14 अगस्त को मनाया जाने वाला 'विभाजन की विभीषिका दिवस' सिर्फ 1947 के राजनीतिक बंटवारे की स्मृति भर नहीं है. यह उस भीषण अमानवीय त्रासदी का वार्षिक स्मरण है, जिसने करोड़ों लोगों को विस्थापन, हिंसा और असुरक्षा के अंधकार में धकेल दिया. यह दिन हमें अतीत की कटु वास्तविकता से परिचित कराते हुए आगाह करता है कि जब राजनीति संकीर्णता, सांप्रदायिकता और अवसरवाद के दलदल में फंसी होती है, तो सभ्य समाज किस तरह से विनाश की ओर अग्रसर हो जाता है.
विभाजन का इतिहास आम तौर पर केवल हिंदू-मुस्लिम संघर्ष के संदर्भ में समझा और पेश किया जाता है, जबकि इसके अंदर एक अनकही लेकिन उतनी ही भयावह अमानवीय दास्तान दबी पड़ी है, जो अनुसूचित समाज पर विभाजन के समय हुई सांप्रदायिक हिंसा है. अनुसूचित समाज के लिए विभाजन दो भौगोलिक क्षेत्रों के बीच सिर्फ़ सीमांकन नहीं था, बल्कि उन पर यह धार्मिक कट्टरता का कहर बनकर टूटा.
सामाजिक ,आर्थिक, राजनैतिक तौर पर कमजोर होने की वजह से मुस्लिम कट्टरपंथियों ने अनुसूचित समाज को योजनाबद्ध ढंग से निशाना बनाया. जोगेंद्र नाथ मंडल, पाकिस्तान के पहले कानून और श्रम मंत्री बने और अनुसूचित समाज के एक प्रमुख पैरोकार रहे.
पूर्वी पाकिस्तान में अत्याचार और पलायन
1950 में प्रधानमंत्री लियाकत अली ख़ान को लिखे अपने इस्तीफा पत्र में जोगेंद्र नाथ ने पूर्वी पाकिस्तान में अनुसूचित समुदाय पर हुए अमानवीय अत्याचारों की मार्मिक वेदना को प्रस्तुत किया. उन्होंने लिखा, “स्लीट ज़िले में निर्दोष हिंदुओं, खासकर अनुसूचित जातियों पर पुलिस और सेना द्वारा किए गए अत्याचार उल्लेखनीय हैं. पुरुषों को प्रताड़ित किया गया, महिलाओं के साथ रेप हुआ, घरों को लूटा गया, सैकड़ो मंदिरों और गुरुद्वारों को अपवित्र कर नष्ट कर दिया एवं उन्हें बूचड़खानों, कसाई घरों, मोची की दुकानों एवं मांस परोसने वाले होटलों में तब्दील कर दिया गया.”
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ढाका दंगों के दौरान पुलिस अधिकारियों की मौजूदगी में आभूषण की दुकानों को लूटा गया और आग लगा दी गई. मंडल ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, "कलशिरा गांव में 350 बस्तियों में से सिर्फ तीन बची थीं, बाकी जलकर राख हो चुकी थीं. 1947 से 1950 के बीच पूर्वी पाकिस्तान से भारत में आए करीब 25 लाख शरणार्थियों में भारी संख्या अनुसूचित समाज की थी. ये आंकड़े सिर्फ पलायन की कहानी नहीं कहते, बल्कि यह प्रमाण हैं कि मुस्लिम लीग का अनुसूचित समाज की सुरक्षा एवं समानता का वादा एक योजनाबद्ध छल था.
मंडल ने अपने पत्र में कटु यथार्थ को स्वीकार करते हुए लिखा, “मौजूदा हालात न केवल असंतोषजनक है, बल्कि पूरी तरह निराशाजनक और अंधकारमय है.” यह कथन मंडल की भावनात्मक वेदना मात्र नहीं, बल्कि उस ऐतिहासिक भूल की स्वीकारोक्ति थी, जिसमें दलित समाज को एक ऐसी राजनीतिक गठजोड़ पर भरोसा करने के लिए फुसलाया गया, जो मूलतः उनके अस्तित्व और अस्मिता के प्रतिकूल थी.
