'अरे ओ सांभा...', 'ये हाथ हमको दे दे ठाकुर', 'मोगैंबो खुश हुआ...', 'आंखें निकालकर गोटियां खेलूंगा...' और 'सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है...' इस तरह के संवाद जब भी हमारे कानों में गूंजते हैं, हमारे जेहन में हिंदी फिल्मों के उन खलनायकों की छवि कौंधने लगती है, जिनके बिना फिल्में अधूरी हुआ करती थीं. अमरीश पुरी, प्रेम चोपड़ा, प्राण, रंजीत, गुलशन ग्रोवर, डैनी डेन्जोंगपा और शक्ति कपूर...ये कुछ ऐसे नाम हैं, जिनको फिल्म में देखते ही दर्शकों को भरोसा हो जाता था कि इनके किरदार जरूर निगेटिव होंगे. कुछ दशक पहले तक खलनायकों की अपनी पहचान होती थी. वो समाज के नकारात्मक लोगों के प्रतिनिधि हुआ करते थे. इनके किरदार नायक जैसे बड़े होते थे. अहमियत भी हीरो जैसी होती थी. लेकिन बाद के दिनों में जैसे-जैसे फिल्मों के निर्माण की प्रक्रिया बदली इनका अस्तित्व खत्म हो गया. आज हमारे सामने ऐसा कोई नाम नहीं है, जिसे पुख्ते तौर पर खलनायक कहा जा सके.
फिल्मों में खलनायक इसलिए जरूरी होता है, क्योंकि उनके बिना नायक का कोई अस्तित्व नहीं है. किसी फिल्म में जितना बड़ा खलनायक होगा, नायक के किरदार को उभारने की उतनी ही गुंजाइश होती है. याद कीजिए साल 1975 में रिलीज हुई फिल्म 'शोले' के बारे में, जिसके किरदार आज भी लोगों के जेहन में जिंदा हैं. लेकिन सबसे बड़ा किरदार गब्बर सिंह का था, जिसे अमजद खान ने निभाया था. गब्बर सिंह के जिक्र के बगैर 'शोले' की चर्चा अधूरी रहती है. अमिताभ बच्चन और धर्मेंद के किरदारों जय और वीरू की पहचान भी गब्बर सिंह की वजह से बनी थी. फिल्म का खलनायक कहानी को गति देने का काम करता है. वो नायक पर हमला करता है. उसे उकसाता है. उसे आगे बढ़ने और बदलने के लिए मजबूर करता है.
फिल्मों में खलनायक इतना जरूरी क्यों होता है
नायक जब खलनायक को सबक सीखाता है, तो लोग उसमें अपनी छवि देखते हैं. उनकी दबी हुई भावनाएं बाहर आती हैं. दर्शक हीरो को अपना आदर्श तभी मानता है, जब वो खलनायक को उसके बुरे कर्मों का दंड देता है. 70 और 80 के दशक में फिल्मों का खलनायक बेहद क्रूर होता था. समाज में पाए जाने वाले अपराधियों के जितने अवगुण होते हैं, वो सब उस खलनायक में होते थे. वो नशा करता था, नशे का कारोबार करता था. लड़कियों से छेड़छाड़ के अलावा उनके साथ बलात्कार तक करता था. याद कीजिए रंजीत और गुलशन ग्रोवर जैसे कलाकारों के किरदारों के बारे में, जो रूपहले पर्दे पर इस तरह के कृत्य अंजाम दिया करते थे. उनकी छवि बैड ब्वॉय की थी. आज भी गुलशन की पहचान बैडमैन की है.
अमरीश पुरी के 'मोगैम्बो' को कौन भूल सकता है
अमरीश पुरी जैसे महान अभिनेता ने खलनायकों की जमात में अपने लिए एक नई लकीर खींची थी. उनके कद जैसे खलनायक हिंदी सिनेमा में बहुत कम हुए हैं. अपने 30 वर्षों के फिल्मी करियर में उन्होंने करीब 450 फिल्मों में काम किया था, जिनमें ज्यादातर में वो खलनायक ही बने थे. 1987 में रिलीज हुई फिल्म 'मिस्टर इंडिया' के किरदार 'मोगैम्बो' को भला कौन भूल सकता है. इसी तरह फिल्म 'घायल' में बलवंत राय, 'दामिनी' में इंद्रजीत चड्ढा, 'नायक' में बलराज चौहान, 'दीवाना' में 'धीरेंद्र प्रताप', 'नागिन' में बाबा भैरवनाथ और 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' में चौधरी बलदेव सिंह जैसे उनके किरदार आज अमर हैं. कई फिल्में तो अमरीश पुरी द्वारा निभाए गए निगेटिव किरदारों की वजह से जानी जाती हैं.

खलनायकों के किरदार-संवाद जबरदस्त होते थे
हिंदी फिल्मों के इन खलनायकों के संवाद भी जबरदस्त हुआ करते थे. नायक की तरह उनकी संवाद अदायगी फिल्मों में प्रभाव पैदा करती थी. नायक से ज्यादा इनके संवाद दर्शकों को याद रह जाते थे. आज भी ऐसे कई संवाद है, जो प्रचलन में हैं. मसलन, फिल्म शोले में खलनायक गब्बर सिंह के संवाद, 'कितने आदमी थे', 'ये हाथ हमको दे दे ठाकुर', 'ये रामगढ़ वाले अपनी बेटियों को कौन सी चक्की का आटा खिलाते हैं', 'तेरा क्या होगा कालिया', 'जो डर गया, वो मर गया', 'अरे, ओ सांबा', आज लोगों की जुबान पर रहते हैं. इसी तरह अमरीश पुरी के कई संवाद आज भी मशहूर है, जिसमें 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' का 'जा सिमरन जा जी ले अपनी जिंदगी', 'मिस्टर इंडिया' का 'मोगैंबो खुश हुआ' प्रमुख हैं.
