पैगंबर मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन का भारत से गहरा रिश्ता था.
दरअसल, कर्बला की जंग के दौरान एक समय ऐसा भी आया था जब इमाम हुसैन ने भारत जाने की इच्छा जाहिर की थी.
बादशाह यजीद, इमाम हुसैन की इच्छा के खिलाफ था.
इमाम हुसैन को भारत आने की अनुमति नहीं मिली और उनके खिलाफ जंग छेड़ दी गई.
कहा जाता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने भी इमाम हुसैन को भारत आकर रहने का
न्योता दिया था. हालांकि, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य और इमाम हुसैन का टाइम पीरियड बहुत
अलग है, जिसकी वजह से इस कहानी को बहुत प्रामाणिक नहीं माना जाता है.
कहा जाता है कि इमाम हुसैन को ढूंढते हुए चंद्रगुप्त का दूत मुहर्रम की 9 तारीख को कर्बला
पहुंचा.
दूत ने इमाम हुसैन को खत दिया. इमाम हुसैन ने खत खोलकर पढ़ा तो वह
मुस्कुराकर यजीदी फौज के लीडर उमर इब्न साद से बोले, 'अगर तुम मुझे जाने
दोगे तो मैं अरब छोड़कर भारत चला जाऊंगा'.
उमर इब्न साद ने कहा कि हुसैन तुम यहां से नहीं जा सकते, तुम्हारे लिए सभी रास्ते बंद कर दिए गए हैं.
ये सुनने के बाद दूत ने इमाम हुसैन से कहा, मेरे राजा ने मुझे हुक्म दिया है कि मैं आपको अपने साथ लेकर ही भारत लौटूं. इस पर इमाम हुसैन ने कहा कि मैं भारत जाना तो चाहता हूं, लेकिन ये लोग मुझे यहां से जाने नहीं देंगे.
अगले ही दिन यानी 10 मुहर्रम को यजीद की पत्थर दिल फौज ने इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों को बड़ी बेदर्दी के साथ शहीद कर दिया.
वैसे इमाम हुसैन और चंद्रगुप्त के बीच इस रिश्ते को लेकर बहुत प्रामाणिक तौर पर ज्यादा कुछ नहीं मिलता. हां, कुछ इतिहासकारों ने अपनी स्थापना में इस तरह की कहानियों का जिक्र किया है.
ये सभी लोग शिया मुसलमानों की तरह ही इमाम हुसैन की शहादत के गम में मजलिस पढ़ते हैं, मातम करते हैं.
कर्बला की जंग में इमाम हुसैन के बेटे जैनुल आबिदीन बच गए थे क्योंकि तबीयत खराब
होने की वजह से वह इमाम हुसैन के साथ काफिले में शामिल नहीं हो सके थे. बाद में उनसे ही इमाम हुसैन की कौम आगे बढ़ी थी.
कर्बला में इस्लाम के हित में जंग करते हुए इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोग मुहर्रम की 10 तारीख को शहीद हुए थे. हुसैन की उसी कुर्बानी को याद करते हुए मुहर्रम की 10 तारीख को मुसलमान अलग-अलग तरीकों से ग़म जाहिर करते हैं.