दलित-मुस्लिम एकता का ढहता आधार
इतिहास में पहली बार अनुसूचित और मुस्लिम समुदाय के गठजोड़ का प्रयोग जोगेंद्र नाथ मंडल ने ही किया था. मुस्लिम लीग के अहम नेता के तौर पर उभरे जोगेंद्र नाथ मंडल ने भारत विभाजन के वक्त अपने अनुसूचित समाज के अनुयायियों को पाकिस्तान के पक्ष मे वोट करने का आदेश दिया था. जब बंगाल में भयंकर दंगे हुए तो मंडल ने बंगाल में घूम घूमकर अनुसूचित समाज को मुसलमानों के विरुद्ध हथियार उठाने से मना किया. मंडल का कहना था कि मुसलमान भी अनुसूचित समाज के समान शोषित और पीड़ित हैं.
1947 में मंडल का कहना मानकर लाखों दलित, हिन्दू, मुस्लिम एकता के नारे का समर्थन करते हुए पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) में ही बस गए. पाकिस्तान बनने के बाद मुस्लिम लीग को दलित-मुस्लिम एकता का ढोंग करने की कोई जरूरत नहीं थी. उनके लिए हर गैर-मुस्लिम काफिर के समान था, चाहे वह सवर्ण हो चाहे वह अनुसूचित समाज का हो.
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1950 में पूर्वी पाकिस्तान में दलित हिन्दुओं का योजनाबद्ध तरीके से नरसंहार किया गया. अनुसूचित समाज को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक सभी अधिकारों से वंचित कर दिया गया और उन्हें अपने ही देश में निर्वासित जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया गया, 30% दलित हिन्दू जनसंख्या का भविष्य अंधेरे से भर गया. यह देखकर मण्डल ने नाराज होकर जिन्ना और लियाकत अली को कई पत्र लिखे लेकिन इस्लामिक सरकार को न तो कुछ करना था, न हीं उन्होंने किया.
आखिरकार, मंडल को समझ आ गया कि उसने किस पर भरोसा करने की गलती कर दी है. डॉ. अंबेडकर ने इस संभावित परिणाम को बहुत पहले देख लिया था. 'पाकिस्तान और पार्टीशन ऑफ़ इंडिया और थॉट्स ऑन पाकिस्तान' में उन्होंने साफ शब्दों में लिखा था, "मुस्लिम सियासत का चरित्र सांप्रदायिक है और यह अनुसूचित समाज को केवल तब तक साथ रखेगी जब तक इससे उन्हें राजनीतिक लाभ होगा. आंबेडकर का यह विश्लेषण मंडल के अनुभवों से शत-प्रतिशत मेल खाता है. अंबेडकर ने कहा था कि दलित और मुस्लिम समुदायों के धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्य इतने अलग हैं कि वास्तविक समानता एवं सह-अस्तित्व का विचार एक राजनीतिक भ्रम मात्र है. उन्होंने (हिन्दुओ) दलितों को चेतावनी दी थी कि मुस्लिम नेतृत्व, चाहे जितना भी भाईचारे का प्रदर्शन करे, अंततः दलितों को 'काफ़िर' ही मानकर व्यवहार करेगा."
'जय मीम जय भीम' नारे का ऐतिहासिक संदर्भ
आज उस राजनीतिक भ्रम को बेनकाब करना जरूरी है जिसे 'जय मीम जय भीम' में दोहराया जा रहा है. यह प्रयोग, जो मुस्लिम दलित एकता का दावा करता है, विभाजन की त्रासदी के दौरान जोगेन्द्र नाथ मंडल द्वारा किया जा चुका है. यद्यपि उस वक्त 'जय मीम जय भीम' शब्दशः नारा लोकप्रिय नहीं था, लेकिन इसका वैचारिक आधार मुस्लिम लीग और मंडल के इस गठबंधन में मौजूद था. यह विचार था कि मुस्लिम और अनुसूचित समाज, दोनों 'अल्पसंख्यक' होने की वजह से एक-दूसरे के स्वाभाविक सहयोगी हो सकते हैं. यह सिद्धांत भाषणों में आकर्षक लग सकता था, लेकिन जमीनी सच्चाई में यह गठबंधन शक्ति-समीकरण पर आधारित असमान एवं अव्यवहारिक समझौता था, जिसमें मुस्लिम लीग प्रमुख और दलित समाज मात्र संख्या पूर्ति का साधन बनकर रह गया.
