते हैं अपने आराध्य की आराधना के लिए और आराधना की क्रम शुरू होता है गऊ घाट से. गऊ घाट में सबसे पहले सुबह की आरती होती है आरती के बाद किया जाता है ब्रह्मा जी का दुग्धाभिषेक. दुग्धाभिषेक के दौरान पूरा परिसर मंत्रों की पावन ध्वनि की गूंज उठता है. ब्रह्मा जी की आराधना से जुड़ी पूजा-पाठ की सभी प्रक्रिया इसी सरोवर पर पूरी की जाती है. इसके बाद भक्तों के कदम बढ़ते हैं उस स्थान पर जहां ब्रह्मा जी की 4 सिर वाली मूर्ति विराजमान हैं. इस मंदिर के अंदर केवल ब्रह्मा जी के दर्शन किए जाते हैं. पूजा करना मंदिर अंदर पूरी तरह वर्जित है.
ब्रह्मा जी के दर्शन करने के बाद मां सावित्री के दर्शन जरूर किए जाते हैं जिनका मंदिर थोड़ी ही दूर एक पहाड़ी पर स्थित है. कहते हैं जब तक भक्त मां सावित्री के दर्शन न कर लें परमपिता ब्रह्मा की पूजा अधूरी मानी जाती है.
वाराणसी
वाराणसी में बना है मां लक्ष्मी का ये पावन धाम. कहते हैं जब पितृपक्ष में जब सभी देवता शयन के लिए चले जाते हैं, तब वाराणसी में मां लक्ष्मी अकेली ऐसी देवी हैं जो जाग्रत रहती हैं और भक्तो पर लुटाती हैं अपनी कृपा. यहां मां नारायण के बिना विराजती हैं और शिवभक्तों के लिए खोल देती हैं खजाने का द्वार.
मां लक्ष्मी के दरबार में भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ी है उनका आशीर्वाद पाने के लिए, आरती से किया जा रहा है मां का गुणगान और भक्त लगा रहे हैं अपनी अपनी फरियाद.
मां का रुप निराला है, उनकी महिमा अपरंपार है, और ये बात यहां आने वाले भक्तों को बखूबी मालूम है. तभी तो सुबह हो या शाम भक्त दौड़े चले आते हैं और झुका देते हैं मां के चरणों में शीश.
पितृपक्ष में जब सभी देवता शयन के लिए चले जाते हैं, तब वाराणसी में मां लक्ष्मी अकेली ऐसी देवी हैं जो जाग्रत रहती हैं और भक्तो पर लुटाती हैं अपनी कृपा. यहां मां नारायण के बिना विराजती हैं और शिवभक्तों के लिए खोल देती हैं खजाने का द्वार. जिसे जितना चाहिए होता है, उसे मां बिना कुछ कहे दे देती हैं.
मां का वरदान पाने के लिए चाहिए होता है तो सिर्फ एक कच्चा धागा. इस धागे में 16 गांठें लगाकर मां को अर्पित किया जाता है और फिर चढ़ाए जाते हैं 16 प्रकार के प्रसाद और 16 श्रृंगार का सामान. कहते हैं ऐसा कर 16 दिन तक व्रत रखने वालों पर मां जल्दी प्रसन्न हो जाती हैं.
वाराणसी में मां लक्ष्मी के मंदिर के ठीक सामने एक सरोवर भी है जिसके पावन जल का स्पर्श कर भक्त लेते हैं मां का आशीर्वाद. लेकिन सबसे अनोखा है यहां का प्रसाद. पूजा के बाद भक्त प्रसाद के रुप में मां का मुखौटा खरीद कर घर ले जाते हैं और 16 दिन तक करते हैं पूजा. मान्यता है कि ऐसा करने से सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं.
पितृपक्ष के पूरे 16 दिन काशी में मां लक्ष्मी के मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है. कहते हैं इन 16 दिनों में जिसने मां के आगे मत्था टेक दिया, उसे फिर कहीं और जाने की जरूरत नहीं रहती. खाली हाथ आने वाले यहां से झोली भर कर लौटते हैं और पूरे जीवन मां के भक्त बन जाते हैं.