महाभारत सिर्फ दो परिवारों की आपसी लड़ाई की कथा नहीं है, यह त्याग-तपस्या, साहस, कर्तव्य और मानव विकास के कालक्रम की भी कहानी है. इस महान गाथा में आने वाले छोटे-छोटे प्रसंग बहुत महत्वपूर्ण हैं. यह हमारे व्रत-त्योहार और उत्सवों को मनाने और मानने का कारण बनते हैं. ऐसा ही एक व्रत है वट सावित्री व्रत. इसका भी वर्णन महाभारत के वन पर्व में मिलता है.
हस्तिनापुर में दुर्योधन के साथ जुए में सब कुछ हारने के बाद युधिष्ठिर अपने चारों भाइयों और पत्नी द्रौपदी के साथ वनवास झेल रहे थे. इसी बीच एक दिन महर्षि मार्कंडेय वन में आए और युधिष्ठिर की कुटिया पर पहुंचे. महात्मा युधिष्ठिर ने उन्हें देखकर प्रणाम किया और पत्नी व भाइयों सहित ऋषि का सत्कार किया. इसके बाद सभी सत्संग के लिए बैठ गए. ऋषि मार्कंडेय युधिष्ठिर और द्रौपदी को एकटक देखकर यूं ही मुस्कुराने लगे.
मार्कंडेय ऋषि ने वन में सुनाई थी कथा
इस पर युधिष्ठिर ने उनसे प्रश्न किया, महात्मा! आपकी इस मंद मुस्कान में क्या रहस्य है? इस पर ऋषि ने कहा- नहीं युधिष्ठिर, यह कोई रहस्य नहीं है. मैं यूं ही देख रहा हूं कि एक बार पहले कभी प्रभु श्रीराम भी ऐसे ही पत्नी और भाई के संग सिर्फ पिता के वचनों के लिए वन में भटके थे, आज मैं तुम्हें देखता हूं कि धर्म के लिए तुमने भी यह व्रत लिया है. मैं सराहना करता हूं कि द्रौपदी भी पूर्ण मनोयोग से तुम्हारे साथ है.
फिर वह द्रौपदी को संबोधित करके कहने लगे- पुत्री! तुम्हारा आत्मबल ही तुम्हारी पहचान है. इसे बनाए रखना. इस धर्मयुद्ध को अगर पांडव अपने बाहुबल से जीतेंगे तो तुम अपने आत्मबल से इनकी सहायता करोगी. तुम में तो यमराज को हराने की शक्ति है, फिर ये घोड़े-हाथी की सेना कहां टिकेगी?
इस पर द्रौपदी ने कहा- महात्मा! आपने आत्मबल से यमराज को हराने की बात कही. जरूर संसार ऐसे उदाहरणों से भरा होगा. हमें भी ऐसी किसी आत्मबल वाली नारी की कथा सुनाइए. तब मार्कंडेय ऋषि ने कहा- तुमने बहुत उत्तम प्रश्न किया है पुत्री. यह कथा जिस नारी की है, वह न सिर्फ आत्मबल की धनी थी, साथ ही सती और पतिव्रता भी थी. उसने तो यमराज से सीधी टक्कर ली थी. मैं तुम्हें उसकी कथा सुनाता हूं और एक पवित्र व्रत के अनुष्ठान की विधि भी बताऊंगा.

इसके बाद मार्कंडेय ऋषि ने पांडवों और द्रौपदी को सावित्री-सत्यवान की कथा सुनाई.
किसी समय मद्र देश के राजा अश्वपति हुआ करते थे. राजा-रानी धर्मात्मा थे और इसका प्रभाव रहा कि उनकी पुत्री सावित्री भी उनके जैसे ही स्वभाव की थी. विवाह योग्य हो जाने पर राजा ने सावित्री के लिए योग्य वर की तलाश शुरू की. इसी दौरान एक दिन देवर्षि नारद राजा के पास आए. राजा ने उनसे भी पुत्री के विवाह की चर्चा की. नारद मुनि ने राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान की तारीफ की और उसे विवाह के योग्य बताया.
सावित्री ने सत्यवान को मान लिया पति
सावित्री ने देवर्षि के मुख से जब सत्यवान की तारीफ सुनी तो मन ही मन उसे अपना पति मान लिया और राज्यसभा से चली गई. इधर देवर्षि नारद ने आखिरी में बताया कि इस विवाह में एक कष्ट है कि सत्यवान की आयु सिर्फ एक वर्ष है. यह बात जब बाद में सावित्री को पता चली तो उसने कहा- अब तो कुछ नहीं हो सकता है, अब तो मैंने उन्हें अपना पति मान लिया है. इसलिए मैं इस वचन से नहीं डिग सकती. सावित्री ने अपनी मां की शिक्षाओं के खंडन का भय दिखाया. वह दृढ़ होकर बोली, सती, सनातनी स्त्रियां अपना पति एक बार ही चुनती हैं. इस तरह सावित्री साल्व देश के निर्वासित राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान की गृहलक्ष्मी बनकर तपोवन में आ गई.
धीरे-धीरे एक वर्ष होने को आया. एक दिन जब भीषण गर्मी थी, सावित्री का मन सुबह से ही विचलित था. इस पर जब सत्यवान ने कहा कि वह लकड़ी काटने वन जा रहा है तो सावित्री भी उसके साथ चली आई.
