भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आज एक अहम मोड़ पर खड़ी है. गांधी परिवार की विरासत पर टिकी यह पार्टी चुनावी सफलता के लिए लगातार तरस रही है. ऐसे में नेतृत्व पर सवाल उठने लाजमी हैं. पिछले दो दशकों से कांग्रेस पार्टी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में राहुल गांधी के नेतृत्व में है. ऐसे में हर बड़ी असफलता के बाद कार्यकर्ताओं के बीच से आवाज आती है- 'प्रियंका लाओ, कांग्रेस बचाओ'. लेकिन, अबकी बार जो हो रहा है वो थोड़ा अलग है. राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा की तुलना एक प्रमुख मुद्दा बन गया है.
पिछले दिनों ओडिशा के कांग्रेस विधायक मोहम्मद मोकीम और कांग्रेस पार्टी के ही सहारनपुर से सांसद इमरान मसूद जैसे नेताओं ने पार्टी के नेतृत्व को लेकर कुछ ऐसा कहा जिसे सामान्य नहीं कहा जा सकता. इन दोनों नेताओं ने वायनाड की सांसद प्रियंका गांधी की नेतृत्व क्षमता की इस तरह तारीफ की जो निश्चित तौर पर राहुल गांधी समर्थकों को नागवार लगी होगी. पर सवाल यह उठता है कि आखिर प्रियंका गांधी के टैलेंट का पार्टी उपयोग क्यों नहीं कर रही है. प्रियंका पार्टी की एकमात्र महासचिव हैं जिनके पास काम का कोई प्रोफाइल नहीं है.
गांधी परिवार की विरासत और राहुल-प्रियंका
कांग्रेस पार्टी की जड़ें गांधी परिवार से इतनी गहराई से जुड़ी हैं कि इसे अक्सर गांधी-नेहरू परिवार की पार्टी कहा जाता है. जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी जैसे नेताओं ने पार्टी को मजबूत नेतृत्व प्रदान किया. राहुल गांधी, जो 2004 से राजनीति में सक्रिय हैं, को 2017 में कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, लेकिन 2019 में लोकसभा चुनाव हार के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया. इसके बाद मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष बनाया गया, लेकिन वास्तविक शक्ति गांधी परिवार के हाथों में ही मानी जाती रही है . प्रियंका गांधी, जो लंबे समय तक पर्दे के पीछे से काम करती रहीं, 2019 में औपचारिक रूप से राजनीति में शामिल हुईं. उन्हें पार्टी का ब्रह्मास्त्र कहा जाता था, फिर भी उन्हें लोकसभा का टिकट नहीं मिला. लोकसभा चुनावों के बाद प्रियंका को उनके रिटायरमेंट के उम्र के कुछ साल पहले लोकसभा में भेजा गया.
2024-25 के चुनावी परिणामों ने राहुल की लीडरशिप पर सवाल उठाए, जिससे प्रियंका की क्षमता की चर्चा तेज हुई. उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली जैसे राज्यों में कांग्रेस की हार ने पार्टी कार्यकर्ताओं में असंतोष पैदा किया, और कई ने प्रियंका को विकल्प के रूप में देखना शुरू किया.
यह ऐतिहासिक निर्भरता ही एक प्रमुख कारण है. कांग्रेस बिना गांधी परिवार के मजबूत नहीं रह सकती, लेकिन राहुल की बार-बार असफलताओं ने परिवार के भीतर ही विकल्प तलाशने की जरूरत पैदा की. प्रियंका को इंदिरा गांधी की तरह करिश्माई माना जाता है, जो भावनात्मक रूप से लोगों से जुड़ सकती हैं.
प्रियंका गांधी की संसद में सक्रियता और जनता से जुड़ाव
प्रियंका गांधी की चर्चा का मुख्य कारण उनकी अपनी योग्यता है. 2024 में वायनाड से सांसद चुनी गईं प्रियंका ने संसद में सक्रिय भूमिका निभाई. शीतकालीन सत्र में उन्होंने मोदी सरकार पर तीखे हमले किए, जैसे वंदे मातरम पर ऐतिहासिक तथ्यों से जवाब देना, बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार उठाना, और आर्थिक मुद्दों पर फोकस आदि.
उनकी भाषण शैली को अधिक संतुलित और सुनने वाली माना जाता है, जैसा कि केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा. प्रियंका की ग्राउंड लेवल अपील मजबूत है. वे गांवों में बिना शोर-शराबे के जाती हैं, सामाजिक कार्यकर्ताओं से मिलती हैं, और लोगों की समस्याएं सुनती हैं.
उत्तर प्रदेश में 2019-22 के दौरान उन्होंने महिलाओं और किसानों से जुड़े मुद्दे उठाए, जो राहुल की तुलना में अधिक प्रभावी रहे. बहुत से लोगों का मानना है कि प्रियंका इंदिरा गांधी की तरह करिश्माई हैं, और वे महिलाओं को आकर्षित कर सकती हैं. उनकी संसद में उपस्थिति ने उन्हें राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित किया, जबकि राहुल की अनुपस्थिति ने दोनों के बीच के अंतर उजागर किया.
