बिहार में बीजेपी यथास्थिति बनाए हुए है. और, वो भी बीते बीस साल से. एनडीए की सरकार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होते हैं. बीजेपी ने कदम बस इतना ही बढ़ाया है कि एक से दो डिप्टी सीएम तक पहुंच गई है. अब तक ऐसा प्रयोग भी दो बार हो चुका है. लेकिन, नतीजा सिफर ही रहा है.
2020 में स्थिति बेहतर होने के बावजूद, बीजेपी ने जोखिम न उठाने का फैसला किया. जेडीयू की सीटें काफी कम आने के बावजूद नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री बनाए गए. 2025 के चुनाव में एनडीए के मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित नहीं किया गया है, लेकिन नीतीश कुमार का कोई विकल्प भी नहीं नजर आ रहा है.
महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किए जाने के बाद तेजस्वी यादव भी अरविंद केजरीवाल की तरह बीजेपी से सवाल करने लगे हैं. दिल्ली चुनाव में अरविंद केजरीवाल का बीजेपी से एक ही सवाल होता था, दूल्हा कौन है? दिल्ली की बात और थी. चुनाव बाद रेखा गुप्ता को मुख्यमंत्री बना दिया गया. बिहार में तो अभी माहौल अलग ही है.
बीजेपी के केंद्र की सत्ता में आने के बाद सबसे ज्यादा असर बिहार में ही देखा गया था. नीतीश कुमार ने तो मुख्यमंत्री की कुर्सी ही खाली कर दी थी, लेकिन लौटे तो फिर से कुंडली मारकर बैठ गए. उत्तर प्रदेश में 2017 में ही सत्ता में वापसी के बावजूद, बिहार में बीजेपी के लिए अब भी अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है.
'बिहार में... नीतीशे कुमार हैं'
2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के चुनाव कैंपेन की रणनीति बनाने वाले प्रशांत किशोर ने एक नारा दिया था, 'बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार हैं'. तब नीतीश कुमार महागठबंधन में लालू यादव के साथ चुनाव मैदान में थे, और बीजेपी के पूरी ताकत झोंक देने के बावजूद चुनाव जीते, और मुख्यमंत्री बने.
बात तब की हो, या अभी की. नीतीश कुमार बीजेपी के साथ हों, या लालू यादव के साथ. बहुत फर्क नहीं पड़ता. जीत का यश उसी को मिलता है, जिसके साथ नीतीश कुमार होते हैं. ये फॉर्मूला तो फिर से एनडीए की कामयाबी के संकेत देता है, लेकिन नीतीश कुमार बीजेपी की मंशा को लेकर शायद ही आश्वस्त हों.
ये तो सबको मालूम है कि बीजेपी नीतीश कुमार से जल्द से जल्द छुटकारा चाहती है, लेकिन बिहार में न तो बीजेपी के पास देवेंद्र फडणवीस हैं, न ही नीतीश कुमार किसी भी तरीके से एकनाथ शिंदे बनाए जा सकते हैं. नीतीश कुमार अपने पास अब भी तुरूप का पत्ता अपने पास रखे हुए हैं - कब पलटी मार दें, बीजेपी के नेतृत्व में ये आशंका हमेशा बनी रहती है.
1. सुशील मोदी के बाद से बीजेपी को अब तक कोई नेता नहीं मिल सका है, जिसे वो नीतीश कुमार के मुकाबले बिहार में पेश कर सके. सुशील मोदी में एक ही कमी थी कि वो भी अपना नेता नीतीश कुमार को ही मानते थे, और इसीलिए बीजेपी ने 2020 का चुनाव जीतने के बाद उनको नीतीश कुमार से दूर कर दिया था.
2. 2020 में बीजेपी ने तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी को नीतीश कुमार के अगल बगल डिप्टी सीएम के रूप में बिठाकर काबू करने की कोशिश की, लेकिन उनको भनक भी नहीं लगी, और नीतीश कुमार फिर से लालू यादव के साथ चले गए. मौजूदा दोनों डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी, और विजय सिन्हा का भी हाल अलग नहीं है.
3. बीजेपी अध्यक्ष रहते तो सम्राट चौधरी बड़ी बड़ी बातें करते थे, लेकिन जब नीतीश कुमार की सेहत पर सवाल उठ रहे हैं, तब भी वो कुछ करने की स्थिति में नहीं लगते. अभी तो खुद भी भ्रष्टाचार के आरोप में कठघरे में खड़े नजर आ रहे हैं.