आज देवर्षि के बताए अनुसार वही एक वर्ष पूर्ण होने वाली तिथि है, जिस दिन उसके पति का परलोक गमन होना तय था. तभी तो सुबह से विचलित मन लिए सावित्री सत्यवान के साथ ही वन में चली आई थी. अभी सत्यवान आम के पेड़ से लकड़ियां चुन ही रहे थे कि भयंकर पीड़ा और चक्कर आने के कारण वह जमीन पर गिर पड़े. भीषण गर्मी में सावित्री एक विशाल वटवृक्ष के नीचे बैठी थी. पति का सिर उसकी गोद में था और उनकी नींद थी कि टूट ही नहीं रही थी. माथे पर पसीने की बूंदे धारा बनकर चिंता से बनी रेखाओं में बहने लगी थीं. वह लगातार पति के सिर पर हाथ फेरते हुए उन्हें उठाने की कोशिश कर रही थी.
सत्यवान के प्राण लेने आए यमराज
इन्हीं उलझनों में एक काली छाया सामने आकर प्रकट हो गई. यह कोई और नहीं साक्षात यम थे. काल रूपी भैंसे पर सवार यमराज. वह सत्यवान की आत्मा को पाश से खींच कर ले जाने लगे. सावित्री ने फिर भी साहस करते हुए परिचय पूछा. हे देव, आप कौन हैं और मेरे पति के प्राण क्यों खींच लिए आपने? यम ने परिचय देते हुए कहा कि मैं यमराज हूं. बहुत देर से मेरे दूत काली छाया बनकर तुम्हारे पति के प्राण हरण करने की चेष्टा कर रहे हैं, लेकिन तुम्हारे सतीत्व के कारण निकट नहीं आ पा रहे थे. इसलिए मुझे स्वयं आना पड़ा. इतना कहकर वह चलने लगे. सावित्री को अपने संकट का हल मिल गया था.
इसके बाद यमराज सत्यवान के शरीर में से प्राण निकालकर उसे पाश में बांधकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए. सावित्री बोली मेरे पतिदेव को जहां भी ले जाया जाएगा मैं भी वहां जाऊंगी. तब यमराज ने कहा, ऐसा असंभव हे पुत्री, तब सावित्री ने देवी सीता का उदाहरण दिया और कहा कि वह भी तो पति संग वन गईं थीं, तो मैं यमलोक भी चलूंगी. या तो आप मुझे भी साथ ले चलें, या फिर मेरे भी प्राण ले लें. यमराज प्रकृति के नियम विरुद्ध सावित्री के प्राण नहीं ले सकते थे, उसे समझाते हुए कहा मैं उसके प्राण नहीं लौटा सकता तू मनचाहा वर मांग ले.

तब सावित्री ने वर में अपने श्वसुर के आंखें मांग ली. यमराज ने कहा- तथास्तु, लेकिन वह फिर उनके पीछे चलने लगी. तब यमराज ने उसे फिर समझाया और वर मांगने को कहा उसने दूसरा वर मांगा कि मेरे श्वसुर को उनका राज्य वापस मिल जाए. उसके बाद तीसरा वर मांगा मेरे पिता जिन्हें कोई पुत्र नहीं हैं उन्हें सौ पुत्र हों. यमराज ने इतना वर देकर, सावित्री से कहा- अब तुम लौट जाओ पुत्री. इतना कहकर यमराज चलने लगे, जब वह यमपुरी के नजदीक पहुंचे तो उन्होंने एक बार फिर से घूमकर देखा, सावित्री अब भी उनके पीछे-पीछे चली आ रही थी.
यमराज ने कहा- तुम यहां तक आ चुकी हो, यहां कोई नहीं जा सकता. यह नियम विरुद्ध है. सावित्री अडिग रही, तब यमराज ने कहा, ठीक है तुम मुझसे एक वर और ले लो, लेकिन इसके बाद तुम्हें लौटना होगा. तब सावित्री ने कहा- मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र हों और यमराज ने पीछा छुड़ाने के लिए कह दिया तथास्तु, ऐसा ही हो.
अब यमराज एक बार फिर सत्यवान के प्राणों को अपने पाश में जकड़े आगे बढऩे लगे, लेकिन उन्हें फिर से सावित्री के पीछे आने का अहसास हुआ, तब उन्होंने खीझते हुए कहा- अब तुम क्यों चली आ रही हो? तुम वापस क्यों नहीं लौटती. सावित्री ने कहा मैं कैसे वापस लौट जाऊं. आपने ही तो मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्रों का वरदान दिया है. यह सुनकर यम सोच में पड़ गए कि अगर वह सत्यवान के प्राण ले जाएंगे तो उनका वर झूठा होगा.
सावित्री के साहस और सूझबूझ के आगे हारे यमराज
सावित्री के साहस, सूझबूझ और उसकी चतुराई के आगे यमराज को हार माननी ही पड़ी. तब यमराज ने सत्यवान को फिर से जीवित कर दिया. इस तरह सावित्री ने अपने सतीत्व से पति के प्राण, श्वसुर का राज्य, परिवार का सुख और पति के लिए 400 वर्ष की नवीन आयु भी प्राप्त कर ली. इस कथा का विवरण महाभारत के वनपर्व में मिलता है. यह संपूर्ण घटना क्रम वट वृक्ष के नीचे घटने के कारण सनातन परंपरा में वट सावित्री व्रत-पूजन की परंपरा चल पड़ी.