क्या यह परिवारिक टकराव का संकेत है?
2025 में कांग्रेस की हार ने राहुल बनाम प्रियंका की चर्चा को तेज किया. महाराष्ट्र में हार के बाद प्रियंका लाओ, कांग्रेस बचाओ जैसे नारे लगे. रॉबर्ट वाड्रा के बयान ने आग में घी डाला, जहां उन्होंने कहा कि कार्यकर्ता प्रियंका को लीडर चाहते हैं. बीजेपी और एनडीए नेता भी इस पर टिप्पणी कर रहे हैं, जैसे उपेंद्र कुशवाहा ने कहा कि यह राहुल की क्षमता पर सवाल है.
कांग्रेस के अंदर मुस्लिम नेता प्रियंका को प्राथमिकता दे रहे हैं, जो अल्पसंख्यक वोट बैंक के लिए महत्वपूर्ण है.कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मानना है कि राहुल अपने नेतृत्व में राष्ट्रीय चुनाव नहीं जीत सके हैं. कई नेता प्रियंका को अधिक केंद्रीय भूमिका देने की मांग कर रहे हैं. आंतरिक सर्वे और चर्चाओं में प्रियंका को बेहतर स्पीकर माना जा रहा है. पप्पू यादव जैसे नेताओं ने कहा कि राहुल और प्रियंका दूध और चीनी जैसे हैं, लेकिन प्रियंका की क्षमता को नकारा नहीं जा सकता है.
मीडिया में प्रियंका की तुलना इंदिरा से की जा रही है, जबकि राहुल को पप्पू इमेज से जोड़ा जाता है. सोशल मीडिया पर पोस्ट्स प्रियंका की लोकप्रियता को जगजाहिर कर रहे हैं.कांग्रेस पत्रकार भी राहुल से निराश हैं और प्रियंका को टेकओवर की उम्मीद कर रहे हैं.
क्या प्रियंका पर कोई दबाव है
सीडब्लूसी में यह विचार किया जा रहा था कि पार्टी मनरेगा (MGNREGA) को बदलने के सरकार के कदम का कैसे विरोध करे जो यूपीए सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक रहा है. पार्टी नेताओं को बताया गया कि महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने आंदोलन का ब्लू प्रिंट तैयार कर लिया है. इसके बाद CWC ने देशव्यापी मनरेगा बचाओ आंदोलन को हरी झंडी दे दी, जिसे कांग्रेस 5 जनवरी से शुरू करने वाली है. इसका उद्देश्य उस VB-G RAM G क़ानून को रद्द कराने की मांग करना है. पर इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर की माने तो पिछले सप्ताहांत दिल्ली में जब कांग्रेस वर्किंग कमेटी (CWC) की बैठक हुई, जिसमें यह चर्चा होनी थी कि पार्टी नई ग्रामीण रोज़गार गारंटी क़ानून VB-G RAM G के पारित होने के मुद्दे पर सरकार को कैसे घेरें, तो प्रियंका गांधी वाड्रा नदारद रहीं.
यह तथ्य कि आंदोलन की कार्ययोजना प्रियंका ने तैयार की है. द इंडियन एक्सप्रेस ने CWC सदस्य के हवाले से लिखा है कि इस अभियान का वास्तुकार प्रियंका गांधी हैं. इस बात का संकेत है कि वे पार्टी के कामकाज में लगातार अधिक केंद्रीय भूमिका निभा रही हैं. पर सीडब्लूसी की मीटिंग में मौके पर गायब रहना कुछ अलग ही संकेत देता है.
इतना ही नहीं संसद में वंदे मातरम् पर हुई बहस के दौरान उनके भाषण की भी काफी तारीफ हुई. VB-G RAM G विधेयक पेश किए जाने पर सदन में दिया गया उनका संबोधन भी पसंद किया गया. हल्के-फुल्के संसदीय संवाद के बाद अपने निर्वाचन क्षेत्र को लेकर केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी से उनकी मुलाकात और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला द्वारा आयोजित संसद सत्र के बाद की पारंपरिक चाय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ साझा किया गया पल भी उनके नेतृत्व शैली की गंभीरता का ही उदाहरण है.
चुनाव सुधारों पर उनके भाषण की जब तुलना उनके भाई और विपक्ष के नेता राहुल गांधी के भाषण से की गई, तो पार्टी के कई नेताओं ने प्रियंका की बॉडी लैंग्वेज, तुरंत प्रतिक्रिया देने की क्षमता, सटीक पलटवार और तीखे लेकिन कटुता से मुक्त प्रहारों को रेखांकित किया. एक कांग्रेस पदाधिकारी ने कहा कि यह राहुल की भाषण शैली की तुलना में एक ताज़ा बदलाव था. दो दिन बाद लोकसभा सांसदों की बैठक में राहुल गांधी ने स्वयं प्रियंका के भाषण की सराहना की.