मशहूर कवि वीरेन डंगवाल का निधन हो गया है. वह अपने गृहनगर बरेली स्थित एक अस्पताल के आईसीयू में भर्ती थे. सोमवार सुबह उन्होंने आखिरी सांस ली. काफी समय से उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था.
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित वीरेन डंगवाल उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल स्थित कीर्तिनगर में जन्मे थे. उन्होंने मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली, नैनीताल और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की. वीरेन 1971 से बरेली कॉलेज में हिंदी के शिक्षक रहे.
आखिरी दिनों में स्वास्थ्य कारणों से उन्हें दिल्ली में रहना पड़ा. 22 साल की उम्र में उन्होंने पहली रचना लिखी और फिर देश की तमाम स्तरीय साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में लगातार छपते रहे.
उन्होंने पाब्लो नेरूदा, बर्तोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊश रोजेविच और नाज़िम हिकमत जैसे रचनाकारों के अपनी खास शैली में कुछ दुर्लभ अनुवाद भी किए हैं. उनकी खुद की कविताओं का बांग्ला, मराठी, पंजाबी, अंग्रेजी, मलयालम और उड़िया में अनुवाद हुआ है. उन्हें हिन्दी कविता की नई पीढ़ी के सबसे चहेते कवियों में माना जाता था.
उनकी कुछ कविताएं:
1.
प्रेम तुझे छोड़ेगा नहीं !
वह तुझे खुश और तबाह करेगा
सातवीं मंज़िल की बालकनी से देखता हूं
नीचे आम के धूल सने पोढ़े पेड़ पर
उतरा है गमकता हुआ वसन्त किंचित शर्माता
बड़े-बड़े बैंजली-
पीले-लाल-सफेद डहेलिया
फूलने लगे हैं छोटे-छोटे गमलों में भी
निर्जन दसवीं मंज़िल की मुंडेर पर
मधुमक्खियों ने चालू कर दिया है
अपना देसी कारखाना
सुबह होते ही उनके झुण्ड लग जाते हैं काम पर
कोमल धूप और हवा में अपना वह
समवेत मद्धिम संगीत बिखेरते
जिसे सुनने के लिए तेज़ कान ही नहीं
वसन्त से भरा प्रतीक्षारत हृदय भी चाहिए
आँसुओं से डब-डब हैं मेरी चश्मा मढ़ी आँखें
इस उम्र और इस सदी में
2.
यह कौन नहीं चाहेगा उसको मिले प्यार
यह कौन नहीं चाहेगा भोजन वस्त्र मिले
यह कौन न सोचेगा हो छत सर के ऊपर
बीमार पड़ें तो हो इलाज थोड़ा ढब से
बेटे-बेटी को मिले ठिकाना दुनिया में
कुछ इज़्ज़त हो, कुछ मान बढ़े, फल-फूल जाएँ
गाड़ी में बैठें, जगह मिले, डर भी न लगे
यदि दफ्तर में भी जाएँ किसी तो न घबराएँ
अनजानों से घुल-मिल भी मन में न पछ्तायें।
कुछ चिंताएँ भी हों, हाँ कोई हरज नहीं
पर ऐसी भी नहीं कि मन उनमें ही गले घुने
हौसला दिलाने और बरजने आसपास
हों संगी-साथी, अपने प्यारे, ख़ूब घने।
पापड़-चटनी, आंचा-पांचा, हल्ला-गुल्ला
दो चार जशन भी कभी, कभी कुछ धूम-धांय
जितना संभव हो देख सकें, इस धरती को
हो सके जहाँ तक, उतनी दुनिया घूम आएं
यह कौन नहीं चाहेगा?
पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है
इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है
वह क़त्ल हो रहा, सरेआम चौराहे पर
निर्दोष और सज्जन, जो भोला-भाला है
किसने आख़िर ऐसा समाज रच डाला है
जिसमें बस वाही दमकता है, जो काला है।
मोटर सफ़ेद वह काली है
वे गाल गुलाबी काले हैं
चिंताकुल चेहरा- बुद्धिमान
पोथे कानूनी काले हैं
आटे की थैली काली है
हां सांस विषैली काली है
छत्ता है काली बर्रों का
यह भव्य इमारत काली है
कालेपन की ये संताने
हैं बिछा रही जिन काली इच्छाओं की बिसात
वे अपने कालेपन से हमको घेर रहीं
अपना काला जादू हैं हम पर फेर रहीं
बोलो तो, कुछ करना भी है
या काला शरबत पीते-पीते मरना है?