तब बॉलीवुड के सबसे महंगे खलनायक थे प्राण
हिंदी फिल्मों के खलनायकों की चर्चा प्राण के बगैर अधूरी है. सच में वो फिल्मों के 'प्राण' थे. सिर पर गोल हैट पहने, सिगरेट के धुएं का छल्ला उड़ाते जब वो स्क्रीन पर आते तो दर्शकों में हलचल बढ़ जाती थी. उनकी लोकप्रियता का आलम ये था कि वो अपने वक्त में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के दूसरे सबसे महंगे अभिनेता था. केवल उनसे ज्यादा पैसा राजेश खन्ना को मिलता था. फिल्म मेकर्स के लिए उन दोनों को एक साथ एक फिल्म में कास्ट करना मुश्किल हो जाता था. क्योंकि दोनों की महंगी फीस फिल्म का बजट बढ़ा देती थी. अपने छह दशक के करियर में प्राण ने 362 फिल्मों में काम किया था. इनमें 'उपकार', 'शहीद', 'पूरब और पश्चिम', 'राम और श्याम', 'जंजीर', 'डॉन', 'अमर अकबर एंथनी' प्रमुख हैं.
ऐसे खत्म होता गया खलनायकों का अस्तित्व
पिछले दो दशक के दौरान हिंदी फिल्मों में खलनायक का अस्तित्व धीरे-धीरे खत्म कर दिया गया है. अब नायक ही खलनायक की भूमिका निभा लेता है. इसकी शुरूआत 'डर' और 'बाजीगर' जैसी फिल्मों से हो गया था. इन दोनों फिल्मों में शाह रूख खान जैसे चॉकलेटी ब्वॉय को निगेटिव किरदार में देखा जा सकता है. यहां ऐसे किरदारों को विलेन की जगह एंटी-हीरो कैरेक्टर कहा जाने लगा. हालांकि, इस तरह के किरदार शाह रूख से पहले अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, दिलीप कुमार और नाना पाटेकर ने भी कुछ फिल्मों में निभाया था. लेकिन 90 के दशक के बाद इस चलन तेजी बढ़ने लगा. इसके बाद एंटी-हीरो का किरदार धीरे-धीरे ग्रे शेड लेने लगा. फिल्म 'युवा' में अभिषेक बच्चन, 'ओंकारा' में सैफ अली खान, 'अजनबी' में अक्षय कुमार, 'खाकी' में अजय देवगन और 'शूटआउट एट लोखंडवाला' में विवेक ओबेरॉय जैसे हीरो के किरदारों को ग्रे शेड में देखा जा सकता है.

फिल्मों में हीरो के विलेन बनने की परंपरा
एक ही फिल्म में हीरो और विलेन दोनों किरदार करने की परंपरा की शुरूआत सुपरस्टार रजनीकांत ने तमिल 'एंथिरन' से किया था. इसे हिंदी में 'रोबोट' के नाम से रिलीज किया गया था. इस फिल्म में बॉलीवुड एक्ट्रेस ऐश्वर्या राय भी लीड रोल में हैं. ऐसी परंपरा साउथ सिनेमा में ज्यादा रही है. हालांकि, कुछ पुरानी फिल्मों जैसे 'हसीना मान जाएगी' में शशी कपूर और 'सच्चा झूठा' में राजेश खन्ना ने इस तरह की भूमिका निभाई थी. बाद के दिनों में बॉलीवुड में शाह रूख ने इस परंपरा को आगे बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई है. उनकी ज्यादातर डबल रोल वाली फिल्मों में उनके किरदार एक-दूसरे के अपोजिट ही रहे हैं. हीरो और विलेन दोनों बने हैं. इनमें 'डुप्लीकेट', 'डॉन', 'फैन' और 'रॉ वन' का नाम प्रमुख है.
साउथ सिनेमा की शरण में जाने को मजबूर बॉलीवुड
इस बॉक्स ऑफिस पर धूम मचा रही फिल्म 'जवान' में शाह रूख खान हीरो और विलेन दोनों किरदारों में हैं. फिल्म में उनका एक संवाद है, ''जब मैं विलेन बनता हूं तो मेरे सामने कोई हीरो टिक नहीं सकता'', जो कि उनके निगेटिव रोल को ग्लैमराइज करता है. हालांकि, मेन निगेटिल रोल में साउथ सिनेमा के सुपरस्टार विजय सेतुपति हैं. विजय साउथ के स्थापित खलनायक हैं. लंबे वक्त के बाद बॉलीवुड की किसी फिल्म में एक ऐसा विलेन दिखा है, जिसकी हर कोई तारीफ कर रहा है. कुछ वैसे ही जैसे अमरीश पुरी, प्राण और अमजद खान की तारीफ होती थी. वैसे बॉलीवुड अब धीरे-धीरे साउथ सिनेमा की राह चलने लगा है. इसे सफलता पाने की मजबूरी कहें या फिर पैसा कमाने की जरूरत, अब साउथ की फिल्मों की कॉपी नहीं होती, बल्कि वहां की फिल्मों में ही बॉलीवुड के हीरो काम करने लगे हैं. 'जवान' इसका ज्वलंत उदाहरण है, जिसे पूरी तरह साउथ का सिनेमा कहा जा सकता है.