4. बीजेपी के पास अब एक ही रास्ता है, अगर जेडीयू 2020 से भी कम सीटों पर सिमट जाए. लेकिन, चिराग पासवान इस बार बदली भूमिका में हैं. और, जिस तरह बीजेपी नेताओं पर प्रशांत किशोर ने भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं, ममता बनर्जी की तरह उनको बचाने वाला भी बिहार में कोई नहीं - ले देकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ही आसरा है.
नीतीश के नाम पर सस्पेंस बनाए रखने की जरूरत क्यों?
नीतीश कुमार के नाम पर सस्पेंस अब भी बना हुआ है. चुनाव बाद वो मुख्यमंत्री बनेंगे या नहीं, ये पक्का नहीं है. और, ये भी पक्का नहीं है कि चुनाव बाद एनडीए के जीतने पर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे. नीतीश कुमार और बीजेपी एक दूसरे को इस मुद्दे पर लगातार छकाते आ रहे हैं.
काफी पहले ही अमित शाह ने एक बार बोल दिया था कि मुख्यमंत्री कौन होगा, ये फैसला संसदीय बोर्ड करता है. मतलब, नीतीश कुमार का फिर से मुख्यमंत्री बनना तय नहीं है. अमित शाह के बयान के बाद बिहार में भी महाराष्ट्र जैसे प्रयोग की संभावना देखी जाने लगी थी.
अमित शाह के मुंह से नीतीश कुमार के बारे में सुनते ही जेडीयू नेता एक्टिव हो गए, और नीतीश कुमार खामोश. फिर बीजेपी ने बिहार के नेताओं से कहलवाया कि नीतीश कुमार ही नेता होंगे. जेडीयू की तरफ से बयानबाजी और पोस्टरबाजी भी शुरू हो गई. बाद में एक बार केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह ने भी ऐसी ही बात दोहराई. अपने अंदाज में राजनाथ ने करीब करीब समझा दिया कि नीतीश कुमार के नाम पर कोई शक शुबहे वाली बात नहीं है.
लेकिन, अभी अभी अमित शाह ने फिर से एक शिगूफा छेड़ दिया है. बात तो नितिन गडकरी की तरफ से भी वैसी ही की गई है, लेकिन उसमें नीतीश कुमार के लिए एक मजबूत संभावना भी देखी जा रही है - आखिर, इतना कन्फ्यूजन क्यों क्रिएट किया जा रहा है?
अमित शाह ने ये तो माना है कि चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जा रहा है, लेकिन मुख्यमंत्री भी वही बनेंगे, मामला उलझा दिया है. ये भी समझाते हैं कि बिहार विधानसभा में बीजेपी के ज्यादा विधायक होने के बाद भी नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, और 'अब भी नीतीश कुमार जी मुख्यमंत्री हैं.'
नीतीश कुमार को लेकर पूछे जाने पर अमित शाह कहते हैं, मैं कौन होता हूं किसी को मुख्यमंत्री बनाने वाला? बहुत सारे दल हैं. चुनाव के बाद जब हम सभी एक साथ बैठेंगे तो पार्टियों के नेता अपना नेता तय करेंगे.
फिर ऐसा ही सवाल केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी से पूछा जाता है, बिहार में आपको क्या लगता है कि वापस नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन पाएंगे?
नितिन गडकरी का जवाब होता है, एनडीए की सरकार निश्चित रूप से बिहार की सत्ता में फिर से आएगी... चुनाव जीत कर आए हुए विधायक, एनडीए में शामिल जेडीयू और बीजेपी के आलाकमान को लेकर फैसला करेंगे.
ये बताते हुए कि 'मैं आलाकमान नहीं हूं,' नितिन गडकरी भी अमित शाह वाला बयान दोहरा देते हैं, इस तरह के फैसले पार्लियामेंट्री बोर्ड होते हैं.
बीजेपी फिलहाल अजीब उलझन में फंसी हुई है. वो नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित कर वे वोट नहीं गंवाना चाहती जो सत्ता विरोधी लहर या किसी और वजह से हाथ से फिसल सकते हैं, और नहीं घोषित करके अपने समर्थकों को उम्मीद बंधाने की कोशिश कर रही है कि बीजेपी अब सत्ता में भी बड़े भाई की भूमिका में होगी. सीटों के बंटवारे में तो नीतीश कुमार को बड़े भाई की भूमिका से बेदखल कर ही चुकी है.
बीजेपी के केंद्र पर काबिज होने के तीन साल बाद ही 2017 में उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार बन गई थी. क्या मोदी गुजरात से यूपी के बजाय बिहार आए होते तो 2015 में बीजेपी की सरकार बन गई होती?