इतिहास का यह सबक आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना 1947 के विभाजन के वक्त था. दुर्भाग्य से मौजूदा भारतीय राजनीति में कुछ दल उसी पुरानी और विफल रणनीति को फिर से जिंदा करने में लगे हैं. महाराष्ट्र में अकबरुद्दीन ओवैसी और प्रकाश आंबेडकर की नजदीकियां, उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी द्वारा अनुसूचित जाति और मुस्लिम समुदाय के बीच गठबंधन का असफल प्रयोग और समाजवादी पार्टी का पीडीए फार्मूले के जरिए इन दोनों समुदायों को महज़ वोट बैंक के रूप में साधने का प्रयास... ये सभी उदाहरण उस ऐतिहासिक भूल की प्रतिध्वनि हैं. यह प्रवृत्ति न केवल अतीत के घावों को ताज़ा करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि जब राजनीति जनसरोकारों से हटकर संकीर्ण जातीय और सांप्रदायिक गणित पर आधारित होती है, तो उसका परिणाम आखिरकार विश्वासघात और सामाजिक विघटन ही होता है.
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आज यह सवाल अहम है कि क्या दलित समाज को फिर से एक ऐसे गठबंधन का हिस्सा बनाया जाएगा, जो उनकी सामाजिक और धार्मिक अस्मिता के विपरीत है? क्या इतिहास के रक्तरंजित सबूतों के बावजूद भावनात्मक नारों से बहकना उचित होगा? विभाजन की विभीषिका स्मृति दिवस पर यह सवाल सिर्फ दलित समाज के लिए नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र के लिए विचारणीय है. यह सवाल दलित समाज के राजनैतिक स्मिता और उसके भविष्य की दिशा को तय करने वाला है.
आज हमें यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करना होगा कि दलितों की स्थायी उन्नति और सुरक्षा केवल आत्मनिर्भरता, शिक्षा, राजनीतिक जागरूकता और संगठन से आएगी, न कि उन गठजोड़ों से जो इतिहास में बार-बार उनके लिए घातक साबित हुए हैं. 'जय मीम-जय भीम' जैसी अवधारणा और उसके प्रयोग के ऐतिहासिक परिणाम अनुसूचित समाज के अपमान, अस्मिता के हनन और अस्तित्व-नाश की त्रासदी के रूप में प्रकट हुए. इस सच को छिपाना न केवल इतिहास के साथ अन्याय होगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के प्रति भी गंभीर अपराध होगा.
इसलिए, आज जब हम विभाजन की पीड़ा को याद कर रहे हैं, तो यह संकल्प लें कि हम भावनात्मक नारेबाज़ी और वोट बैंक आधारित संकीर्ण राजनीति के प्रभाव से रहकर अपने फैसले ऐतिहासिक तथ्यों और सामूहिक अनुभवों के आधार पर लें. जोगेंद्र नाथ मंडल का अनुभव और डॉ. आंबेडकर की चेतावनियां हमें यही सिखाती हैं कि अनुसूचित समाज को सुरक्षा, सामाजिक न्याय और सम्मान कभी भी उन हाथों से नहीं मिलेगा, जो इतिहास में हमें धार्मिक उन्माद, तुष्टीकरण एवं वोट बैंक की राजनीति के जरिए ठगते रहे हैं. यह सिर्फ इतिहास की व्याख्या नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य के लिए मार्गदर्शन है.